कंचन पत : एक नास्तिक के लिए आस्था के मायने

Kanchan PantKanchan Pant   30 Oct 2018 7:04 AM GMT

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कंचन पत : एक नास्तिक के लिए आस्था के मायने‘मैं कतई नास्तिक हूं। किसी कारण, किसी तर्क से मैं ख़ुद को आस्तिक बनने के लिए राज़ी नहीं कर पाई हूं।’

अल्मोड़ा (उत्तराखंड)। पहाड़ की एक सुस्त, शांत सुबह में एक खूबसूरत नज़ारे को देखकर अनजाने ही क़दम उस ओर बढ़ गए। नथ-मांगटीका लगाए, रंगवाली पिछौड़ा पहने, सोलह श्रृंगार किए, सजी-धजी औरतों सिर पर कलश लिए रोड के किनारे चली जा रही थीं। इसे कलश यात्रा कहते हैं।

मंदिर में मूर्ति स्थापित करनी हो, मंदिर की आधारशिला रखनी हो, या किसी बड़ी पूजा का आयोजन करना हो, उसके पहले ऐसी कलश यात्राएं कुमांऊ के छोटे-बड़े कस्बों में अक्सर देखने को मिल जाती हैं। यात्रा से पहले महिलाएं पानी के किसी प्राकृतिक स्रोत से कलश में पानी भरती हैं, कलश को फूलों, आम के पत्तों जैसी चीज़ों से पवित्र किया जाता है, फिर कलश को सिर पर रखकर इन महिलाओं को पूरे शहर की परिक्रमा करनी होती है। माना जाता है कि ये इस तरह पूरे शहर को बुरी नज़र से बचा लेंगी। बाद में आयोजन के हिसाब से इस पानी से या तो आयोजन स्थल को पवित्र करने के लिए धोया जाता है, या देवताओं का अभिषेक किया जाता है।

ना जाने ये परंपरा कब शुरू हुई होगी, पर मैंने अपने बचपन में भी कलश यात्राएं देखी हैं और मेरी मां भी इनका ज़िक्र किया करती थीं। वक्त के साथ थोड़े बदलाव ज़रूर आए हैं, लेकिन इन यात्राओं या इन जैसे धार्मिक अनुष्ठान के पीछे जो प्रगाढ़ श्रद्धा है, उसे देखकर मैं अभीभूत हो जाती हूं।

कलश यात्रा के दौरान श्रद्धालु। फोटो- कंचन पंत

धार्मिक अनुष्ठानों की ज़रूरत

मैं कतई नास्तिक हूं। किसी कारण, किसी तर्क से मैं ख़ुद को आस्तिक बनने के लिए राज़ी नहीं कर पाई हूं। बचपन में सोचती थी कि किसी के राम हैं, किसी के पैगम्बर हैं, किसी के यीशू, बुद्ध, महावीर! पर ये तो इंसानों के भगवान हैं। तो क्या जानवरों के, पेड़-पौधों के भगवान होते होंगे? अगर नहीं, तो बिना भगवान के जब ये अपनी ज़िंदगी ठीक-ठाक जी सकते हैं, तो हम इंसानों को ही क्यों ज़रूरत है भगवानों की, धर्मों की, धार्मिक अनुष्ठानों की? आदर्श परिस्थितियों में शायद ये तर्क काम करता हो, लेकिन देश और समाज को अगर माइक्रोस्कोपिक स्तर पर जाकर देखें तो शायद ये अनुष्ठान ही हैं जो समाज को जोड़ कर रखे हुए हैं।

कलश यात्रा में शामिल कुछ महिलाओं से मैंने बात करनी चाही, तो उन्होंने शरमा कर नज़रें चुरा लीं। शायद मेरे हाथों के कैमरे से असहज महसूस कर रही हों। अनजान लोगों से, लाइन के उस पार खड़े लोगों से बात करने की सहजता तब आती है, जब मिलने जुलने के, बाहर निकलने के मौके मिलें। कलश यात्रा में शामिल इन महिलाओं में से कई पढ़ी-लिखी होंगी, कुछ हो सकता है दफ़्तरों में काम भी करती होंगी, मजबूरी हुई तो अपना सामान ख़रीदने बाज़ार भी जाती होंगी, पर मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि बिना डर और झिझक के इस तरह बाज़ार में चलने के मौके गांवों और कस्बों की महिलाओं को कम ही मिलते हैं। ऐसे में ये ज़रा सी आज़ादी, अगर धर्म और श्रद्धा और भक्ति के रूप में ही भी मिल जाए, तो मैं उनकी आस्था के आगे नतमस्तक हूं।

धर्म व्यक्तिगत मामला?

कुछ लोगों का मानना है कि आपका धर्म आपके घर की चारदिवारी में ही रहना चाहिए। मैं भी उन्हीं लोगों में से एक हूं। गणेश पूजा, दुर्गा पूजा के पांडलों, दही हांडी के आयोजनों, मुहर्रम के जुलूसों, कुंभ के मेलों, छठ के लिए नदी तालाबों के किनारे उमड़ी भीड़, कावड़ियों की टोलियों को देखकर मुझे कोफ़्त होती है, और हैरानी भी।

मुझे आस्तिकों से अक्सर ईर्ष्या होती है, और हकीकत में होती है। उनके पास हमेशा कोई होता है, जिसपर वो अपनी सभी चिंताओं का भार डाल सकते हैं। 'भगवान की मर्ज़ी' कहकर वो अपने बड़ी से बड़ी नाकामी के अपराधबोध से मुक्त हो जाते हैं, उन्हें पता होता है कि अपनी कामयाबियों का श्रेय देने उन्हें किसके पास जाना है। ये आस्था ही थी, जो मेरी अनपढ़ दादी और पांचवी पास ताईजी संस्कृत के श्लोक ऐसे पढ़ ले जाती थीं, जैसे संस्कृत उनकी मात्रभाषा हो। अपना नाम तक ना लिख पाने वाली मेरी दादी, रामचरित मानस में सिर्फ शब्दों की बनावट से पूरी चौपाई का अनुमान लगा लेती थीं। इसलिए लाख नास्तिक होते हुए मुझे आस्था पर भरोसा है।

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