पर्यावरण को बर्बाद कर रही भारत की पर्यटन संस्कृति

भारतीय पर्यटन उद्योग से हर साल लगभग 250 मिलियन टन से अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है, जो कि भारत के कुल CO2 उत्सर्जन का लगभग 10% है। चिंताजनक बात यह है कि यह आंकड़ा साल दर साल तेजी से बढ़ता जा रहा है।
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क्या होगा यदि मैं आपसे कहूं कि हमें अमरनाथ और वैष्णो देवी जैसे धार्मिक स्थलों पर तीर्थयात्रियों की संख्या को सीमित करने की आवश्यकता है? क्या होगा अगर मैं आपको बताऊं कि शिमला, महाबलेश्वर और गंगटोक जैसे हिल स्टेशनों पर उनकी क्षमता से अधिक मात्रा में पर्यटक आ रहे हैं और उन्हें रोकने की जरुरत है? कई लोग इसे संविधान में उल्लिखित स्वतंत्रता के अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों के उल्लंघन के रुप में देखने लगेंगे। लेकिन सच्चाई यही है कि ऐसी जगहें अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं और इसके लिए हमें पर्यटकों की संख्या को सीमित करने की जरुरत है।

इस साल जून में, मनाली में पर्यटकों की संख्या इतनी अधिक हो गई थी कि हजारों वाहनों ने इस हिल स्टेशन के सभी छोटे और बड़े रास्तों को जाम कर दिया था। इस जाम की वजह से कुल्लू से रोहतांग पास जाने वाले रास्ते पर हजारों पर्यटक पूरी रात फंसे रहे। लोग खुले में शौच करने को मजबूर हो गए थे और वायु प्रदूषण का स्तर भी काफी बढ़ गया था।

इस तरह की स्थिति सभी प्रमुख पर्यटन केंद्रों पर होने की संभावना है। कारण बहुत साफ है- जैसे-जैसे भारत का निम्न-मध्यम वर्ग अमीर हो रहा है और लोगों के पास खर्च करने के लिए अतिरिक्त पैसे भी बढ़ रहे हैं। पर्यटन उनको आकर्षित कर रहा है। यही कारण है कि भारत में यात्रा और पर्यटन से जुड़ा क्षेत्र सबसे तेजी से विकसित होने वाले उद्योगों में से एक है। 2018 की जीडीपी में इसका योगदान लगभग 9% यानी लगभग 17.5 लाख करोड़ रुपये था।

लेकिन यह विकास पर्यावरण और पारिस्थितिकी से समझौते के बदले हो रहा है। दुनिया भर में तेजी से हो रहे पर्यावरण परिवर्तन में पर्यटन क्षेत्र पर बढ़ रहे दबाव का भी अहम योगदान है। भारतीय पर्यटन उद्योग से हर साल लगभग 250 मिलियन टन से अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है, जो कि भारत के कुल CO2 उत्सर्जन का लगभग 10% है। चिंताजनक बात यह है कि यह आंकड़ा साल दर साल तेजी से बढ़ता जा रहा है।

हालांकि कई पर्यटक स्थल ऐसे भी हैं जो कि अपने आप को प्रदूषण से बचाए रखे हैं, लेकिन अधिकतर पर्यटक स्थलों की हालत बहुत खराब है और वे लगातार प्रदूषित हो रहे हैं। खासकर भारत का हिमालयी क्षेत्र ऐसे पर्यटन का केंद्र बन चुका है।

भारत में कई ऐसे पर्यटन स्थल, विशेष रूप से हिल स्टेशन, तीर्थ स्थल और वन्यजीव अभयारण्य हैं, जो अपनी वहन क्षमता को पार कर गए हैं। (फोटो- स्वाति सुभेदार)

भारत में कई ऐसे पर्यटन स्थल, विशेष रूप से हिल स्टेशन, तीर्थ स्थल और वन्यजीव अभयारण्य हैं, जो अपनी वहन क्षमता को पार कर गए हैं। (फोटो- स्वाति सुभेदार)

अगर हम लद्दाख का ही उदाहरण लें। ठंडा रेगिस्तान कहे जाने वाले इस इलाके में जल संसाधनों की सीमित उपस्थिति है। यहां के स्थानीय लोग इस बात को समझते भी हैं और प्रतिदिन 25 लीटर से कम पानी का ही उपयोग करते हैं। लेकिन यहां आने वाले पर्यटक दिन भर में करीब 75 से 100 लीटर पानी का उपभोग करते हैं।

लद्दाख में लगभग 700 होटल हैं। हर साल यहां लगभग 2.5 लाख पर्यटक आते हैं, जो कि क्षेत्र की आबादी के बराबर है। इससे क्षेत्र के जल संसाधनों पर दबाव पड़ता है। लद्दाख के प्रमुख शहर लेह में पानी का प्रमुख स्त्रोत सिंधु नदी है। सिंधु नदी की वजह से यहां का जलस्तर ठीक-ठाक है और लोग बोरवेल की मदद से जमीन से पानी निकालते हैं।

लेकिन लेह में बोरवेल की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जिसका प्रभाव लेह के गिरते जलस्तर पर दिख रहा है। इसका सीधा प्रभाव लेह के स्थानीय लोगों पर पड़ेगा जो पेयजल और कृषि उपयोग के लिए इस पानी का प्रयोग करते हैं। लद्दाख लंबे समय तक ऐसे पर्यटन दबाव को सह नहीं पाएगा।

लद्दाख की तरह ही कई और पर्यटन केंद्र भी कुछ इसी तरह के पर्यावरणीय दबाव से गुजर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, तमिलनाडु के पर्यटन पर्वतीय क्षेत्र कोडाइकनाल में पर्यटकों की संख्या पिछले दस वर्षों में चार गुना बढ़ गई है। पर्यटकों की इस बढ़ती संख्या कारण इस इलाके को पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है। इसके अलावा यहां का सीवेज सिस्टम प्रभावित हुआ है, वायु प्रदूषण में वृद्धि हुई है और अधिक सड़कें बनाने के लिए जंगलों का कटान भी हुआ है।

पर्यटकों द्वारा प्लेट, चम्मच, स्ट्रॉ और बोतलों के अतिशय उपयोग के कारण इस क्षेत्र के प्लास्टिक प्रदूषण में भी वृद्धि हुई है। पर्यावरण विज्ञान के अनुसार हर क्षेत्र की अपनी एक वहन क्षमता होती है, जो संसाधनों की उपलब्धता और उनके उपयोग पर निर्भर करती है।

एक बार भी हम उस क्षमता को पार करते हैं, उसी वक्त पर्यावरण और पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचने लगता है। भारत में कई ऐसे पर्यटन स्थल, विशेष रूप से हिल स्टेशन, तीर्थ स्थल और वन्यजीव अभयारण्य हैं, जो अपनी वहन क्षमता को पार कर गए हैं। कई जगहों पर यह वहन करने की क्षमता क्षेत्र की भौतिक सीमाओं के कारण नहीं बल्कि संसाधनों के कुप्रबंधन की वजह से अधिक सीमित हो गई है।

भारत में यात्रा और पर्यटन से जुड़ा क्षेत्र सबसे तेजी से विकसित होने वाले उद्योगों में से एक है। 2018 की जीडीपी में इसका योगदान लगभग 9% था। (फोटो- स्वाति सुभेदार)

भारत में यात्रा और पर्यटन से जुड़ा क्षेत्र सबसे तेजी से विकसित होने वाले उद्योगों में से एक है। 2018 की जीडीपी में इसका योगदान लगभग 9% था। (फोटो- स्वाति सुभेदार)

कश्मीर विश्वविद्यालय में भूगोल विकास विभाग के प्रमुख मोहम्मद सुल्तान भट द्वारा किए गए एक अध्य्यन के अनुसार लिद्दर घाटी, जहां पर अमरनाथ मंदिर स्थित है, की वहन क्षमता महज 4,300 तीर्थयात्री प्रतिदिन की है। लेकिन अमरनाथ यात्रा के दिनों में यहां हर दिन औसतन 12,000 से अधिक तीर्थयात्री गुफा में जाते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पहले से ही मंदिर के आसपास के ग्लेशियरों प्रभावित हो रहे हैं और मानवीय दबाव इस दुष्प्रभाव को और बढ़ा रहा है। इसका परिणाम यह है कि अमरनाथ गुफा में स्थित प्राकृतिक शिवलिंग हर साल आकार में लगातार कम होता जा रहा है और कई बार तो यात्रा समाप्त होने से पहले ही पूरी तरह से पिघल जा रहा है।

अगर स्थिति ऐसी ही बनी रही तो कुछ दशकों में ही ऐसा मौका आएगा जब श्रद्धालुओं के पास जाने और प्रार्थना करने के लिए शिवलिंग नहीं होगा। इसलिए, ऐसी जगहों पर पर्यटकों की संख्या को सीमित करने और स्थानीय प्रशासन में सुधार करने की तत्काल जरुरत है।

हम अपने पड़ोसी देश भूटान से इस मामले में सबक सीख सकते हैं। भूटान ने पर्यटन शुल्क को बढ़ाकर पर्यटकों की संख्या को नियंत्रित किया है। भूटान में प्रत्येक पर्यटक को हर दिन एक न्यूनतम पर्यटन शुल्क का भुगतान करना पड़ता है, जो कि सीजन के अनुसार प्रति दिन 14,000 से 17,500 रुपये तक होता है। इस शुल्क का एक हिस्सा

हम भूटान से भी बेहतर कर सकते हैं। धार्मिक स्वतंत्रता और समानता को सुनिश्चित करने के लिए हम आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों की एक निश्चित संख्या को धार्मिक पर्यटन के लिए आरक्षण दे सकते हैं। बाकी के लोगों के लिए किसी भी पर्यटक स्थल की यात्रा करने के लिए एक निश्चित शुल्क लगना चाहिए।

भारतीय पर्यटन उद्योग से हर साल लगभग 250 मिलियन टन से अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है, जो कि भारत के कुल CO2 उत्सर्जन का लगभग 10% है। (फोटो- स्वाति सुभेदार)

भारतीय पर्यटन उद्योग से हर साल लगभग 250 मिलियन टन से अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है, जो कि भारत के कुल CO2 उत्सर्जन का लगभग 10% है। (फोटो- स्वाति सुभेदार)

कहने का लब्बोलुआब यह है कि भारत की वर्तमान पर्यटन संस्कृति से कार्बन का उत्पादन बढ़ रहा है और यह पर्यावरण के लिए बिल्कुल भी उचित नहीं है। यदि हमें इन स्थानों को लंबे समय तक बनाए रखना है, तो पर्यटकों की संख्या को सीमित करने के साथ-साथ कई कठोर कदम उठाने होंगे।

पर्यटन महत्वपूर्ण है और लोगों को अपने धार्मिक और पसंदीदा स्थानों पर जाने का विकल्प होना चाहिए। लेकिन हम इससे होने वाले पर्यावरण परिवर्तन के प्रति आंख नहीं मूंद सकते। इसके अलावा पर्यटन उद्योग, पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए एक सुखद वातावरण देने पर निर्भर करता है। कोई भी गंदी और प्रदूषित जगह पर नहीं जाना चाहता।

लेकिन भारत की वर्तमान पर्यटन संस्कृति पर्यावरण को बर्बाद करने वाली है। अगर हमें पर्यटन का आनंद लेना है तो हम सभी को और अधिक जिम्मेदार बनना होगा। इसके लिए हमें ‘वास्तविक टिकाऊ पर्यटन’ को बढ़ावा देने की जरुरत है।

(लेखक भारत के प्रमुख पर्यावरणविद् हैं जिन्हें संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण इकाई (UN-Environment) की तरफ से 2017 में ‘ओजोन अवॉर्ड’ मिल चुका है। यह लेखक के निजी विचार हैं।) 

अनुवाद- दया सागर

इस लेख को अंग्रेजी में यहां पढ़ें- Several tourist places in India have exceeded their carrying capacity


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