लखनऊ। प्राइवेट स्कूलों में लड़कियों की तुलना में लड़कों का नामांकन अधिक हो रहा है। हाल में जारी हुई एक रिपोर्ट में यह बात फिर से स्पष्ट हुई है कि माता-पिता अपने बच्चों की शिक्षा में लिंग के अनुसार भेदभाव करते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार, लड़कों का नामांकन प्राइवेट और लड़कियों का नामांकन सरकारी स्कूलों में अधिक हो रहा है।
प्राथमिक शिक्षा पर काम करने वाली संस्था ‘प्रथम’ के रिपोर्ट असर (Annual Status of Education Report-ASER) के अनुसार 4 से 8 वर्ष के 90 फीसदी बच्चों का नामांकन स्कूलों में हुआ है लेकिन इसमें लैंगिक विषमता साफ देखी जा सकती है। ‘अर्ली ईयर्स 2019’ नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019 में 4 से 5 साल की 56.8 फीसदी लड़कियों का नामांकन सरकारी स्कूलों में हुआ, जबकि इसी आयु वर्ग के सिर्फ 50.4 फीसदी लड़कों का नामांकन सरकारी स्कूलों में हुआ।
उम्र और क्लास बढ़ने के साथ-साथ यह दायरा और बढ़ता जाता है। जहां 6 से 8 साल के आयुवर्ग में 61.1 फीसदी लड़कियों का नामांकन सरकारी स्कूलों में हुआ, वहीं लड़कों की संख्या सिर्फ 52.1 फीसदी रही। ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की स्कूली शिक्षा पर लंबे समय से काम कर रहीं सामाजिक कार्यकर्त्री शिल्पी सिंह असर की इस रिपोर्ट को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रुप से देखती हैं।
गांव कनेक्शन से फोन पर बातचीत में वह कहती हैं, “असर की इस रिपोर्ट की अच्छी बात यह है कि लड़कियों का नामांकन दर सुधरा है और इसे भी सकारात्मक रूप में लेना चाहिए कि इन लड़कियों का नामांकन सरकारी स्कूलों में हो रहा है। हमारी कोशिश यही रहती है कि लैंगिक विभेद से ऊपर उठकर लड़का हो या लड़की सभी को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ना चाहिए।”
हालांकि शिल्पी ने स्वीकार किया कि उन्हें फील्ड पर कई ऐसे अनुभवों का सामना करना पड़ता है, जिसमें एक ही परिवार में लड़कों को अधिक फीस खर्च कर प्राइवेट स्कूलों में और लड़कियों को कम या शून्य फीस पर सरकारी स्कूलों में भेजा जाता है।
आपको बता दें कि असर ने यह सर्वे देश के 24 राज्यों के 1514 गांवों में 36,930 बच्चों पर किया है। ग्रामीण भारत पर हुई इस सर्वे में 4 से 8 साल के बच्चों को शामिल किया गया है। असर की इस रिपोर्ट में छात्रों की अध्य्यन क्षमता पर भी सर्वे किया गया है।
इस रिपोर्ट के अनुसार कक्षा एक में पढ़ने वाले 41.1 फीसदी छात्र अक्षर नहीं पहचान पाते, वहीं 32.9 फीसदी छात्र और छात्रा शब्दों को पढ़ने में सक्षम नहीं हैं। कक्षा एक की 28.1 फीसदी छात्र और छात्राएं 1 से 9 तक का अंक भी नहीं पहचान पाते।
देश की शिक्षा नीति के अनुसार, प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश लेने से पहले सभी विद्यार्थियों को पूर्व प्राथमिक शिक्षा (प्री स्कूल शिक्षा) मिलनी चाहिए। सरकार ने इसके लिए पूरे देश में आंगनबाड़ी शिक्षा की व्यवस्था की है। वहीं कई प्राइवेट संस्थान भी ‘प्ले स्कूल’ चलाते हैं। इस प्री स्कूलिंग शिक्षा का मकसद होता है कि कम आयु में बच्चे विभिन्न तरह के सामाजिक, संज्ञानात्मक और भावनात्मक कौशल अपने अंदर विकसित करें और उन्हें प्राथमिक शिक्षा के लिए तैयार किया जा सके।
असर की यह रिपोर्ट कहती है कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा में भी विद्यार्थियों का नामांकन क्षेत्रवार विषमता से भरा हुआ है। जहां केरल के थ्रिस्सुर जिले में, जहां पर साक्षरता दर बहुत अधिक है, 89.9 फीसदी बच्चे स्कूल जाने से पहले पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में प्रवेश लेते हैं, वहीं मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड के एक बेहद पिछले जिले सतना में यह नामांकन प्रतिशत सिर्फ 47.7 फीसदी है।
पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षा ग्रहण कर रहे बच्चों की संज्ञानात्मक क्षमता दूसरे बच्चों से अधिक होती है। असर की रिपोर्ट के अनुसार पूर्व प्राथमिक कक्षाओं के 4 वर्ष के 31 फीसदी बच्चे और 5 वर्ष के 45 फीसदी बच्चे 4 टुकड़ों की पहेली (पजल) हल करने में अपने आप को सक्षम पाते हैं। वहीं ऐसे बच्चों की अक्षर ज्ञान और गणित के सवाल हल करने की क्षमता भी दूसरे बच्चों से बेहतर होती है।
पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में भी यह विषमता देखने को मिली कि जो बच्चे निजी विद्यालयों में एलकेजी, यूकेजी या प्ले स्कूल में प्रवेश लेते हैं, उनकी संज्ञानात्मक, अक्षर ज्ञान और गणितीय क्षमता आंगनबाड़ी के बच्चों से अधिक थी।
मां की शिक्षा और योग्यता का प्रभाव बच्चों की शैक्षणिक क्षमता पर पड़ता है। असर की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि जिन बच्चों की माताएं अधिक पढ़ी लिखी हैं, उनकी गणितीय और भाषायी क्षमता तुलनात्मक रुप से बेहतर है।
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