सारा खान
मरियामल तब आठ साल की थी जब उसने मां का हाथ बंटाने के लिए तंबाकू के छोटे-छोटे टुकड़ो को तेंदू पत्ते (डायोस्पायरस मेलानोक्सिलीन) में लपेटकर बीड़ी बनाना शुरू किया था। मारियामल के परिवार में उसके शराबी पिता को मिलाकर आठ लोग हैं। हालांकि तीन दशक से अधिक समय तक काम करने के बाद आखिरकार वह इस नशे के कारोबार से बाहर हो गई। अब वह तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले में एक निजी फर्म में सफाई कर्मचारी के रूप में काम कर रही हैं।
मरियामल ने गांव कनेक्शन को बताया, “मैं बत्तीस साल बाद बीड़ी का काम छोड़ पाई। इस दौरान मुझे बहुत सारी स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ा। अभी भी जब मैं काफी लंबे समय तक बोलती हूं तो मुझे रह रहकर सांस लेने में कठिनाई होती है। ” मरियामल तिरुनेलवेली के उकिरनकोट्टई गांव की रहने वाली हैं।
वह कहती हैं कि वह पिछले तीन वर्षों से एक सफाई कर्मी के तौर पर काम कर रही है। लेकिन बीड़ी बनाने वाली मजदूर से सफाई कर्मचारी बनने का यह बदलाव आसान नहीं था।
देश में लाखों गरीब बीड़ी मजदूर हैं और इनमें से ज्यादातर महिलाएं हैं। ये सभी अपने परिवार को पालने के लिए बीड़ी बनाने का काम करती हैं और गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करती हैं। भारत में हर साल लगभग आठ फीसदी आबादी द्वारा 75,000 करोड़ से लेकर 1,00,000 करोड़ की बीड़ी का सेवन किया जाता है। इस तरह से देखा जाए तो बीड़ी सिगरेट से ज्यादा लोकप्रिय है।

फरीदा केंगेरी, कर्नाटक के बैंगलोर में बीड़ी बनाने का काम करते हुए. फोटो
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत सरकार का अनुमान है कि भारत में 45 लाख बीड़ी श्रमिक हैं। इनमें से अधिकांश घर से काम करने वाली महिला श्रमिक हैं। वहीं एक अन्य अध्ययन में दावा किया गया कि गरीब महिलाओं के अलावा बीड़ी बनाने के कार्य में 17 लाख से अधिक बच्चे भी शामिल हैं। जबकि ट्रेड यूनियनों का दावा है कि अगर बीड़ी बनाने के साथ तेंदू के पत्ते इकठ्ठा करने वालों को भी शामिल किया जाए तो यह संख्या 70 लाख से 80 लाख तक पहुंच सकती है।
बीड़ी बनाने के लिए तेंदू पत्ता को पहले पानी में भिगोकर सुखाया जाता है। इसके बाद पत्ती की कटाई की जाती है और इसमें तंबाकू भरकर रोल किया जाता है। इससे छाती में दर्द, सांस लेने में कठिनाई, पैर और पीठ में दर्द, टीबी, अस्थमा और एनीमिया जैसी स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं।
एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 70 लाख से अधिक श्रमिक बीड़ी बनाने का काम करते हैं। इनमें से 50 लाख (71%) से अधिक महिलाएं हैं। एक अन्य रिपोर्ट कहती है कि बीड़ी बनाने के काम में 90 प्रतिशत महिलाएं ही हैं।

कई आदिवासी महिलाएं तेंदू के पत्ते इकट्ठा करने का काम करती हैं. फोटो
बीड़ी बनाने के काम में लगे कुल कार्यबल का लगभग 96 प्रतिशत घर से काम करता है, जबकि कारखानों में केवल चार प्रतिशत लोग ही जाते हैं।
इसमें सबसे दिलचस्प बात यह है कि देश में बीड़ी श्रमिकों की संख्या में आई गिरावट के बाद उनका प्रतिशत अचानक से फिर बढ़ गया है। हालिया रिपोर्ट में पाया गया कि बीड़ी श्रमिकों की संख्या 1993-94 में 44.7 लाख से घटकर फरवरी 1997 में 42.7 लाख हो गई। जबकि साल 2018 में यह बढ़कर 48 लाख हो गई। यह दर्शाता है कि 1993 से 2018 के बीच बीड़ी बनाने वाले श्रमिकों की संख्या में 15 से 21 लाख की वृद्धि हुई।
हालांकि दक्षिण के दो राज्य तमिलनाडु और कर्नाटक में बीड़ी श्रमिकों की संख्या में बड़ी कमी आई है। अकेले तमिलनाडु में 5 लाख महिलाओं ने बीड़ी बनाने का काम छोड़ दिया है। वहीं कर्नाटक में यह संख्या एक लाख है। इसके लिए दक्षिणी राज्यों में लागू महिला समर्थक नीतियों को जिम्मेदार ठहराया गया है।
एएफ डेवलपमेंट केयर रिपोर्ट के अनुसार में कर्नाटक और तमिलनाडु में ज्यादातर (53.8 प्रतिशत) महिलाएं बीड़ी बनाने के काम को छोड़कर अन्य व्यवसायों में तत्काल जाने का इरादा कर रही हैं। लेकिन बीड़ी श्रमिकों की उम्र के साथ अन्य आय स्रोतों में बदलाव की दर में गिरावट आई है। इसी तरह शहरी क्षेत्रों से आए कर्मचारी ग्रामीण लोगों की तुलना में कमाने के विकल्पों के लिए अन्य व्यवसायों में बदलाव करने के उत्सुक थे।

तमिलनाडु की बीड़ी कर्मचारी ई रेगिना- फोटो
सकारात्मक बदलाव
एएफ डेवलपमेंट केयर की रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन दशकों में घटी महिला बीड़ी श्रमिकों की संख्या के लिए दक्षिणी राज्यों में लगातार सरकारों द्वारा अपनाई गई विभिन्न महिला-केंद्रित कार्यक्रमों और दीर्घकालिक नीति परिवर्तनों की सफलता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
नीतिगत बदलावों ने उन्हें आर्थिक रूप से व्यवहारिक और गैर-खतरनाक व्यवसायों में जाने के विकल्प प्रदान किए हैं।
उदाहरण के लिए तमिलनाडु में बीड़ी श्रमिकों की संख्या में अधिकतम कमी (5,41,000) बताई जा रही है। तमिलनाडु को भारत में महिला उद्यमियों (13.51 प्रतिशत) का सबसे बड़ा हिस्सा होने का गौरव प्राप्त है। वहीं कर्नाटक 2006-07 के अपनाए गए लिंग बजट के प्रस्ताव को लागू करने में सफल रहा है।
साल 2018-19 में कर्नाटक सरकार ने महिला श्रमिकों को रात में काम करने की मंजूरी दी। ऐसा करके उन्हें और अधिक विकल्प और काम करने की स्वतंत्रता दी गई। इस तरह के सकारात्मक पहल ने दक्षिणी राज्यों में कार्यबल में महिलाओं के लिए जगह प्रदान की है।
आप तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले के वडक्कू वागीकुलम गांव निवासी 41 वर्षीय मुथु सरस्वती का ही मामला ले लीजिए। साल 2015 में घर से सिलाई का व्यवसाय शुरू करने से पहले सरस्वती 11 साल तक बीड़ी बनाने का करती रहीं। इस वजह से उन्हें शरीर में तेज दर्द की समस्या का भी सामना करना पड़ा। सिलाई का काम शुरू करने के बाद से उनकी आय प्रति सप्ताह 100-150 रुपये से बढ़कर 400 रुपये प्रति सप्ताह हो गई। मुथु बताती हैं कि लॉकडाउन के कारण उनके पति ने अपनी नौकरी खो दी और अब वह अपने परिवार का एकमात्र सहारा हैं।
उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “मैंने लगातार शरीर में दर्द के कारण बीड़ी बनाने का काम छोड़ दिया। अब मेरा स्वास्थ्य बेहतर हो गया है और आय में सुधार हुआ है। मेरी बेटियां अच्छे से पढ़ रही हैं इसलिए मैं संतुष्ट हूं। “
एएफ डेवलपमेंट केयर की रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर महिलाएं जो अब बीड़ी बनाने का काम छोड़ चुकी हैं, उनके पास या तो अपनी जमीन है या वे कृषि उद्योग में कार्यरत हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लोग महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) से लाभान्वित हुए हैं। वहीं कुछ सरकारी और निजी क्षेत्रों में कार्यरत हैं।
अनौपचारिक, शोषणकारी और एक बड़ा स्वास्थ्य खतरा
पिछले दो दशकों में कर्नाटक और तमिलनाडु में बीड़ी बनाने वाले श्रमिकों में काम बदलने की सकारात्मक प्रवृत्ति देखी गई है। यह उद्योग बड़े पैमाने पर अनौपचारिक है और इसमें बिचौलियों / दलालों द्वारा महिलाओं का शोषण भी किया जाता है। हाल के शोध में पाया गया कि “भारत में कुल बीड़ी कर्मचारियों में से लगभग 96 प्रतिशत घर से काम करते हैं जबकि 4 प्रतिशत लोग कारखानों में जाते हैं। केवल 62.5 प्रतिशत बीड़ी श्रमिकों के पास आईडी कार्ड हैं जो दर्शाता है कि 37.5 प्रतिशत बीड़ी श्रमिकों के पास उद्योग में कोई औपचारिक मान्यता नहीं है।”
इसके लिए मुख्य रूप से इस तथ्य को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है कि ज्यादातर महिलाएं अपने घरों से काम करती हैं। इस व्यवसाय में काम कर रही ज्यादातर महिलाएं सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों से आती हैं। उदाहरण के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग से भारत में 37 प्रतिशत महिला बीड़ी श्रमिक हैं।
एएफ डेवलपमेंट केयर की रिपोर्ट के अनुसार असंगठित क्षेत्र में 94 प्रतिशत महिला बीड़ी श्रमिकों की तुलना में संगठित क्षेत्र में 47 प्रतिशत महिलाएं किसी भी सामाजिक सुरक्षा लाभ के लिए पात्र नहीं हैं। इसी प्रकार असंगठित और संगठित क्षेत्रों में 97 से 90 प्रतिशत बीड़ी श्रमिक महिलाएं अवकाश के लिए भी पात्र नहीं हैं।
असंगठित क्षेत्र की अधिकांश महिला बीड़ी श्रमिकों को पीस रेट के हिसाब से बहुत कम वेतन दिया जाता है। वहीं संगठित क्षेत्र में भी एक प्रतिशत महिला श्रमिकों को मासिक आधार पर भुगतान किया जाता है और उनमें से अधिकांश (42 प्रतिशत) का भुगतान पीस रेट के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए मरियामल और मुथु सरस्वती प्रति 500 बीड़ी के लिए 20 से 35 रुपये कमाती हैं। इस तरह एक बीड़ी श्रमिक के तौर पर वह प्रति सप्ताह 100 से 150 रुपये कमाने में कामयाब होती हैं।

जी पुष्पवल्ली, उकिरनकोट्टई, तिरुनेलवेली, तमिलनाडु. फोटो
एएसी डेवलपमेंट केयर के निदेशक साची सतपथी ने गांव कनेक्शन को बताया, “बीड़ी बनाने का काम घर से किया जाता है जिसकी वजह से ये महिलाएं सरकार की कल्याणकारी और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाती हैं और बीड़ी मालिक बिचौलियों के माध्यम से इसमें पैसा कमाते हैं। यह प्रक्रिया तंबाकू के काम में पूरे परिवार को झोक देती है और सभी के लिए स्वास्थ्य जोखिम पैदा करती है। ” उन्होंने जोर देता हुए कहा कि सरकार को घर-घर बीड़ी बनाने के काम को खतरनाक करार देना चाहिए।
सतपथी के रिपोर्ट में बीड़ी बनाने की प्रक्रिया में शामिल स्वास्थ्य के खतरे को लेकर एक विस्तृत दस्तावेज शामिल है। इनमें कमजोरी, सांस लेने में तकलीफ, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, खांसी, ब्रोंकाइटिस, शरीर में दर्द, पेट में दर्द का सामना करने वाली महिला कार्यकर्ता शामिल हैं। यह महिलाएं अपनी वार्षिक आय का लगभग 30 प्रतिशत स्वास्थ्य मुद्दों पर खर्च कर देती हैं।
वैश्विक स्वास्थ्य, जैव-रसायन और स्वास्थ्य नीति के शोधकर्ता अनंत भान के अनुसार ऐसे कई कारक हैं जो बीड़ी को स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बनाते हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “एक ही स्थिति में बैठे रहने से उनके बैठने की मुद्रा भी प्रभावित होती है। इसके अलावा उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर भी इसका असर पड़ता है क्योंकि वे कपड़े के मास्क का उपयोग नहीं करती हैं जिस कारण धूम्रपान न करने वाला व्यक्ति भी तंबाकू का एक घटक निकोटीन का आदी हो जाता है। निकोटीन के अपने दुष्प्रभाव होते हैं। ”
उन्होंने आगे कहा कि बीड़ी बनाने के काम को औपचारिक अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा बनाने के लिए उचित मजदूरी और सहायक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बनाना जरूरी है। इसके लिए गरीब महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर बीड़ी के प्रभाव को कम करने के लिए समय-समय पर स्वास्थ्य जांच की भी आवश्यकता है।
सतपथी बताते हैं कि इन गरीब महिलाओं को उन दलालों द्वारा लक्षित किया गया है जो इनकी गरीबी का लाभ उठाना चाहते हैं। “जहां कहीं भी इस तरह के शोषण के खिलाफ प्रतिरोध की एक मजबूत आवाज होती है तब ये बिचौलिये किसी अन्य गरीब ब्लॉक में चले जाते हैं। इसका ज्यादातर शिकार मुस्लिम महिलाएं होती हैं क्योंकि ये बिचौलिये उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि वे घर से बाहर नहीं जा सकती हैं इसलिए बीड़ी बनाना उनके लिए सबसे सही विकल्प है। “
वहीं कई सरकारी एजेंसियां दावा करती हैं कि कई नीतियों और योजनाओं में श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा और वित्तीय सुरक्षा सहायता के प्रावधान हैं। नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया (एनआईटीआईयोग) के डिप्टी एडवाइजर, बी मुनिराजू ने गांव कनेक्शन को बताया, “इसके लिए एक केंद्र सरकार का कानून है और कई राज्य सरकारें काम करती हैं जिसके लिए अधिकारी सख्ती से काम कर रहे हैं ताकि लाभ सभी तक पहुंचे। हालांकि यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि लोगों के बीच इसकी जानकारी नहीं होती है, जिसके कारण लाभ प्राप्त करना उनके लिए मुश्किल हो जाता है।”

फोटो: प्लान एशिया / फ्लिकर
सरकारी पहल: क्या यह पर्याप्त है?
पांच दशक पहले बीड़ी और सिगार श्रमिक (रोजगार की स्थिति) अधिनियम, 1966 बीड़ी श्रमिकों के काम करने की स्थिति को विनियमित करने और उनका कल्याण करने के लिए प्रदान किया गया था। इसके एक दशक बाद बीड़ी श्रमिक कल्याण निधि अधिनियम, 1976 लागू किया गया जो बीड़ी श्रमिकों और उनके परिवारों के लिए कल्याणकारी योजनाओं, स्वास्थ्य, शिक्षा, मातृत्व लाभ, समूह बीमा, मनोरंजन, आवास सहायता आदि से संबंधित सुविधाएं प्रदान करता है। इसके अंतर्गत बीड़ी श्रमिकों के बच्चों, विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष योजनाएं भी हैं।
हालांकि अनुकूल श्रम कानूनों और नियामक ढांचे के बावजूद इनमें से अधिकांश लाभ ज्यादा से ज्यादा बीड़ी श्रमिकों तक पहुंचने में विफल रहे हैं। बहुत कम वेतन और खराब कामकाजी परिस्थितियों के साथ लाखों महिलाएं श्रमिक अनौपचारिक सेटअप में लगी रहती हैं।
सतपथी कहते हैं कि महिला बीड़ी रोलर्स के कौशल विकास पर सरकार की पहल बहुत प्रभावी नहीं रही है। वह सोचते हुए कहते हैं,”2019 में कुल 2,223 महिला बीड़ी रोलर्स में से केवल 1,025 (जो कि केवल 46 प्रतिशत है) को ट्रेनिंग देकर वैकल्पिक नौकरियों में स्थानांतरित कर दिया गया है। मुख्य समस्या यह है कि पांच मिलियन महिलाएं बीड़ी बनाने के कार्य में लगी हुई हैं और अगर हम कुछ हजारों को ही प्रशिक्षण देना जारी रखते हैं, तो उन्हें प्रशिक्षित करने और उन्हें एक अलग तरह का कौशल प्रदान करने में कितने साल लगेंगे? “

मुनिराजू दावा करते हैं कि कौशल एजेंसियों को हर साल कम से कम 15-30 प्रतिशत लोगों की संख्या बढ़ाने के लिए निर्देश दिए जाते हैं। उन्होंने कहा, “हमारे पास सभी विभागों के लिए लक्ष्य अनुपात के लिए एक वर्ष होता है जिसके तहत कौशल प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है जो कौशल वृद्धि और रोजगार के अवसरों को सुनिश्चित करता है ताकि नामांकित लोगों की संख्या बढ़े और यह सुनिश्चित हो कि उन्हें इस क्षेत्र के तहत रोजगार मिले।”
वह आश्वासन देते हुए कहते हैं, “प्रशिक्षण प्रदाताओं के लिए अतिरिक्त आदेश उपलब्ध हैं ताकि वह रोजगार के अवसर और प्रशिक्षण प्रदान करें। मुद्रा लोन, स्टैंड अप इंडिया और स्टार्ट अप इंडिया ऐसी योजनाएं हैं जो इन महिलाओं को पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान करती है। “
देश में 50 मिलियन से अधिक गरीब महिलाएं बीड़ी बनाने के काम में शामिल हैं, इसलिए उन्हें बेहतर व्यवसायों और स्वस्थ कामकाजी परिस्थितियों में जाने के लिए मदद की तत्काल आवश्यकता है।
अनुवाद- शुभम ठाकुर
इस रिपोर्ट को मूल रूप से अंग्रेजी में यहां पढ़ें- Low wages, high health costs: Poor, marginalised women beedi rolling workers face acute exploitation