मुजफ्फरपुर: "मैंने कभी इतने शव नहीं देखे, इतने लोगों को कभी बिलखते नहीं देखा"

मुजफ्फरपुर में बच्चों के मरने की संख्या 100 पार कर चुकी है, अभी भी कई बच्चे गंभीर रूप से बीमार हैं। ऐसे हालात में एक रिपोर्टर के लिए रिपोर्टिंग करना बहुत मुश्किल हो जाता है। रिपोर्टिंग के दाैरान जो भी देखा, महसूस किया, उसे अपने शब्दों में बता रहे हैं चंद्रकात मिश्रा।

Chandrakant MishraChandrakant Mishra   17 Jun 2019 1:47 PM GMT

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Chamki fever, Muzaffarpur children, Muzaffarpur death case, children die of brain fever, death toll rises in Muzaffarpur, Muzaffarpur, children die of brain feverमुजफ्फरपुर में बच्चों के मरने की संख्या 100 पार कर चुकी है, अभी भी कई बच्चे गंभीर रूप से बीमार हैं।

पिछले चार दिनों से मुजफ्फरपुर में हूं, ये मेरे जीवन का सबसे मुश्किल दौर है। मुजफ्फरपुर जो बच्चों की कब्रगाह बना हुआ है। मेरे सामने 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है। सैकड़ों बच्चे सरकारी और निजी अस्पतालों में भर्ती हैं। अस्पताल के हर कोने से रोने की आवाजें 24 घंटे आती हैं। आईसीयू से कोई शव बाहर निकलता है तो कोहराम मच जाता है।

डॉक्टर, अस्पताल के कर्मचारी और मेरे जैसे मीडियाकर्मी आईसीयू से इमरजेंसी तक दिनभर दौड़ते रहते हैं। दिनभर रिपोर्टिंग करने के बाद जब मैं होटल पहुंचता हूं तो सफेद कपड़े में लिपटे मासूमों के शव, उन्हें सीने से चिपकाए रोती-बिलखती मांएं और दूर कहीं सिसकते पिता की तस्वीरें दिखती हैं। एक सुबह जब मैं अस्पताल पहुंचा तो पता चला कि एक ही गांव के छह बच्चे मर गये हैं। चारों ओर चीख-पुकार मची हुई थी।

बेटी के ठीक होने की उम्मीद करती एक मां

यह सब देखकर मैं अपने आंसुओं को रोक नहीं पाया। मंदिर की चौखट पर बैठकर रोने लगा। मैं चार साल की एक बच्ची का पिता हूं… बार-बार उसकी तस्वीर सामने आ रही थी। वही बेटी जिसे चींटी भी काट लेती है तो मैं परेशान हो जाता हूं, लेकिन यहां तो मां-बाप अपने सामने ही अपने बच्चे को मरते हुए देख रहे हैं। बेचारे इतने बेबस हैं कि कभी डॉक्टर के हाथ जोड़ते हैं कभी ऊपर वाले से दुआ मांगते हैं। पत्नी रोती है तो पति चुप कराता है और पुरुष रोते हैं तो कोई महिला उन्हें ढांढस बंधाती हैं। कई लोग ऐसे भी हैं जिनके आसपास कोई नहीं।

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एक मां अपनी सास को पकड़कर रो रही थी। उसके पति उसे पहले ही छोड़कर जा चुके थे। 10 साल का बेटा ही सब कुछ था, लेकिन अफसोस वो चमकी का शिकार हो गया। यह मंजर मेरे लिए सबसे दुखदायी था।

वार्ड में जैसे ही डॉक्टर आते हैं, उम्मीदों भरी निगाहें उन्हें घेर लेती हैं। हर जुबान से बस यही आवाज आती है, डॉक्टर साहब, मेरे बच्चे को बचा लीजिए, क्या मेरा बच्चा बच जायेगा?

आपने उस शख्स का शायद वीडियो देखा होगा जो केंद्रीय मंत्रियों से अपना दुखडा न सुना पाने पर कहता है "मेरे बच्चे मर रहे हैं मुझे भी मार दो।" जब ये हंगामा हो रहा था उसी वक्त अस्पताल के दूसरे कोने में लकड़ी के बेंच पर लेटी एक मां रो रही है। कुछ समय पहले ही उसकी बच्ची की मौत हुई थी।

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मुजफ्फरपुर के श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज के नाम से लोग डरने लगे हैं। मैं खुद यहां पिछले चार दिनों से हूं, मरने वाले ज्यादातर बच्चे बेहद गरीब हैं, शायद इसलिए भी उनकी आंसुओं में वो ताकत नहीं है जिससे सरकार हिल सके।

अस्पताल परिसर में एक मंदिर भी है। मंदिर की चौखट पर हर समय ऊपर वाले भगवान से लोग दुआएं मांग रहे हैं कि नीचे वाला भगवान उनके जिगर के टुकड़े को किसी भी तरह बचा ले।

इतने बच्चे मर चुके हैं, कई गंभीर हैं, देशभर की मीडिया वहां मौजूद है बावजूद इसके अस्पताल में बदइंतजामी पहले जैसी है, पीने के लिए पानी नहीं है। वैशाली से अपने बच्चे का इलाज कराने आये महेश कुमार कहते हैं, " अस्पताल में डॉक्टर नहीं हैं, जो हैं वे समय पर नहीं आते। बाथरूम में जाना मुश्किल है। शौच के लिए बाहर जाना पड़ता है। मैं अपने बच्चे को लेकर यहां आया तो हूं, लेकिन यहां के हालात देखकर लग नहीं रहा है कि मेरा बच्चा ठीक हो पायेगा।"

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परिजनों में आक्रोश है। वे सरकार की अनदेखी से नाराज हैं। बतौर रिपोर्टर मेरे लिए यह सब देखना बहुत ही दुखद है। मैंने अपने जीवन में कभी इतने शव नहीं देखे। इतने लोगों को बिलखते नहीं देखा।

मैं जब मुजफ्फरपुर पहुंचा तब मुझे पता चला कि यहां पहले भी ऐसा होता आया है। 2014 में भी ऐसी ही बीमारी से 200 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई थी। पिछले साल भी 50 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई थी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सरकार क्या कर रही थी।

वर्ष 2014 में जब बच्चे मरे थे तब भी देश के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की कमान डाॅ. हर्षवर्धन के हाथों में ही थी। तब भी उन्होंने बहुत से आश्वासन दिये थे। लेकिन अफसोस देखिए, पांच साल बाद भी वैसी ही घटना हुई, इतने सालों में कोई सुधार नहीं हुआ।

जिस दिन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन अस्पताल पहुंचे, उस दिन अस्पताल चमक रहा है था इससे पहले चारों ओर गंदगी थी। मरने वाले बच्चों और अस्पताल में भर्ती होने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। रोते बिलखते लोग देखे नहीं जाते। आज सुबह (17 जून) सुबह एंबुलेंस एक लड़की का शव उसके घर लेकर जाती है, और उधर से उसकी छोटी बहन को लेकर आती है, जो बेहद बीमार है।

बस, अब और नहीं देखा जाता, भगवान इनकी जान बख्श दीजिए।

(चंद्रकांत मिश्रा, गांव कनेक्शन में हेल्थ रिपोर्टर हैं, पिछले चार दिनों से मुजफ्फरपुर में हैं)


    

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