– सुलक्षणा नंदी और दीपिका जोशी
हाल ही में नीति आयोग ने सरकारी जिला अस्पतालों को प्राइवेट मेडिकल कॉलेज के हाथों में सौंपने की सिफारिश की है। स्वास्थ्य सेवा में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल की असफलताओं के बावजूद कई राज्य इस सिफारिश पर काम करते दिख रहे हैं। कोरोना महामारी के दौरान मई 2020 में इस प्रस्ताव की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए नीति आयोग ने राज्यों को याद भी दिलाया था।
मीडिया में प्रकाशित लेखों की समीक्षा करने से पता चलता है कि कई राज्य, नीति आयोग के इस प्रस्ताव को विभिन्न स्तरों पर लागू करने की योजना बना रहे हैं। नीति आयोग इस प्रस्ताव को ‘एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट’ की रैंकिग के आधार पर आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट वे जिले हैं जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट के तहत शामिल जिलो में सुधार होने से विकास में समग्र सुधार हो सकता है। हालांकि कई राज्यों में इस प्रस्ताव का विरोध भी हो रहा है।
उत्तर प्रदेश सरकार पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल के तहत सभी 75 जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलने की योजना बना रही है। राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसे “निवेशकों के लिए अवसर” बताया है। पिछले साल दिसंबर में पश्चिम बंगाल सरकार ने भी प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों को सरकारी अस्पतालों का प्रयोग करने के आमंत्रित किया था।
केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ में स्वास्थ्य विभाग ने पीपीपी मॉडल के तहत सेक्टर-16 में स्थित सरकारी मल्टी स्पेशियलिटी अस्पताल में एक मेडिकल कॉलेज की स्थापना का प्रस्ताव रखा। हालांकि वहां अस्पताल के स्वास्थ्य कर्मचारियों के यूनियन ने इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया।
मध्य प्रदेश सरकार ने इंदौर जिले के सैनवर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को निजी हाथों में सौंपने का फैसला किया, तो इसका बड़ी संख्या में स्वास्थ्य कर्मचारियों ने विरोध किया। विगत 26 फरवरी को नागालैंड में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने पीपीपी मॉडल के तहत निर्मित हो रहे एक मेडिकल कॉलेज की आधारशिला रखी, जिसका स्थानीय लोगों ने कड़ा विरोध किया।
दक्षिणी गोवा में सरकारी अस्पतालों को पीपीपी मोड से संचालित करने का जोरदार विरोध विपक्षी दलों द्वारा किया गया। ओडिशा, महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकार भी नीति आयोग के इस प्रस्ताव को लागू करने पर विचार कर रही हैं।
क्या है प्रस्ताव?
जनवरी 2020 में नीति आयोग ने पीपीपी मॉडल के तहत निजी मेडिकल कॉलेजों को जिला अस्पतालों से जोड़ने का प्रस्ताव लाया था। इसके तहत तमाम हितधारकों से इस संबंध में सुझाव भी मांगे गए थे, जिसमें राज्य भी शामिल होते हैं। हालांकि, कुछ विचार-विमर्श से पहले ही केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट 2021-22 में पीपीपी मॉडल के तहत अस्पतालों के संचालन की घोषणा कर दी।
मेडिकल शिक्षा के नाम पर जिला अस्पतालों का निजीकरण किया जा रहा है। नीति आयोग के इस प्रस्ताव का उद्देश्य सरकार द्वारा संचालित लोककल्याणकारी जिला अस्पतालों को लाभकारी उद्यमों में बदलना है। इस प्रस्ताव से सरकारी अस्पतालों में इलाज की कीमतों में बढ़ोत्तरी होगी, जिससे कई हजार परिवार गरीब हो सकते हैं। यह प्रस्ताव राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 और वैश्विक स्वास्थ्य नीतियों के भी खिलाफ है।
इस प्रस्ताव के कारण डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मचारियों, स्वास्थ्य विशेषज्ञों, शिक्षाविदों और जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं में खासा नाराजगी है। तीन राज्यों- केरल, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश (तब एमपी में कांग्रेस की सरकार थी, अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार है) ने नीति आयोग के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया है।
क्यों हो रहा हंगामा?
पीपीपी मॉडल के तहत जिला अस्पतालों को 60 साल तक निजी हाथों में सौंपने का प्रस्ताव है। निजी एजेंसियां इसके लिए बहुत कम शुल्क का भुगतान करेंगी और सरकार की तरफ से इन्हें अतरिक्ति अनुदान भी दिया जाएगा और अस्पताल बनाने के लिए कम कीमत पर जमीन मुहैया कराई जाएगी। साथ ही केंद्र सरकार व्यवहार्यता अंतर वित्तपोषण (वीजीएफ) योजना के तहत वित्तीय समर्थन भी देगी।
निजी एजेंसियों को बैंक लोन या निजी तरीके से फंड जुटाने होंगे और उन्हें लोन चुकाने या निवेशकों को भुगतान करने के लिए फंड की व्यवस्था करनी होगी। इसके चलते इलाज कराने वाले मरीजों पर आर्थिक दबाव बढ़ेगा।
विडंबना यह है कि पिछले साल 2020 में कोरोना महामारी के दौरान मई में केंद्र सरकार ने सामाजिक क्षेत्र के लिए व्यवहार्यता अंतर वित्तपोषण योजना की शुरुआत की थी और राज्यों से कहा था कि इस प्रस्ताव की प्रक्रिया में तेजी लाए। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि आर्थिक इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए दी गई वीजीएफ को अब सामाजिक बुनियादी ढांचे के विकास के लिए बढ़ाया जाएगा।
इलाज का खर्च बढ़ेगा
इस पीपीपी मॉडल का सीधा प्रभाव मरीजों पर पड़ेगा क्योंकि इलाज की कीमतों में बढ़ोतरी होगी। इस प्रस्ताव में बताया गया है कि निजी हाथों में सौंपे जाने वाले जिला अस्पतालों को मुफ्त में मरीजों का इलाज करने के लिए एक श्रेणी बनानी होगी। इस श्रेणी का नाम ‘नि: शुल्क मरीज’ होगा। इस श्रेणी में आने वाले मरीजों के इलाज का खर्च सरकार वहन करेगी।
सरकार इन मरीजों पर हुए इलाज का खर्च निजी संस्थाओं को देगी, बाकी मरीजों को बाजार के हिसाब से ईलाज के लिए शुल्क का भुगतान करना पड़ेगा। कितने मरीजों का मुफ्त में इलाज किया जाएगा, इसका कोई जिक्र प्रस्ताव में नहीं किया गया है। मुफ्त में इलाज कराने के लिए मरीज को जिला प्रशासन से प्रमाणित होना चाहिए। अनुभव के आधार पर हम जानते हैं कि यह प्रक्रिया बहुत मुश्किल हो सकती है।
जिला अस्पताल में आने वाले ज्यादातर मरीजों को इलाज के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में रेफर किया जाता है। जरा आप सोचिए कि एक महिला, जिसे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र से इमरजेंसी अस्पताल के लिए रेफर कर दिया जाता है तो उसे अपने गांव से 100 किलोमीटर से अधिक की यात्रा करनी पड़ेगी, तब उसे मुफ्त में इलाज कराने के लिए जिला प्रशासन से प्रमाण पत्र मिलेगा। अगर वह ऐसा नहीं कर पाती हैं तो उसे बाजार के हिसाब से इलाज का खर्च देना पड़ेगा।
इस प्रस्ताव में निजी संस्थानों को कैंटीन और रहने के लिए आवास सुविधा स्थापित करने की अनुमति दी गई है। इन सुविधाओं के लिए मरीजों से लिए जाने वाले फीस पर कोई प्रतिबंध नहीं लगेगा। इन सुविधाओं के लिए फीस तय नहीं होने से दूर-दराज और ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले मरीजों को परेशानी होगी।
जिला अस्पताल को सभी सेवाओं पर फीस लगाने की अनुमति देना सरकार द्वारा मरीजों को मुफ्त में स्वास्थ्य सेवा देने की घोषणा के विरूद्ध है। इससे ईलाज के लिए मरीजों पर खर्च का बोझ बढ़ेगा। यह लोगों को गरीबी के दलदल में ढकेलने का काम करेगा।
इस प्रस्ताव में ‘रेगुलेटेड बेड’ और ‘मार्केट बेड’ के लिए भी प्रावधान बनाया गया है। ‘रेगुलेटेड बेड’ का प्रयोग सबसे ज्यादा सरकारी स्वास्थ्य बीमा जैसे- प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के लाभार्थी मरीज करते हैं, जिसका ईलाज खर्च सरकार वहन करती है। हालांकि, कई बार यहां तक देखा गया है कि प्राइवेट अस्पतालों में सरकारी वित्त पोषित स्वास्थ्य बीमा योजना का लाभ उठाने वाले ज्यादातर मरीज अपनी जेब से खर्च करते हैं।
सरकारी कर्मचारियों को निजी हाथों में सौंपा जाएगा
यह प्रस्ताव कार्यरत सरकारी कर्मचारियों को निजी हाथों में सौंपने की भी अनुमति देता है। प्राइवेट हाथों को कर्मचारियों की नियुक्ति का विकल्प भी दिया गया है, जिनका वेतन सरकार देगी। स्वास्थ्य कर्मचारी भी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे सकते हैं और निजी अस्पताल या मेडिकल कॉलेज जॉइन कर सकते हैं।
यह देखा गया है कि अधिकांश निजी मेडिकल कॉलेज, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के मानदंडों के अनुसार फैकल्टी की व्यवस्था कर पाने में असमर्थ हैं। इसलिए यह प्रावधान निजी मेडिकल कॉलेजों के लिए बहुत फायदेमंद है।
सफल प्रयोगों से सीखने की जरुरत
जिला अस्पतालों का निजीकरण करने के प्रस्ताव के बजाय सरकार को कुछ सफल प्रयोगों से सीखना चाहिए, जहां जिला अस्पतालों की व्यवस्था को मजबूत किया गया है। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के बीजापुर में जिला अस्पताल में एक पहल शुरू हुई थी। अब यह पहल दंतेवाड़ा और सुकमा जिले में भी शुरू की गई है। इस पहल के तहत जिला अस्पतालों को अपग्रेड किया गया। स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा देने के लिए डॉक्टरों और विशेषज्ञों को नियुक्त किया गया और अस्पताल की बुनियादी ढांचे और सेवाओं में वृद्धि की गई। ओडिशा जैसे अन्य राज्यों में भी इस तरह के प्रयास किए जा रहे हैं।
नीति आयोग का यह सार्वजनिक भलाई से प्रेरित सरकारी स्वास्थ्य सेवा के विचार को खारिज करती है और इसे राजस्व-उत्पादक उद्यम मॉडल के रूप में बदलती है।
प्रस्ताव को अपनाने वाले राज्य भी इन चिंताओं को समझ पाने में असफल हैं। इस प्रस्ताव का सबसे ज्यादा प्रभाव समाज के कमजोर वर्ग पर पड़ेगा, जिसमें गरीब, महिला, आदिवासी, दलित और ग्रामीण शामिल हैं। अगर यह प्रस्ताव लागू होता है तो वैश्विक स्तर पर भारत सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में बुरी तरह विफल हो सकता है। केंद्र और राज्यों को नीति आयोग के इस प्रस्ताव को अस्वीकार करने की जरूरत है।
सुलक्षणा नंदी जन स्वास्थ्य अभियान (पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट, इंडिया) की राष्ट्रीय सह-संयोजक हैं और दीपिका जोशी इससे जुड़ी स्वास्थ्य शोधकर्ता हैं।
(ये लेखिका के निजी विचार हैं।)
इस स्टोरी को मूल रूप से अंग्रेजी में पढ़ें- Profit at the cost of the poor: NITI Aayog’s proposal for public-private partnerships in healthcare
अनुवाद- आनंद कुमार
ये भी पढ़ें- मलकानगिरी मॉडल: मलेरिया से लड़ने के लिए माइक, मच्छरदानी और जन जागरूकता