प्रिय नीति आयोग, ये किसान हैं शेख चिल्ली नहीं

सरकार जीरो बजट प्राकृतिक खेती बढ़ाने की बात कर रही है। लेकिन जैविक खेती के लिए बजट कम कर दिया है। परंपरागत कृषि विकास योजना का बजट मामूली बढ़ा है जबकि रसायनिक उर्वरक के लिए सब्सिडी में करोड़ों रुपए की बढ़ोतरी की गई है।

Arvind ShuklaArvind Shukla   13 July 2019 12:34 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
प्रिय नीति आयोग, ये किसान हैं शेख चिल्ली नहीं

लखनऊ/नई दिल्ली। "जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखते हुए जैविक खेती को बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है। लेकिन जीरो बजट से खेती हो भी नहीं सकती। खर्च कम जरुर किया सकता है। कृषि की मशीनें इनती महंगी हैं, खेतों के लिए मजदूर कहां हैं? यह एक डिजाइनर शब्द भर है।" एक सरकारी कृषि संस्थान के कृषि वैज्ञानिक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा।

आज बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि कृषि के लिए हम पुराने तौर तरीके अपनाएंगे, शून्य बजट खेती zero budget natural farming को बढ़ावा देंगे। यह कदम 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना में कामयाब रहेगा।

जीरो बजट प्राकृतिक खेती का आसान मतलब है कि किसान बाजार से बीज, उर्वरक, कीटनाशक न खरीदे। वे घर देसी गाय के गोबर से खाद और गोमूत्र से जीवामृत आदि, गोमूत्र और पेड़ पौधों से (नीम, धतूरा) आदि से कीटनाशी भी बनाए।

बजट से पहले नीति आयोग के साथ कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और कृषि राज्यमंत्री कैलाश चौधरी, नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार की बैठक के बाद कृषि मंत्रालय ने Subhash Palekar की इस कृषि पद्धति को देशभर में बढ़ावा देने की बात की थी। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कुछ समय पहले अपने एक लेख में जीरो बजट प्राकृतिक खेती को पर्यावरण और खेती की हालत सुधारने वाला प्रयास बताया था। खेती की इस पद्धति के लिए सरकार को राजी करने और बजट में शामिल कराने का उनका बड़ा योगदान माना जाता है।

ख़बर है कि जीरो बजट प्राकृतिक खेती को देशभर में लागू पहले सरकार ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) से रिसर्च करने को कहा है। दि इनकॉमिक्स टाइम्स में छपि खबर के मुताबिक नीति आयोग के सदस्य और कृषि अर्थशास्त्री रमेश चंद्र ने कहा, " अभी तक जीरो बजट खेती का वैज्ञानिक आधार नहीं मिला है। हम आईसीएआर की रिपोर्ट का आंकलन करेंगे, उसके बाद ही कोई कदम उठाएंगे। ये रिपोर्ट 2 से 3 महीने में आएगी।"

ये भी पढ़ें- सुभाष पालेकर : दुनिया को बिना लागत यानी जीरो बजट खेती करना सिखा रहा ये किसान


यह भी पढें- 48 फीसदी किसान परिवार नहीं चाहते उनके बच्चे खेती करें: गांव कनेक्शन सर्वे

भारत में साल 2004 से ही जैविक खेती को बढ़ावा देने की बात चल रही है। नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में (पीकेवीआई) के जरिए जैविक खेती को रफ्तार देने की कोशिश की। परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत बिना जैविक, प्राकृतिक खेती, वैदिक खेती, बॉयो डायनमिक खेती, ऋषि खेती, जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग आदि तरीको बढ़ावा दिया जा रहा है। मोदी सरकार ने राष्ट्रीय कृषि जैविक परियोजना का बजट भी बढ़ाया था।

लेकिन इस साल बजट में सरकार ने जब जीरो बजट प्राकृतिक खेती की बात की, लेकिन परंपरागत कृषि विकास योजना का बजट उर्वरक की सब्सिडी की तुलना में नहीं बढ़ा। वित्तीय वर्ष 2018-19 में जहां इसके लिए 300 करोड़ (संसोधन के बाद) रुपए आवंटित थे, वहीं चालू वित्त वर्ष 2019-20 में 325 करोड़ रुपए आवंटित हुए। जबकि जैविक खेती के राष्ट्रीय प्रोजेक्ट राष्ट्रीय जैविक कृषि परियोजना का बजट जो पिछले साल 8.10 करोड़ था वो इस बार सिर्फ दो करोड़ किया गया है।

जबकि रासायनिक खादों के लिए सब्सिडी में भारी बढ़ोतरी की गई है। पिछले साल की अपेक्षा करीब 9,905.65 करोड़ रुपए ज्यादा आवंटित हुए हैं। मौजूदा साल का बजट 79,996 करोड़ रुपए है जबकि पिछले 2018-19 में 70090.35 करोड़ रुपए था। ये तब जब किसान लगातार जैविक खेती के लिए बाजार न होने, सरकारी मदद देने और जैविक प्रमाणीकरण की प्रकिया को सस्ती करने की मांग करते रहे हैं।

यह भी पढें- 'जीरो बजट, जैविक खेती किसान ने कर तो ली लेकिन वो उसे बेचेगा कहां?'

कृषि आधारित अर्थव्वयस्था वाले देश में परंपरागत खेती के लिए अतिरिक्त बजट 25 करोड़, जैविक प्रोजेक्ट के लिए 2 करोड़, जबकि रायासनिक पद्धति वाली का बजट लगभग एक हजार करोड़ रुपए ज्यादा। जिसके बाद किसान समर्थक, अर्थशास्त्रियों ने सरकार की योजना पर सवाल उठाने शुरु कर दिए। कृषि वैज्ञानिक भी दबे शब्दों में विरोध करते रहे हैं।

राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के राष्ट्रीय संयोजक सरदार वीएम सिंह ने कहा मुझे समझ नहीं आ रहा है, "सरकार कहां से ये शब्द ले आती है, कभी सरकार किसानों को समझाए तो जीरो बजट होता क्या है? और जैविक खेती को बढ़ाना है तो उर्वरक के लिए इतनी सब्सिडी क्यों?"

शून्य बजट खेती की अवधारणा का जनक सुभाष पालेकर को कहा जाता है। हरित क्रांति के विरोधी सुभाष पालेकर की पद्दति में किसान, बाजार पर निर्भर नहीं रहता, वो घर की चीजों की सहायता से खेती करता है। जिसमें इनपुट कास्ट काफी कम हो जाती है। पद्दति के मुताबिक एक देसी गाय की सहायता से 30 एकड़ में खेती हो सकती है।

यह भी पढें- सुभाष पालेकर की जीरो बजट प्राकृतिक खेती को देश भर में बढ़ावा देगी केंद्र सरकार

"इस पद्दति से किसानों की आय बढ़ रही है, तभी तो 6 राज्य एग्रीकल्चर पॉलिसी के रुप में अपना चुके हैं। यहां जीरो बजट से मतलब बाजार से लगने वाली लागत से है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार की इसमें विशेष रुचि है। उन्होंने सभी राज्यों से ऐसी खेती करने वाले किसानों का डाटा भी मांगा था। ताकि उनका डाटा बनाकर एक्शन लिया जाए। राज्यों के सफल प्रयोग का ही रिफ्लेक्शन (असर) बजट में दिखा है।" गोपाल उपाध्याय, समन्वयक, प्राकृतिक कृषि अभियान कहते हैं। उपाध्याय लोकभारती से जुड़े हैं, जो शून्य लागत खेती को बढ़ावा देती है।

वैज्ञानिक और बहुत से किसान जीरो बजट प्राकृतिक खेती की वर्तमान परिस्थतियों में मौजूदा ढांचे के साथ व्यवहारिक नहीं मानते। उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में भटीपुरा के नितिन काजला एक मल्टीनेशल कंपनी की नौकरी छोड़कर जैविक खेती कर रहे हैं। वो शुरुआत में जीरो बजट खेती भी करते थे वो अपने अनुभव से बताते हैं, "खेती में जीरो कास्ट नहीं हो सकती है। अगर किसान केमिकल फर्टीलाइजर और खरपतवारनाशी नहीं डालेगा तो उसी अनुपात में मजदूर लगाएगा। खरपतवार अपने आप तो जाएंगे नहीं उनकी निराई-गुड़ाई करनी होगी। मैं भी बाजार से बहुत सारी चीजें नहीं खरीदता लेकिन मेरी खेती जीरो बजट नहीं है वो केमिकल रसायन से मुक्त है। मैं उसे अपने दम पर लोगों तक अच्ची कीमत में बेचता हूं। ये काम दूसरे किसानों को भी करना होगा।"

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए नितिन कहते हैं, "जीरो बजट की बहुत सारी चीजें बहुत अच्छी है। जीवामृत, दशपरणी अर्क काफी सफल हैं। सरकार को चाहिए परंपरागत कृषि विकास योजना को ही आगे बढ़ाए और उससे जो किसान जुड़े हैं उनके किसान उत्पादक समूह, उनके उत्पादों की ब्रांडिग और मार्केट उपलब्ध कराए, वो बाकी किसान देंखेगे तो अपने आप जुड़े वर्ना से सब निरर्थक है।" जीरो बजट खेती को लेकर लगातार उठ रहे सवालों के बाद माना जाता है कि साल 2016 में सुभाष पालेकर ने जीरो बजट खेती का नाम बदलकर सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती कर दिया था। हालांकि मौजूदा सरकार ने उसी नाम को लेकर चर्चा को आगे बढ़ाया।

यूपी में ही सीतापुर के प्रगतिशील किसान नंदू पाड़े कहते हैं,"जैविक खेती करना समस्या नहीं है लेकिन बाजार तो हो। किसान थोड़े खेत में उगाएगा तो आसपास बेच लेगा, लेकिन हम जैसे किसान अगर एक दो एकड़ में लौकी-शिमला मिर्च सब्जी लगा दें तो रोज दो कुंतल होगी, उसे बेचने कहां जाएगे तो जैविक के लिए बाजार उपलब्ध होना जरुरी है। वर्ना ये सिर्फ शौक में शामिल हो पाएगा।"

जीरो बजट खेती को बढ़ावा देने को गोपाल उपाध्याय सरकार का यूटर्न मानते हैं, "ये पहले बार है कोई सरकार इस तरह की पद्दति की बात कर रही है वर्ना अभी तक सरकार और वैज्ञानिक सब डीएपी-यूरिया कीटनाशकों के सहारे ही खेती की बढ़ाने की बात करते रहे हैं।' सुभाष पालेकर की पद्दति कृषि वैज्ञानिकों को नकारती है।

पंत नगर विश्वविद्याल में विभागाध्यक्ष (एग्रीकल्चर इकनॉमिक्स) डॉ. एचएन सिंह कहते हैं, "जीरो बजट खेती भी जैविक खेती ही है। लेकिन किसान कोई पद्धति तभी अपनाएगा जब वो व्यवहारिक होगी। किसान अपने खेत या आसपास प्रयोग, प्रदर्शन और परिक्षण देख लेगा तभी मानेगा। कौन से वैज्ञानिक प्रभाव से उन्हें फायदा हुआ वो ये भी देखेंगे।"

जीरो बजट खेती की व्यवाहरिकता के जवाब में वो कहते हैं, "पहले परिवार में लोगों की संख्या ज्यादा थी, जोत कम थी, परती और चरगाह वाली जमीन ज्यादा थी, पशु दूध के लिए खेती के लिए पाले जाते थे, उस वक्त ये सब तरीके पूरी तरह फिट बैठते थे, लेकिन अब बढ़ती जनसंख्या का पेट भरना है तो ज्यादा पैदावार देने वाली किस्में, उर्वरक और कीटनाशक सब चाहिए होंगे।"

साल 2019 में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए पद्मश्री से सम्मानित किसान और किसान प्रशिक्षक भरत भूषण त्यागी कहते हैं, "ये सही है कि किसानों को बाजार के कुचक्र से निकालने की जरुरत है। लेकिन किसी एक पद्दति से ही किसानों का भला नहीं होगा। खेती में अनुसंधान की बड़ी भूमिका है। कई बार बड़े अधिकारियों के दवाब में वैज्ञानिक बोल नहीं पाते, लेकिन ये स्थिति ठीक नहीं। जीरो बजट खेती की देश में लंबे समय से बात चल रही है। सरकार को चाहिए देश में सर्वे करवाकर इसकी सत्यता जांच ले फिर आगे बढ़ाए।"

किसानों की आमदनी बढ़ाने का जिम्मा कृषि मंत्रालय के साथ नीति आयोग पर है। लेकिन बजट में खेती से जुड़े कई अहम मुद्दों पर चुप्पी पर सवाल उठे हैँ। महाराष्ट्र के पुणे में रहने वाले कृषि जानकार विजय जवांघिया कहते हैं, "बजट में कहा गया सब योजनाएं किसान और गांव के लिए हैं फिर बजट में सूखे के लिए कुछ क्यों नहीं है। ये सबका साथ, सबका विकास की बात करते हैं, लेकिन हमें लगता है ये किसान के साथ विश्वासाघात है। आप किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात करते हो लेकिन फसलों की कीमतों में अगर 3 से 5 फीसदी की बढ़ोतरी होगी तो आमदनी कहां बढ़ेगी। किसान को अच्छा रेट मिलने लगता है तो बाजार से अनाज मंगा लेते हो, ये सब नीतियां बदलने की जरुरत है।"

यह भी पढें- गांव कनेक्शन सर्वे: फसलों की सही कीमत न मिलना किसानों की सबसे बड़ी समस्या


    


Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.