चार
बच्चों की मां सुमित्रा सुरेश तुंबादा, वारली जनजाति से संबंधित किसान हैं।
आम तौर पर पंजाब और हरियाणा के संपन्न किसानों के पास बड़ी जोत होती है और वे खेती
में ट्रैक्टरों का इस्तेमाल करते हैं। इसके विपरीत तुंबादा के पास केवल पाँच-छह
एकड़ (2.02 से 2.4 हेक्टेयर) ज़मीन है, जो कि मुंबई से लगभग 130 किलोमीटर उत्तर में पालघर जिले
के जौहर तालुका में एक पहाड़ी पर बसे डोंगरवाड़ी गाँव में स्थित है।
मानसून
अच्छा होता है, तो वे
(तुंबादा) अपनी ज़मीन पर नगली (रागी / उंगली बाजरा), वरई (एक स्थानीय बाजरा), तुअर दाल (कबूतर मटर), उड़द (काला चना) और भट (धान) की
फसल उगाती हैं। तुंबादा बताती हैं कि वन विभाग उनकी ज़मीन पर दावा करता है। वह
अपनी उपज किसी बाजार में नहीं बेचती हैं, बल्कि केवल घर में खाने में ही उसका
उपयोग करती हैं। तुंबादा की तरह, पालघर में बड़ी संख्या में आदिवासी परिवार खेती का काम करते
हैं।
देखा जाए
तो इन आदिवासी किसानों का एपीएमसी (कृषि उपज बाजार समिति), एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य)
और केंद्र सरकार के उन तीन नए कृषि कानूनों से कोई
लेना-देना नहीं है, जिसके
खिलाफ हज़ारों किसान पिछले दो महीनों से दिल्ली में विरोध प्रदर्शन कर रहे
हैं।
लेकिन, फिर भी तुंबादा की तरह कई अन्य
छोटे और सीमांत आदिवासी किसान, किसानों की रैली में
शामिल होकर पालघर से नासिक होते हुए मुंबई आए हैं। यह रैली 23 जनवरी को नासिक से निकली थी, जो 24 जनवरी की शाम को मुंबई के आज़ाद
मैदान में पहुंची।
वे यहां दिल्ली में प्रदर्शन कर
रहे किसानों को अपना समर्थन देने के लिए आए हैं, इसके साथ ही उनकी एक और मांग भी
है। वे चाहते हैं कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत वन भूमि उन आदिवासी किसानों को
सौंप दी जाए जिस पर वे सालों से खेती कर रहे हैं.
आज़ाद
मैदान में खुली छत के नीचे एक पतली शॉल ओढ़कर बैठे हुए तुंबादा ने गाँव कनेक्शन को
बताया, “मेरी पुश्तैनी ज़मीन है जिस पर मेरे पुरखे कई दशकों से खेती कर रहे
हैं। मैं अपने चार बच्चों को खिलाने के लिए उस ज़मीन पर अनाज उगाती हूं, लेकिन वन विभाग का दावा है कि
यह उनकी जमीन है।”
तुंबादा
ने आगे कहा, “वन अधिकार अधिनियम के तहत दावा दायर किए हुए मुझे लगभग एक दशक से
ज्यादा का समय हो गया है, लेकिन
मेरी भूमि अभी भी वन पट्टा ज़मीन है और मुझे अपनी भूमि के लिए 7/12 (भूमि अधिकार) नहीं मिला है। मैं
उसे लेने के लिए मुंबई आई हूँ।”
तुंबादा
की तरह ही शांताराम फडवाले और रामदास राघो पागी समेत पालघर के कई अन्य वारली
आदिवासी किसान हैं जो 2006 के अधिनियम के तहत अपनी ज़मीन का अधिकार मांगने के लिए मुंबई आए
हैं।
मुम्बई के आजाद मैदान पहुंचे महाराष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों से किसान और शेतकारी संगठन के लोग। कृषि कानूनों के साथ-साथ लेबर कोड को भी समाप्त करने की मांग। @JamwalNidhi की रिपोर्ट#FarmerProtests #KisanAndolan #Maharashtra #Mumbai pic.twitter.com/oUZuv4S3Lb
— GaonConnection (@GaonConnection) January 24, 2021
यह पहली
बार नहीं है कि जब वे किसी आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए मुंबई आए हैं। लगभग तीन
साल पहले, मार्च 2018 में एक आंदोलन में शामिल होने
के लिए महाराष्ट्र भर से लगभग 30,000 किसानों ने नासिक से मुंबई तक 180 किलोमीटर की दूरी पैदल तय की
थी। इस आंदोलन के तहत किसानों ने वन भूमि पर अधिकार, फसल क्षति मुआवजा और कृषि ऋण माफी की
मांग की थी।
डेमोक्रेटिक
यूथ फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (DYFI) से जुड़े अजय बुरुंडे ने गाँव कनेक्शन को बताया, “साल 2018 के आंदोलन में किसानों की एक
प्रमुख मांग वन अधिकार अधिनियम के तहत ज़मीन पर अधिकार को लेकर थी। हमने फसल ऋण
माफी की भी मांग की थी, जिसे
सरकार ने स्वीकार किया और कई किसानों को इसका लाभ मिला।” उनका संगठन मुंबई
में चल रही किसान रैली के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है।
“चूंकि सरकार ने वन अधिकार अधिनियम के तहत आदिवासी किसानों को भूमि
पर अधिकार अभी भी प्रदान नहीं किया है, इसलिए हम अपना आंदोलन जारी रखेंगे,” उन्होंने आगे कहा। वे इस आंदोलन
का हिस्सा बनने के लिए मराठवाड़ा के सूखाग्रस्त जिले बीड से आए हैं।
Tribal Warli people from Palghar have come to Azad Maidan as part of farmers protest to demand right to their land under the forest rights act. https://t.co/FBROomafZJ
— GaonConnection (@GaonConnection) January 24, 2021
आदिवासी
परिवार ‘अतिक्रमणकारी’ क्यों बने हुए हैं?
अनुसूचित
जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 को आमतौर पर वन अधिकार अधिनियम
(एफआरए) के रूप में जाना जाता है। यह कानून न केवल जंगलों में रहने वाली अनुसूचित
जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के वन संसाधनों पर उनके मौलिक अधिकारों
की पुष्टि करता है बल्कि वन, वन्य जीव, जैव विविधता संरक्षण के प्रति समुदायों के दायित्वों को भी
सुनिश्चित करता है। यह वन भूमि के प्रबंधन और शासन के लिए ग्राम सभाओं को भी सशक्त
बनाता है।
राष्ट्रीय
स्तर पर 2006 अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए नोडल मंत्रालय, केंद्रीय जनजातीय मामलों
के मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, राष्ट्रीय
स्तर पर 31 अगस्त, 2020 तक 4,253,089 दावे (4,103,177 व्यक्तिगत और 149,912 सामुदायिक दावे) दायर किए गए, जिनमें से 1,985,911
मामलों (1,909,528
व्यक्तिगत
और 76,383 सामुदायिक दावे) में आवेदकों को ज़मीन पर अधिकार दिया गया।
यहां 46.69 फीसदी यानी आधे से कम आवेदकों
को एफआरए के तहत वन भूमि पर उनके अधिकार को मान्यता दी गई। इसी मंत्रालय के
आंकड़ों के अनुसार, 2006 के अधिनियम के तहत ग्राम सभा स्तर पर प्राप्त 1,755,705
दावे
खारिज कर दिए गए, जो कि
कुल अस्वीकृति दर का 41.28 प्रतिशत है। यह उन वन निवासी परिवारों को ‘अतिक्रमणकारी’ बनाता है।
इसे
महाराष्ट्र के उदाहरण से समझ सकते हैं, जहां पिछले साल 31 अगस्त तक कुल 374,716 दावे (362,679 व्यक्तिगत और 12,037 सामुदायिक) एफआरए के तहत दायर
किए गए थे। इनमें से 172,116 आवेदकों को भूमि पर अधिकार प्रदान किए गए, जो केवल 45.9 प्रतिशत है। इस प्रकार, एफआरए के तहत आधे से भी कम
दावों का निपटारा किया गया।
दायर किए
गए 362,679 व्यक्तिगत दावों में से, केवल 165,032 दावे (45.5 प्रतिशत) राज्य में निपटाए गए
थे।
कृषि कानूनों के विरोध में मार्च करते करते हुए महाराष्ट्र में मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्र के हजारों #Mumbai के आजाद मैदान पहुंच गए हैं..
Report @JamwalNidhi@KisanEktaMarch @FarmersUP_ @Tractor2twitr @Kisanektamorcha #FarmersProtests
Story https://t.co/vQ4S6EaSrH pic.twitter.com/7KDTlOEppT— GaonConnection (@GaonConnection) January 24, 2021
पालघर के
जौहर के झाप गांव के एक वारली किसान रामदास राघो पागी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “वन अधिकार अधिनियम के तहत
आवेदकों को ज़मीन पर अधिकार नहीं दिए जाने की वजह से पालघर में जनजातियों की एक
बड़ी आबादी प्रभावित होती है। दावे दाखिल करने के बावजूद, हमें अपनी ज़मीन के लिए 7/12 नहीं मिला है और हमें लगातार वन
विभाग परेशान कर रहा है,।”
राघो, किसानों
की रैली में भाग लेने के लिए मुंबई आए हुए हैं।
“मेरे पास
दस एकड़ [4.04 हेक्टेयर] ज़मीन है जिसके लिए मैंने एफआरए के तहत दावा दायर किया
था। लेकिन मेरा दावा केवल 31 गुंठा के लिए तय किया गया है,” उन्होंने आगे कहा। [एक गुंठा एक एकड़
का 40 वाँ हिस्सा है।]
पालघर के
डोंगरपाड़ा गाँव के शांताराम फडवाले की चिंताएँ भी ऐसी ही हैं। “मेरे पास दस
एकड़ [4.04 हेक्टेयर] ज़मीन है, जिस पर मेरे पुरखे कई दशकों से खेती
कर रहे हैं। लेकिन, सरकार
मुझे मेरी पैतृक भूमि से बेदखल करना चाहती है और मुझे अतिक्रमणकारी कह रही है।
मुझे अपनी ज़मीन के लिए 7/12 चाहिए और इसीलिए मैं मुंबई आया हूँ,” उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया।
एफआरए के
तहत भूमि अधिकारों के निपटान के अलावा, मुंबई में इकट्ठा हुए किसानों की कुछ और मांगें भी हैं, जो इस प्रकार हैं : तीन कृषि
कानूनों को निरस्त करना; पारिश्रमिक
एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) और ख़रीद की गारंटी देने वाला एक केंद्रीय कानून
बनाना; बिजली
संशोधन विधेयक वापस लेना; नए श्रम
कानूनों को निरस्त करना; और
किसानों के लिए महात्मा फुले ऋण माफी योजना के कार्यान्वयन को फिर से शुरू करना, जिसे COVID-19 महामारी के कारण निलंबित कर
दिया गया था।
पुश्तैनी
ज़मीन को लेकर उनका यह संघर्ष राज्य के आदिवासी किसानों के कई संघर्षों में से एक
है। “हमारे गाँव में कोई पक्की सड़क नहीं है। अगर कोई बीमार हो जाता है, तो हम उस व्यक्ति को बांस और
चादर से बने एक अस्थायी स्ट्रेचर पर ले जाते हैं। निकटतम स्वास्थ्य केंद्र पाँच
किलोमीटर दूर है,” राघो पागी ने कहा।
इस बीच, हर गर्मियों में, तुंबादा को अपने परिवार के लिए
पानी लाने के लिए हर दिन पांच किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। “होली के त्यौहार तक, हमारे गाँव और उसके आसपास के
सभी जल स्रोत सूख जाते हैं। मुझे पानी लाने के लिए दिन में दो बार पाँच किलोमीटर
चलना पड़ता है। हम एक साल में मुश्किल से खरीफ की फसल उगा सकते हैं, क्योंकि रबी की फसल के लिए
सिंचाई की कोई सुविधा नहीं है। सरकार ने हमें एक साल में एक फसल उगाने की भी
अनुमति नहीं दी है।” उन्होंने कहा।
राज्य
में हजारों आदिवासी परिवारों के लिए, उनकी यह लड़ाई जीविका की बुनियादी
ज़रूरतों और सम्मानपूर्वक अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिए है। और जिस पालघर
से आकर ये किसान मुंबई में डेरा जमाए हुए हैं, वो कुपोषण से जुड़ी मौतों के लिए
कुख्यात हैं।
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