"हम लोगों के पास मरने का उपाय है, जीने का कोई उपाय नहीं'

बिहार के सीमांचल इलाके में बाढ़ का प्रकोप अब भी बना हुआ है। वहीं योजनाओं के अभाव और भ्रष्टाचार की वजह से स्थानीय लोगों की जिंदगी नरक बनी हुई है। एक जमीनी रिपोर्ट-

Hemant Kumar PandeyHemant Kumar Pandey   1 Oct 2020 4:49 AM GMT

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हम लोगों के पास मरने का उपाय है, जीने का कोई उपाय नहीं

"हम 15 सितंबर को अपना घर तोड़ दिए। नदी में आस-पड़ोस के तीन घर बह गए थे। इसके बाद भी नदी का कटान बढ़ता ही जा रहा था तो हमें बाकी बचे मकान के टीन और ईंट को बचाने के लिए बसे-बसाये घर को तोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन ईंट उठाने के लिए आदमी नहीं था तो उसे भी अंतिम में वहीं छोड़ना पड़ा। क्या करते? अभी रोड पर घर बनाकर रह रहे हैं।"

बिहार के अररिया जिले के कुर्साकांटा गांव के निवासी बालेश्वर मंडल ने जब ये बातें बताईं, तो उनके चेहरे पर बेबसी की रेखाएं साफ झलक रही थीं। उनकी इस बेबसी की वजह क्षेत्र में बहने वाली बकरा नदी में पानी का उफान और तट का लगातार कटाव होना है। अपनी जिंदगी के 60 बसंत देख चुके बालेश्वर ने बकरा नदी के इस रूप को इससे पहले कभी नहीं देखा था।

बकरा नदी बिहार के सीमांचल क्षेत्र में बहने वाली कई नदियों में से एक है। स्थानीय लोगों के अनुसार, कोसी नदी के बाद यह सबसे अधिक अपना रास्ता बदलती है। इसके चलते हर साल बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित होना पड़ता है।

इस नदी के व्यवहार के चलते बालेश्वर मंडल को इस साल अपनी जिंदगी में पांचवीं बार विस्थापित होना पड़ा है। वह कहते हैं, "नदी से हम लोग दूर भागते हैं और फिर कटान में पड़ जाते हैं। कुछ दिन पहले ही नदी मेरे घर से 250 मीटर की दूरी पर थी। लेकिन देखते ही देखते घर नदी में समा गया। इसके अलावा नदी किनारे दो एकड़ खेत भी पानी में मिल गया।"

बालेश्वर मंडल

बालेश्वर सहित इस गांव के दर्जनों परिवारों पर विस्थापित होने का खतरा नदी का कटान होने से मंडरा रहा है। वहीं, अब तक आस-पास के सैकड़ों एकड़ खेत को भी बकरा नदी अपने में मिला चुकी है।

बालेश्वर मंडल कहते हैं कि दो हफ्ते बाद भी प्रशासन की ओर से हमारी खबर लेने के लिए कोई नहीं आया है। वह बताते हैं, "15 सिंतबर से हम लोग विधायक-सांसद सबसे मिले, नदी के कटान को लेकर बिगड़ते हालात को बताया, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। कुुंर्साकांटा के सर्किल ऑफिसर (सीओ) श्याम सुंदर शाह का कहना था कि वे आपदा विभाग को लिख दिए हैं। अब उनका काम खतम हो गया है। वहीं, आपदा विभाग की ओर से अब तक राहत का कोई काम शुरू नहीं किया गया है।

बीते एक हफ्ते से बिहार के उत्तर और पूर्व इलाके के अलावा नेपाल के पहाड़ी और तराई इलाके में भी भारी बारिश हो रही है। इसके चलते राज्य के इन इलाकों में बहने वाली छोटी-बड़ी करीब सभी नदियां एक बार फिर उफान पर हैं और लाखों लोगों की जिंदगी मुश्किल में है। इनमें सीमांचल के जिले यानी अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार की बड़ी आबादी भी शामिल है। किशनगंज को छोड़कर बाकी तीनों जिले देश के सबसे 20 पिछड़े जिलों में शामिल हैं।

आम तौर पर प्रत्येक साल इस इलाके के लोगों को बाढ़ का सामना करना पड़ता है और इससे लोगों को जान-माल का भारी नुकसान होता है। सरकारी रिकॉर्ड में इसकी वजह भारी बारिश दर्ज की जाती है, लेकिन इससे कहीं बढ़कर सरकारी मशीनरी की लापरवाही और भ्रष्टाचार के चलते पीड़ित परिवारों को अपनी संपत्ति नदी में समाते हुए देखने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

निर्माणाधीन पुल

"यह पुल 2017 के बाढ़ में टूटा था। इस साल काम शुरू तो हुआ लेकिन अब तक पूरा नहीं हो पाया। इसके चलते इलाके में पूरा फसल डूबा हुआ है और आदमी के घर-घर में पानी भी लग गया है। आगे भी तीन पुल और है, 2017 के बाढ़ में टूटा हुआ। सबका यही हाल है।' अररिया जिले में फारबिसगंज-कुर्साकांटा के रास्ते में पड़ने वाले एक निर्माणाधीन पुल के करीब बैठे हुए जीवन कुमार राय हमसे कहते हैं।

अररिया के ही सहबाजपुर ग्राम पंचायत के रहने वाले जीवन हमें आगे बताते हैं कि पुल से करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर परमान नदी बहती है। तीन साल पहले वहां बांध टूट गया था। लेकिन उसकी मरम्मत अब तक नहीं हुई है। इसके चलते ही नदी के पानी का बहाव इधर भी हो गया है, जिससे स्थानीय लोगों के बीच त्राहिमाम की स्थिति है।

वह आगे बताते हैं, "सब नेता लोग आ रहा है, ऑफिसर सब आ रहा है, बोलता है कि अब काम चालू होगा, अब काम चालू होगा, लेकिन हो ही नहीं रहा है।"

"पहले तो मक्का बर्बाद हुआ। अभी सैकड़ों एकड़ धान बर्बाद हो गया है। पुल न होने से लोगों को आने जाने में भी परेशानी हो रही है। प्रशासन की ओर से नाव की भी व्यवस्था नहीं की गई। लोकल लड़का सब नाव बनाकर चला रहा है। नदी का धार पार कराने के लिए एक आदमी और मोटरसाइकिल का 50 रुपये लेता है।"

इस टूटे हुए तटबंध के पास पहुंचने पर पता चलता है कि नदी का एक बड़ा हिस्सा आबादी वाले इलाके में प्रवाहित हो रहा है। इसके रास्ते में कई एकड़ क्षेत्र में लगी धान की फसल डूब चुकी है। स्थानीय लोगों का कहना है कि पिछले तीन-चार साल से वे एक भी फसल ढंग से नहीं काट पाते हैं और खेत रहने के बावजूद मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं।

नूना नदी में बांध के कटान को रोकने के लिए बना ठोकर

इनमें से एक राजेश राय कहते हैं, "बाढ़ के चलते धान की फसल बर्बाद हो जाती है। मक्का काटने के समय भी पानी आ जाता है। पटसन भी नदी की धार में बह जाता है। इसके अलावा बाढ़ के चलते खेत में बालू भर जाता है, जिससे हम गेंहूं की फसल भी नही लगा पाते हैं।"

वह अपनी बात को जारी रखते हुए कहते हैं, "जब तक इस बांध को नहीं बांधा जाएगा, तब तक हर चीज की दिक्कत होगी। बांध बांधने के लिए कोई नेता अभी तक आगे नहीं आया है। प्रशासन और नेता अपना-अपना पैकेट भरता है। मरम्मत न होने से टूटे हुए बांध की लंबाई धीरे-धीरे बढ़ ही रही है।"

परमान नदी के टूटे हुए तटबंध से थोड़ा आगे बढ़ने पर पीपरा घाट है। यहां की स्थिति और भयावह दिखती है। यहां पर भी अथाह जल के बीच एक निर्माणाधीन पुल दिखता है, जहां पर ग्रामीणों का एक झुंड है। इनमें बच्चे-बुजुर्ग सब शामिल हैं। बच्चे तेज जल प्रवाह को देखकर रोमांचित हैं और व्यस्कों के माथे पर चिंता की लकीरें हैं।

इनमें से ही एक बाल गोविंद पासवान बताते हैं, "पीपरा घाट पर बांध 1987 से कट रहा था, लेकिन 2017 में यह टूट गया। पिछले तीन साल से इस पर कोई काम नहीं हुआ है। वहीं, पुल बनाने के दौरान ठेकेदारों ने आस-पास और नदी की मिट्टी का इस्तेमाल निर्माण कार्य में कर लिया। इससे तो नुकसान पहुंचा है और स्थिति पहले से सुधरने की जगह और भयावह ही हुई है।"

"प्रशासन कहता है कि हम बांध बांधेंगे। बंधा जाएगा। मीटिंग करते हैं। कहते हैं, "हो जाएगा'। लेकिन नहीं हो पाता है। इसके चलते हमलोगों का खेती-बाड़ी पूरा बह जाता है। अनाज का एक कनवा (दाना) नहीं होता है। घर-आंगन में पानी घुस जाता है। बच्चा सब रोता है पानी में।" यह कहते-कहते बाल गोविंद की आवाज रूक जाती है।

15.30 लाख रुपये की लागत से बकरा नदी पर कटान रोकथाम परियोजना की स्थिति

बाढ़ के अलावा उनकी तकलीफ की एक और बड़ी वजह पुल के लिए जमीन अधिग्रहण भी है। बाल गोविंद गांव कनेक्शन को बताते हैं, "यह पुल निजी जमीन में बना है, बिहार सरकार का नहीं है। जिसका कोई मुआवजा भी नहीं मिला है। यहां काबीडीओ, सीओ, कर्मचारी सब आया, डीएम भी आया। सब कहता था कि मुआवजा मिलेगा, मिलेगा, लेकिन नहीं दिया। मेरा एक एकड़ 42 डिसमिल जमीन इसमें फंसा हुआ है।"

अन्य योजनाओं का फायदा इन इलाकों के जरूरतमंदों को न मिलना भी इनकी समस्या को बढ़ाने का काम करता है। फारबिसगंज स्थित सहबाजपुर के खेतिहर मजदूर नित्यानंद राय कच्ची घर में रहते हैं। बिहार सरकार के दावे के उलट अब तक उनके घर तक न तो सड़क पहुंची है और न ही नाली, लेकिन हर साल बाढ़ का पानी उनके घर जरूर पहुंच जाता है।

इसके चलते प्रत्येक साल उनके घर को नुकसान पहुंचता है, जिसकी मरम्मत में हजारों रुपये खर्च होते हैं। गरीबी रेखा से नीचे होने के बावजूद उन्हें अब तक प्रधानमंत्री आवास योजना का फायदा नहीं मिला है। इस योजना को अभी भी लोग "इंदिरा आवास' के नाम से ही पुकारते हैं।

जब हम उनके घर के पास पहुंचे तो वह एक लाठी के सहारे जांघ भर पानी को पार करके घर की ओर जा रहे थे। वह कहते हैं, "पेंशन के पैसे और 30,000 रुपये कर्ज लेकर घर बनवाए थे। लेकिन इस बार भी घर का काफी नुकसान हो गया है। घर के पिलर सब टूट गए। रहने के लिए किसी तरह इसमें रह जाते हैं। इसको फिर से बनाना होगा। नहीं बनाएंगे तो फिर रहेंगे कहां?"

नित्यानंद राय की तरह ही पिपरा गांव के गोपाल मंडल के कच्चे घर को नुकसान पहुंचा है। वह हमसे कहते हैं, "सरकारी आवास योजना का फायदा नहीं मिला है। कितना साल से दरखास्त देकर मर गए, लेकिन नहीं मिला। गरीबी रेखा में नाम है, फिर भी नहीं मिला। आंगन में अभी चापाकल के ऊपर से पानी बह रहा है। पानी भी कहां से पिएंगे? और खाना कैसे बनेगा? घर गिर गया, रहेंगे कहां? सोएंगे कहां? एक मवेशी है, उसको कहां रखेंगे?"

कटान रोकने के लिए बांस का सहारा

गोपाल मंडल की इन बातों को छट्टू लाल राय आगे बढ़ाते हैं। वह कहते हैं, "सरकार की ओर से हमें कोई मदद नहीं मिलती है। इंदिरा आवास मिलता भी है तो पहले दस-बीस हजार घूस लाने के लिए कहता है। गरीबों के पास पैसा नहीं होता है, तो कहां से देंगे? इसलिए सरकारी पैसा भी छोड़ देते हैं। गरीब को कौन देखने वाला है? जो पैसा देता है, उसी का काम होता है। बाढ़ से हर साल घर का नुकसान होता है लेकिन मुआवजा नहीं मिलता है। बाढ़ पीड़ितों को पाव भर चावल भी मिलता तो एक बात होता। वह भी नहीं मिलता है।"

वहीं, इस बीच गांव की एक महिला कौशल्या देवी गुस्से और नाराजगी की मिली-जुली भाव में बोल उठती हैं, "हमलोगों के लिए मरने का उपाय है, जीने का कोई उपाय नहीं है। यहां सब साल पानी लगता है।'

आम तौर पर माना जाता है कि जल लोगों को जीवन देती है। लेकिन जब अथाह मात्रा में जल आबादी वाले इलाके से प्रवाहित होने लगे तो ये लोगों की जिंदगियां दुश्वार भी कर देता है। लेकिन इसके पीछे केवल भारी बारिश और बाढ़ ही नहीं है। इन समस्याओं को लेकर सरकार-स्थानीय प्रशासन की अनदेखी और भ्रष्टाचार इसकी एक बड़ी वजह है।

आज से करीब दो महीने पहले हमने इस इलाके की नदियों पर बनाए गए तटबंध की स्थिति का जायजा लिया था। इसके तहत जब हम सिकटी प्रखंड के कालू चौक के समीप बहने वाली नूना नदी के पास पहुंचे तो स्थानीय ग्रामीणों का कहना था कि अभी कुछ दिन पहले ही बांध बांधा गया है। इसके अलावा तटबंध के कटाव को रोकने के लिए कई जगह ठोकर (बांध और बोरे में बालू भरकर बनाया हुआ ढांचा) भी बनाया है। लेकिन जितना ठोकर बनाना चाहिए, उतना नहीं बनाया गया।

इन ग्रामीणों में से एक मोहम्मद सद्दाम हुसैन का कहना था, "इंजीनियर आए थे तो हमने कहा था कि ठोकर को बड़ा कीजिए। लेकिन उन्होंने कहा कि इससे ही काम चल जाएगा। हम लोग बांध की मजबूती की बात उठाते हैं। लेकिन इस पर कोई काम नहीं होता है। हमने अधिकारियों से कहा था कि इस बांध पर जब तक बोल्डर नहीं लगाइएगा, तब तक ये सक्सेस नहीं होगा। लेकिन बोरा में बालू भरकर डाल दिया गया है।"

जलमग्न बस्ती

अब दो महीने बाद नदी में पानी का बहाव तेज होने से ये ठोकर और बालू से भरे हुए बोरे भी बांध के कटाव को नहीं रोक पा रहे हैं। इस बारे में स्थानीय पत्रकार रामदेव झा कहते हैं, "दहगामा-पड़रिया के पास तटबंध टूट गया है। हर जगह लाखों-करोड़ों की योजना बनती है। लेकिन केवल मिट्टी डाल दिया जाता है। फिर बारिश आई टूट गया। बांध बनाने का काम भी मनरेगा के तहत ही करवाया जा रहा है। जल संसाधन विभाग को इस पर काम करना चाहिए। अगर तटबंध मजबूत बनेगा तो नदी बर्दाश्त करेगी, लेकिन तटबंध मजबूत बनता ही नहीं है।

वहीं, कुर्साकांटा के पास बकरा नदी के किनारे हमने पाया कि बांध के कटाव को रोकने के लिए लाखों की रकम आवंटित की गई। लेकिन केवल बोल्डर-पत्थर लगाकर मजबूत काम करने की जगह केवल बांस के सहारे बांध के कटान को रोकने की कोशिश की गई। आज यह किसी काम की नहीं है।

वहीं, कई ऐसी परियोजनाएं भ्रष्टाचार के चलते सीमांचल के किसी काम की नहीं आ रही है। ये सब केवल भ्रष्टाचार और सरकारी लापरवाही की इमारत के रूप में है।

उदाहरण के लिए साल 2019 में अररिया के सिकटी के डहवाबाड़ी में बकरा नदी पर एक पुल बनाया गया। लेकिन कुछ समय बाद ही नदी ने अपना रास्ता बदल लिया और पुल के नीचे से बहने की जगह इसके बगल से बहने लगी। अब यह पुल बेकार पड़ा हुआ है।

इस बारे में स्थानीय लोगों की मानें तो परियोजनाओं की तैयारी नदी और इसके आस-पास के इलाके की प्रकृति को बिना जाने समझे ही की जाती है। इसके लिए ग्रामीणों के साथ सलाह-मशविरा भी नहीं किया जाता है, जिसके नतीजे होते हैं कि जनता के करोड़ों रुपये इन परियोजनाओं में बर्बाद हो जाते हैं।

बकरा नदी के किनारे स्थित डहवाबाड़ी के रहने वाले घनश्याम मंडल बताते हैं, "2019 में पुल का काम कागज पर पूरा हो गया। लेकिन जमीन पर अभी भी अधूरा ही है। दो-चार लेबर को काम पर दिखावटी के लिए लगा दिया जाता था। ई काम दो-चार लेबर से होता है। इसमें पूरा करप्शन है। बिना काम पूरा हुए ही सांसद प्रदीप सिंह धूल उड़ाते हुए चले गए और कह दिया गया कि पुल का उद्घाटन हो गया।"

फारबिसगंज के सहबाजपुर स्थित अर्द्धनिर्मित पुल

कोसी-सीमांचल क्षेत्र में बाढ़ की स्थिति को लेकर इस इलाके के ही विख्यात साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु ने 'डायन कोसी' नामक रिपोर्टाज लिखा था। इसमें उन्होंने इन इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए कहा था, "साल में छह महीने बाढ़, महामारी, बीमारी और मौत से लड़ने के बाद बाकी छह महीनों में दर्जनों पर्व और उत्सव मनाते हैं। पर्व, मेले, नाच, तमाशे! सांप पूजा से लेकर सामां-चकेवा, पक्षियों की पूजा, दर्द-भरे गीतों से भरे हुए उत्सव! जी खोल कर गा लो, न जाने अगले साल क्या हो! इलाके का मशहूर गोपाल अपनी बची हुई अकेली बुढ़िया गाय को बेच कर सपरिवार नौटंकी देख रहा है।"

हम जब अलग-अलग इलाके के लोगों से बात करते हैं तो ये चीजें सामने आती हैं कि फणीश्वरनाथ ने बाढ़ पीड़ितों के बारे में जो कहा है, उसके अलावा इनके सामने कुछ रास्ता नजर नहीं आता है। ऐसा लगता है कि यहां के लोगों के नसीब में छह महीने कमाना और फिर इसे बाढ़ में गंवाना ही लिखा है।

घनश्याम मंडल कहते हैं, "यहां पर इन सब के बारे में कौन बोलेगा ? कौन लड़ने के लिए जाता है! सब मजदूर हैं। दिल्ली-पंजाब सब जाता है। किसी तरह अपना पेट पाल रहा है। कुछ किसान है, वह भी अपना किसी तरह घर का खर्चा चला रहा है। ये सब अपना पेट देखेगा कि लड़ने के लिए जाएगा?" घनश्याम के सवालों का किसी के पास कोई जवाब नहीं है।

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