– नंदिता वेंकटेसन और रीहा लोबो
‘असंवेदनशील रवैये और सुझावों से कोरोना वायरस के मरीज परेशान’
‘COVID-19 से उबर गए लेकिन नहीं लौटी फेफड़ों की पूरी ताकत’
‘देश में क्वादरंटाइन सुविधाओं की बुरी हालत उजागर’,
एक ओर जहां हम भारतीय कोरोना वायरस की महामारी को फैलते देख सदमे में हैं, अपनी सेहत और वित्तीय सुरक्षा को लेकर परेशान हैं। इस रोग के बढ़ते मामलों से निपटने में नाकाम बदहाल हेल्थे्केयर सिस्टम को लेकर हम शिकायत कर रहे हैं। ऐसे में अखबारों और सोशल मीडिया में खबरों की इस तरह की हेडिंग आम हो गई हैं। लेकिन देश में एक ऐसा वर्ग है जिसके लिए इसमें कुछ भी नया नहीं है। टीबी से जूझकर उबरने वाले सर्वाइवर्स लंबे समय से यही सब देखते-सुनते आ रहे हैं।
टीबी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक हवा के जरिए फैलता है। फेफड़ों वाली टीबी का मरीज जब खांसता, छींकता या थूकता है तो वह हवा में टीबी के रोगकारक जीवाणु फैलाता है। हवा में मौजूद इन जीवाणुओं की थोड़ी सी मात्रा सांस के जरिए शरीर में चली जाए, तो यह एक एक स्वस्थ व्यूक्ति को बीमार करने के लिए काफी है। टीबी हर रोज 13 हजार भारतीयों की जान लेता है।
टीबी मरीजों की लिस्ट में भारत है टॉप पर
भारत जानलेवा संक्रामक महामारी टीबी का गढ़ बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की ‘द ग्लोवबल ट्यूबरकुलोसिस रिपोर्ट 2019’ के अनुसार भारत में टीबी मरीज दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। ड्रग रेसिस्टेंट टीबी, टीबी की वह खतरनाक किस्म है, जिस पर दो सबसे ताकतवर ऐंटी टीबी ड्रग्स भी नाकाम साबित हो जाते हैं। दुनिया के जानेमाने स्वास्थ्य विशेषज्ञ इसे एक ‘जिंदा बम’ और ‘भयंकर स्वास्थ्य संकट’ का नाम दे चुके हैं। इससे भी अधिक टीबी एक ऐसी बीमारी है जो आपके जीवन के सबसे उत्पाादक काल यानि 15-59 आयु वर्ग के लोगों को अपनी चपेट में लेती है।
वैक्सीन और रिसर्च की कमी है सबसे बड़ा संकट
इतना सब होने के बाद भी दबे पांव हमारे जीवन में दखल देने वाली इस महामारी को लेकर जनता में कोई खास चिंता नहीं है। वैज्ञानिक और शोधकर्ता भी इसकी ओर से आंखें फेरे हुए हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि सरकारें इस पर बहुत कम पैसा खर्च कर रही हैं।
दुनियाभर में जहां कोरोना वायरस के रोकथाम के लिए साल भर के अंदर वैक्सीन बनाने पर चर्चा हो रही है वहीं टीबी के खिलाफ हमारी जंग इतनी दयनीय है कि हम आज भी 100 साल पहले विकसित की गई वैक्सीेन का इस्तेमाल कर रहे हैं। इतना ही नहीं यह वैक्सीन हमें बचाने में नाकाम भी साबित हुई है। इस लेख की दोनों लेखिकाओं को जन्म के समय बीसीजी के टीके लगे इसके बाद भी उन्हें टीबी हो गया। पिछले 40 वर्षों में इसकी कोई नई दवा तक नहीं विकसित हो पाई है।
इसके रिसर्च और फंडिंग में अधिकांश लोग रुचि नहीं लेते हैं, इसकी बड़ी वजह यह है कि अधिकांश मरने वाले विकासशील देशों के होते हैं विकसित देशों के नहीं। आज जहां कोरोना वायरस का यूरोप और अमेरिका में घातक प्रकोप है वहीं टीबी को यूरोप के बहुत से हिस्सों में भुला दिया गया है। हालांकि, इसको लेकर हाल के वर्षों में जागरूकता बढ़ी है लेकिन फिर भी विकसित देशों मे बहुत से इस गलतफहमी में जीते हैं कि टीबी का उन्मूलन हो चुका है और इसका जिक्र अब केवल इतिहास की किताबों में ही मिलता है।
टीबी को पहचानने की चुनौतियां इससे निपटने में सबसे बड़ी बाधा हैं। इस रोग को पहचानने में देरी, खासकर एक्ट्रा पल्मोनरी टीबी से पीड़ित मरीज तो एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक चक्कर काटता रहता है। कई बार तो रोग क्या है इसकी सही जांच के लिए उसे दूसरे राज्यों तक दौड़ना पड़ता है। एक्ट्रा पल्मोानरी टीबी तब होता है जब टीबी के बैक्टीरिया शरीर के दूसरे हिस्सों जैसे रीढ़, पेट, मस्तिष्क वगैरह को प्रभावित करते हैं। टीबी की तुलना में इसकी पहचान काफी मुश्किल है क्योंकि अभी इस क्षेत्र में वैज्ञानिक सबूत मौजूद नहीं हैं।
कुछ भाग्यशाली लोगों की तो समय रहते टीबी की पहचान हो जाती है। लेकिन मामला तब जटिल हो जाता है जब मरीज को ऐसी कई दवाओं के संवेदनशीलता परीक्षण से गुजरना पड़ता है जिन्हें आमतौर पर कम इस्तेमाल किया जाता है। इन परीक्षणों के आधार पर तय किया जाता है कि टीबी की खास किस्म के लिए दवाओं का कौन सा सही कॉम्बिनेशन दिया जाए। टीबी के इलाज में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाना एक बड़ी बाधा है। ऐसे में सही परीक्षण के अभाव में बहुत से लोगों का समय उन दवाओं को लेने में बर्बाद हो जाता है जो कारगर ही नहीं हैं।
समाजिक अलगाव और इससे जुड़ा कलंक
टीबी से ग्रस्त लोग जानते हैं कि सामाजिक अलगाव और इससे जुड़ा कलंक क्या है। टीबी की संक्रामक प्रकृति की वजह से सामाजिक दुराव की प्रवृत्ति और मजबूत होती है। हालांकि जागरूकता की कमी की वजह से लोगों को यह पता नहीं है कि सही दवा लेने के दो हफ्तों से दो महीनों के बीच इसका मरीज संक्रामक नहीं रह जाता। लेकिन टीबी के बहुत से रोगियों को उनके अपने घरों और व्यवसाय की जगह ही सामाजिक अलगाव और दुराव का सामना करना पड़ता है। टीबी ग्रस्त लोग न केवल अपना रोजगार खो बैठते हैं बल्कि उनमें से कई के जीवनसाथी और दोस्त भी सामाजिक गलतफहमी के कारण उनसे दूर हो जाते हैं। सामाजिक-आर्थिक संबल के नाम पर बहुत मामूली सी मदद सरकार से मिलती है। केंद्र सरकार पोषण भत्ते- के रूप में महज 500 रुपये महीने देती है। सरकारी लालफीताशाही और समय पर फंड न होने से कई बार वह मरीज को मिल ही नहीं पाती।
टीबी दुनिया भर में मौत की प्रमुख 10 वजहों में से एक है
भले ही टीबी कोरोना वायरस के जितनी संक्रामक नहीं है लेकिन घातक उतनी ही है। WHO के अनुसार दिल की बीमारियों और स्ट्रोक के साथ-साथ टीबी दुनिया भर में होने वाली मौतों की 10 प्रमुख वजहों में शामिल है।
अगर विश्व टीबी दिवस जैसे मौकों को छोड़ दिया जाए तो टीबी से जुड़ी मौतें टेलीविजन पर बहस का हिस्सा नहीं बनतीं बल्कि अखबार के अंदर के पन्नों में छिप कर रह जाती हैं। टीबी मरीजों की लंबी होती सूची महज आंकड़ों के रूप में सिमट जाती है। विडंबना है कि टीबी को आज भी गरीबों की बीमारी के रूप में देखा जाता है, जो कि सच्चाई सेे परे है। असलियत है कि अमीर इसे छिपा लेते हैं।
टीबी ने इस लेख की लेखिकाओं के जीवन में जिस समय उथल-पुथल मचाई उस समय वे बहुत युवा थीं। नंदिता महज 17 तो रीहा केवल 22 साल की थीं।
टीबी से नंदिता की लड़ाई उस समय शुरू हुई जब वह कॉलेज के फर्स्ट इयर में थीं। आठ वर्षों के भीतर उन्हें दो बार आंतों की टीबी से ग्रस्त पाया गया। यह ऐसी पल्मोनरी टीबी है जिसमें पेट में भयानक दर्द होता है, बुखार आता है, उल्टी आती है साथ ही भूख और वजन भी तेजी से कम होते जाते हैं। जिंदगी और मौत की इस लड़ाई के दौरान एक साल के भीतर उनके पेट की छह सर्जरी हुईं, ढेरों दवाएं लेनी पड़ीं और तकलीफदेह इंजेक्शनों का महीने भर लंबा कोर्स करना पड़ा। साल 2013 में उनके 24वें जन्मदिन के कुछ दिनों बाद ही एक एन्टी टीबी इंजेक्शन का ऐसा साइड इफेक्ट हुआ कि वह अपनी सुनने की शक्ति खो बैठीं।
दवाओं के साइड इफेक्ट, टीबी से जुड़े सामाजिक कलंक और अचानक आई विकलांगता ने उनकी सामान्य कॉलेज लाइफ को बुरी तरह से प्रभावित किया। वह डिप्रेशन में चली गईं और इस तरह उनके युवा जीवन के बेहतरीन वर्ष टीबी जैसी घातक बीमारी की भेंट चढ़ गए।
दूसरी तरफ, रीहा को बोन टीबी हुई थी। उन्हेंं एक साल में तीन सर्जरी करानी पड़ीं, चार बार अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। देश की कुप्रबंधित चिकित्साा व्यवस्था की वजह से टीबी से रीहा की लड़ाई और कठिन हुई। उनके रोग की ठीक से पहचान नहीं हुई। उनके वजन के अनुपात में दवाओं के डोज ठीक से नहीं दिए गए। उनके सामने ड्रग रेसिस्टेंट होने का जोखिम तक पैदा हो गया। उनका टीबी का इलाज 12 महीने चलना था लेकिन इन सब चीजों की वजह से 20 महीनों तक चला।
आज, नंदिता एक जानेमाने बिजनस अखबार में पत्रकार हैं और रीहा फिल्मबमेकर हैं जो लिंग और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर फिल्मेंं बनाती हैं। दोनों मिलकर टीबी से जीतने वाली महिलाओं का एक स्वायंसेवी संगठन ‘बोलो दीदी’ चलाती हैं। यह संगठन टीबी के मरीजों को सहारा देता है। इनसे bolodidiTB@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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