किसान मुक्ति यात्रा (भाग-7) : ख़ुदकशी बस ख़बर बनकर रह जाती है

Prabhat SinghPrabhat Singh   11 Oct 2017 1:38 PM GMT

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किसान मुक्ति यात्रा (भाग-7) : ख़ुदकशी बस ख़बर बनकर रह जाती हैअनिश्चित आय कियानों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत।

जंतर-मंतर पर तमिलनाडु के किसानों के प्रदर्शन, मंदसौर में किसानों पर पुलिस फायरिंग के बार शुरू हुई किसान मुक्ति यात्रा, जो मध्यप्रदेश समेत 7 राज्यों में गई। यात्रा में किसान संगठनों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता और किसान भी शामिल हुए। किसानों की दशा और दिशा को समझने के लिए वरिष्ठ पत्रकार प्रभात सिंह इस यात्रा में शामिल हुए। एक फोटोग्राफर और पत्रकार के रूप में उनकी यात्रा मध्य प्रदेश के बाद अब महाराष्ट्र पहुंच चुकी है।

पहला भाग यहां पढ़ें-किसान मुक्ति यात्रा और एक फोटोग्राफर की डायरी (भाग-1)

दूसरा भाग यहां पढ़ें-

किसान मुक्ति यात्रा और एक फोटोग्राफर की डायरी (भाग-2)

तीसरा भाग- किसान मुक्ति यात्रा (भाग-3) : किसान नेताओं की गिरफ्तारी और अफीम की सब्जी

चौथा भाग- किसान मुक्ति यात्रा (भाग-4) : स्वागत में उड़ते फूल और सिलसिला नए तजुर्बात का

पांचवां भाग-किसान मुक्ति यात्रा (भाग-5) : महाराज से मुलाक़ात और इन्दौर में प्रवास

छठवां भाग- किसान मुक्ति यात्रा (भाग-6) : और एक दिन मेधा ताई के नाम

गोधूलि बेला में बड़वानी से निकले थे। क़रीब तीन घंटे बाद खेतिया पहुंचे। गाड़ी से उतरने के पहले ही पटाखों की तड़तड़ाहट सुनाई दी, धुंए की मोटी लकीर बल खाती हमारे आगे-आगे बढ़ रही थी। किसान यात्रा के स्वागत की यह नई रीत थी। हां, इससे यह ज़रूर लगा कि हम महाराष्ट्र की सीमा में दाख़िल हो गए हैं। पूछा तो मालूम हुआ कि अभी तो बड़वानी ज़िले की सीमा में ही हैं। मेरा अंदाज़ा इस लिहाज़ से थोड़ा सही निकला कि स्वागत के लिए वहां जुटे लोग शेतकारी संगठन स्वाभामिमानी के थे। कुछ दूरी पर नंदुरबार ज़िले की सीमा शुरू हो जाएगी। यहां सभा होनी थी। दवा का असर कम हो रहा था और मेरा बुखार लौट रहा था। बाहर ही पानी के जार दिखाई दिए। यह सोचकर कि ठंडे पानी से मुंह धोना शायद काम आए, मैं उधर चला गया। वहां लोग अपनी ख़ाली बोतलों में पानी भरने में जुटे थे।

पौने ग्यारह बजे तक लोणखेड़ा पहुंच पाए। वहां पाटीदार सांस्कृतिक केंद्र में खाने और सोने का इंतज़ाम था। पहुंचते ही लोगों ने अपने बैग रखकर अपने सोने की जगह पक्की की और फोन चार्ज करने के लिए सॉकेट तलाशे। बहुत बड़ा हॉल था और प्वाइंट भी काफी थे, मगर लोगों की तादाद के मुकाबले कम। खाने से भी पहले हर किसी की फिक़्र यही होती कि फोन या पॉवर बैंक ज़रूर चार्ज हो जाए। लोक संघर्ष मोर्चा की प्रतिभा शिंदे आकर बता गईं कि वी.एम. की तबियत का हाल देखते हुए उनके खाने-ठहरने का इंतज़ाम घनश्याम चौधरी के घर पर है। मुझे यह सोचकर राहत मिली कि सारी बैटरियां इत्मीनान से चार्ज कर सकूंगा।

चौधरी शेतकारी संगठन के जिला अध्यक्ष हैं और मलोणी के एनआरआई विलेज में रहते हैं। वीएम सिंह को उनके घर छोड़कर हरीश के साथ मैं और वीरेंद्र खाना खाने के लिए लौटे। अब तक बाक़ी के लोग खा चुके थे। इक्का-दुक्का लोगों के साथ हम लोगों ने खाना खाया और सोने के लिए फिर एनआरआई विलेज चले गए। काफी ख़ामोश और करीने से बसाई गई बस्ती के उस घर में काफी इत्मीनान मिला। कैमरे से तस्वीरें लैपटॉप में ट्रांसफर कर सका। सोने से पहले पानी खोजने बाहर फ्रिज तक गया तो चौधरी परिवार का एक युवक तश्तरी में आम की फांके सजाए ऊपर जा रहा था। आम खाने की उसकी पेशकश भली ज़रूर लगी मगर रात को एक बजे यह मुनासिब नहीं लगा।

सुबह आंख खुली और कमरे के बाहर आया तो देखा कि बाहर दो कुर्सियां डाइनिंग टेबल के ऊपर रखी हैं और उनके ऊपर कुर्ता, पजामा और गमछा फैला हुआ है। टेबल पर वीरेंद्र की बनियान और अंडरवियर। सारे पंखे पूरी तेज़ी से घूम रहे थे। मैं अजीब से संकोच में घिर गया। घर के लोग जाग गए तो यह सब देखकर क्या सोचेंगे? तब तक ड्राइंग रूम से निकल आए वीरेंद्र ने कपड़े पलटते हुआ जवाब तलब किया, “नहाये नाय तुम अबहि? नहाय लेओ तो चाय पिलवाएं। हम तो कब के नहाय लिए।“ मैंने अपना संकोच ज़ाहिर किए बग़ैर उनसे कहा कि धूप निकलने वाली है तो अपने कपड़े बाहर फैला दें, जल्दी सूख जाएंगे।

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मगर वह कुर्सियां हटाकर नीचे उतारने के प्रस्ताव पर हरगिज़ राज़ी नहीं दिखे। कहा, अबहि सूख जांगे। पंखे में जल्दी सूख जाते हैं। थोड़ी खीझ भी हुई, उनकी इस ज़िद पर सो मैं तेज़ी से वहां से खिसककर ड्राइंग रूम में चला गया ताकि वीरेंद्र के इस में उद्यम में कम से कम साथ तो न देखा जाऊं। वहां टीवी ऑन था, रिमोट उनकी समझ में नहीं आया था इसलिए कोई चैनल नहीं लग पाए थे। रिमोट मेरी तरफ बढ़ाकर बोले, देखौ ज़रा कल के प्रोग्राम को ख़बर चल रई है क्या?

कोई न्यूज़ चैनल लगाकर मैं ख़ामोशी से नहाने चला गया। तैयार हुआ तब तक सांसद राजू शेट्टी आ गए। महाराष्ट्र के भूगोल के चलते वहां के किसानों की अलग-अलग दिक्क़तों के बारे में उन्होंने विस्तार से बताया। कोंकण और उससे सटे तटीय इलाकों, सहयाद्रि की पर्वत श्रृंखला वाले इलाकों में ख़ूब बारिश होती है तो पठार वाले बड़े क्षेत्र में बहुत कम।

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मिट्टी की प्रकृति में भिन्नता तो है ही, सिंचाई के संसाधन ज़रूरत से काफी कम होने की वजह से भी किसानों को मुश्किलें पेश आती हैं। खेती की लागत और किसानों के उत्पाद की अनिश्चित कीमत उन्हें कर्ज़दार बनाने या बनाए रखने के लिए किस क़दर ज़िम्मेदार हैं, यह समझने के लिए विदर्भ की भयावह परिस्थितियां काफी हैं। काफी कम बारिश की वजह से वहां के किसान कपास और मोटे अनाज की खेती पर आश्रित हैं। बीज, खाद और कीटनाशक की कीमतों के अनुपात में ही अगर उत्पाद की मुनासिब कीमत मिलती तो किसानों की आत्महत्या की नौबत भला क्यों आती?

इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है कि ख़ुदकशी ख़बर बनकर रह जाती है, उसकी वजहों का हल तलाशने की सरकारी कोशिशें नज़र नहीं आतीं। वह प्याज़ और अंगूर उगाने वालों का हवाला भी देते हैं। अंगूर की कीमत कम से कम तीस रुपए किलो मिलने की उम्मीद लगाए बैठे लोगों को इसी साल अंगूर आठ से दस रुपये किलो बेचना पड़ा। वह शेतकारी संगठन की कोशिश के बारे में बता रहे थे और मेरे दिमाग़ में अख़बारों में छपी खुदकशी करने वालों की तस्वीरें और ब्योरे घूम रहे थे। साईंनाथ की एक रिपोर्ट याद आ रही थी। यह भी कि इतने सबके बाद भी उन्हें निजात मयस्सर नहीं।

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यहां से निकलकर हम पाटीदार सांस्कृतिक केंद्र पहुंचे, जहां सभा होनी थी। वहां जुटी भीड़ में महिलाओं की बड़ी तादाद थी, बहुसंख्य आदिवासी महिलाएं। नंदूरबार आदिवासी बहुल ज़िला है। यहां की आबादी में 65 फीसदी से ज्यादा आदिवासी हैं, सतपुड़ा के जंगलों और नर्मदा की घाटी में बसे मुख्यतः भील, पावरा और कोंकणीआदिवासी। शबरी और एकलव्य के नाते भी पहचाने जाने वाले भील। द्रविड़ ज़बान में ‘बिल’ या ‘बिल्व’ का अर्थ तीर होता हैं। इन धनुर्धारी आदिवासियों को इसी शब्द से पहचान मिली. यों तीर-कमान तो अब पहचान नहीं रहे मगर जीवट बरकरार है। नीमा वरकी पटेल, हेन्द्रि पावरा और हानी पावरा उन लोगों में शामिल हैं, जो लोक संघर्ष मोर्चा के सदस्य हैं।

प्रतिभा शिंदे की अगुवाई वाला यह मोर्चा उत्तर महाराष्ट्र के सात जिलों, दक्षिणी गुजरात के छह ज़िलों और मध्य प्रदेश में निमाड़ इलाके के दो ज़िलों में ज़मीन पर आदिवासियों के हक़ की लड़ाई लड़ रहा है। बक़ौल प्रतिभा, नंदूरबार में आदिवासियों के ऐसे 55 हज़ार मामले हैं और 1993 से अब तक करीब चालीस फीसदी मामले ही तय हो सके हैं। ज़मीन पर मालिकाना हक़ नहीं होने की वजह से बैंक आदिवासियों को कर्ज़ नहीं देते। ऐसे में उन्हें साहूकारों का मुंह जोहना होता है, जो कर्ज़ तो देते हैं मगर कसकर ब्याज़ भी वसूल करते हैं।

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लोणखेड़ा की तरह ही धुले की सभा में भी आदिवासियों की अच्छी-ख़ासी तादाद थी। लोक संघर्ष मोर्चा की पहचान वाली टोपियां और एप्रिननुमा जैकेट पहने ये लोग ट्रक-मिनी ट्रक में सवार होकर यहां आए थे। पसीना बहाती उस गर्मी में क़मीज़ के ऊपर वह जैकेट देखकर भी गर्मी लग रही थी मगर भाई लोग सहज थे। आए, सभागार में दाख़िल होने के लिए दरवाज़ा तलाश किया और अंदर जाकर बैठ गए। उनमें से दो-एक जन को रोककर मैंने आयोजन के बारे में पूछा, जवाब मिला कि ज़मीनों के पट्टे नहीं देकर सरकार उन पर जो ज़ुल्म कर रही है, यह उसी के ख़िलाफ लड़ाई है।

वे इसमें शरीक होने आए हैं। इतवार होने की वजह से बाहर एकदम सन्नाटा था। थोड़ी दूर आगे पटरी की दुकान की ख़ाली पड़ी बेंच पर बीड़ी पीते श्रवण करना मिले गए। वह भी लोक मोर्चा वाली जैकेट पहने हुए थे। उनसे खेती-बाड़ी का हालचाल पूछा तो मालूम हुआ कि कपास की खेती करते हैं। देसी कपास का बीज बीटीकॉटन के मुक़ाबले सस्ता होता है मगर उसे उगाना बड़ा सिरदर्द हो गया है। बीटी वाले बीज का 400 ग्राम का पैकेट हजार रुपये में मिलता है, जबकि गुजरात से आना वाला देसी बीज चार सौ रुपये में ही मिल जाता है।

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देसी के चक्कर में इस बार दो बार बुवाई कर चुके हैं पर पक्का पता नहीं कि सारा बीज जमेगा भी या नहीं। उनके पास दो एकड़ खेत है, जिसके लिए बीज और दवा पर ही चार-पांच हज़ार रुपए खर्च करने होते हैं। इतनी ही रक़म खाद और मजदूरी के लिए चाहिए। दो साल पहले तक कपास का भाव छह हज़ार रुपए कुंटल तक गया मगर अभी तो साढ़े चार हज़ार रुपए ही है। पांच हज़ार रुपए कुंटल तक बिकी सोयाबीन अब ढाई हज़ार तक और पिछली बार ही दस हज़ार रुपए तक बिकी तुअर दाल के भाव भी ढाई हज़ार तक आ गए हैं?

यह सब बताने के बाद उन्होंने मुझसे दरयाफ्त किया, आप बताओ कि खाद क्या पिछले साल से सस्ती बिक रही है? फसलों पर छिड़कने वाली दवाई के दाम, बीज के दाम क्या सरकार ने कम कर दिए हैं? तो फिर सरकार हमारी फसलों के दाम ऐसे कैसे कम कर देती है? मेरे पास उन्हें जवाब देने के लिए कुछ नहीं था सो मैंने कैमरा उठाकर उनकी तस्वीरें बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने भी अपना बीड़ी वाला हाथ बेंच के नीचे कर लिया ताकि तस्वीर में बीड़ी न दिखाई दे।

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धुले में मुख्य मार्ग पर आकर हमें मालेगांव का रास्ता पूछने की ज़रूरत पड़ी. पास ही दिख गए एक पुलिस वाले से पूछा। उनने रास्ता बताया और जब हम आगे बढ़े तो उनकी शुभकामना भी मिली। “हैप्पी जर्नी।“

           

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