भगत सिंह का वो साथी जिसने आजादी के लिए जेल में अत्याचार झेला, बाद में देश ने ही पहचानने से किया इनकार

Shefali SrivastavaShefali Srivastava   28 Sep 2018 9:17 AM GMT

भगत सिंह का वो साथी जिसने आजादी के लिए जेल में अत्याचार झेला, बाद में देश ने ही पहचानने से किया इनकारभगत सिंह के साथी थे बटुकेश्वर दत्त। 

आठ अप्रैल 1929, सेंट्रल असेंबली में अंग्रेज सरकार के दो बिल पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट्स पर चर्चा जारी थी। इसके पीछे उद्देश्य था कि भारतीय जनता में जो क्रांति का बीज पनप रहा है उसे समाप्त किया जाए। लिहाजा यह भारत के लिए एक दमनकारी कानून था। तभी देश की आजादी के लिए व्याकुल और 'बहरी सरकार' को 'ऊंचे शब्द' सुनाने के लिए दो नौजवान क्रांतिकारियों ने असेंबली की खाली जगह पर बम फेंका और पर्चे बांटे। इसका पहला वाक्य था - 'बहरों को सुनाने के लिये विस्फोट के बहुत ऊँचे शब्द की आवश्यकता होती है।'

दोनों को गिरफ्तार किया गया लेकिन एक को फांसी की सजा मिली और दूसरे को काला पानी का आजीवन कारावास। बात हो रही है शहीद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की। कहा जाता है कि बटुकेश्वर दत्त इस फैसले से निराश हो गए।

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उन्होंने भगत सिंह तक बात पहुंचाई कि वतन के लिए शहीद होना ज्यादा गर्व की बात है, जवाब में भगत सिंह ने उनको एक पत्र लिखा, 'वे दुनिया को यह दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं।' भगत सिंह तो देश के लिए शहीद हो गए लेकिन बटुकेश्वर दत्त को ये तमगा नहीं मिल पाया। वे आजाद भारत का सूरज देखने के लिए जिंदा रहे।

वे दुनिया को यह दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं।
बटुकेश्वर दत्त को भगत सिंह का पत्र

लेकिन आजादी के बाद उनका देश इतना बदल जाएगा कि बीमार होने पर उन्हें अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाएगा ये उन्होंने सोचा नहीं था। जेल के अंदर बटुकेश्वर दत्त ने काफी यातनाएं झेलीं। अमानवीय अत्याचारों के विरोध में दो बार भूख हड़ताल भी की। नतीजा उन्हें टीबी की गंभीर बीमारी हो गई और 1938 में उन्हें जेल से रिहा किया गया। भगत सिंह समेत उनके सभी साथी जा चुके थे, उन्होंने अपना इलाज कराया और गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गए। वह फिर गिरफ्तार हुए और 1945 में रिहा।

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अब कोई हौसला बढ़ाने वाला साथी नहीं था और देश भी आजाद हो गया था। बटुकेश्वर ने शादी कर ली और गृहस्थ जीवन के लिए कोशिशें शुरू कर दीं। कभी एक सिगरेट कंपनी में एजेंट का काम किया, कभी टूरिस्ट गाइड का। तो कभी बिस्किट और डबलरोटी का छोटा कारखाना भी शुरू किया। यहां उन्हें काफी घाटा हुआ लेकिन न ही उन्हें कोई सरकारी मदद मिली और न ही उन्होंने मांगी।

'क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।
चमनलाल आजाद के लेख से

स्वतंत्रता सेनानी होने का सबूत मांगा गया

इसी दौरान पटना बस परिवहन में भी बटुकेश्वर दत्त को काम करना पड़ा जहां परमिट के लिए लाइन में लगते हुए एक बेहद शर्मनाक वाक्या हुआ। वह पटना के कमिश्नर से मिले और अपना नाम बताते हुए बोले कि वो एक स्वतंत्रता सेनानी हैं। पटना के कमिश्नर ने पूछा कि सर आप स्वतंत्रता सेनानी मैं ये कैसे मान लूं आप अपना सर्टिफिकेट दिखाइए।

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हालांकि बस परमिट वाली बात पता चलते ही देश के राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद ने बाद में उनसे माफी मांगी थी। 1964 में बटुकेश्वर दत्त दोबारा बीमार पड़ गए। पटना के सरकारी अस्पताल में उन्हें कोई नहीं पूछ रहा था।

चमनलाल आजाद के लेख से जागी सरकार

इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, 'क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।'

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यह लेख सरकारी तंत्र की नींद खोलने जैसा था। तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा और पंजाब के मंत्री भीमलाल सच्चर ने आजाद से मुलाकात की। पंजाब सरकार ने बिहार सरकार को इलाज के लिए एक हजार रुपए का चेक भेजा। अब दत्त के इलाज पर ध्यान दिया जाने लगा था लेकिन उनकी हालत बिगड़ चुकी थी। 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया। कहा जाता है कि यहां पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था जिस दिल्ली में उन्होंने बम फोड़ा था वहीं वे एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाए जाएंगे।

भगत सिंह के बगल में समाधि बनाई गई

बटुकेश्वर दत्त सफदरजंग अस्पताल में भर्ती हुए। बाद में उन्हें कैंसर डायग्नोज हुआ। अपनी आखिरी इच्छा में पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन से बटुकेश्वर दत्त ने कहा, 'मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।'

20 जुलाई 1965 को उनका देहांत हो गया और अंतिम इच्छा को सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के पास किया गया।

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बटुकेश्वर दत्त भगत सिंह के सहयोगी किताब के लेखक अनिल वर्मा ने किताब में लिखा, 'बटुकेश्वर जी का बस इतना ही सम्मान हुआ कि पचास के दशक में उन्हें एक बार चार महीने के लिए विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया।'

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