गोरखपुर : यहां परिजन खरीदकर लाते हैं मास्क और दस्ताना, तब होता है पोस्टमार्टम

Vinay GuptaVinay Gupta   15 Aug 2017 1:47 PM GMT

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गोरखपुर : यहां परिजन खरीदकर लाते हैं मास्क और दस्ताना, तब होता है पोस्टमार्टमपोस्टमार्टम हाउस के बाहर स्वीपर अब्दुल हक़ीम।

गोरखपुर। हम लोग यहाँ मजबूरी में काम करते हैं। ना बिजली है ना और कोई सुविधा। इस कमरे में भूत तो आ ही जाएगा। यहां कोई नहीं आता। केवल हम और हमारा साथी मोहन और लाशें हमारे साथ होती हैं। ये कहते हुए अब्दुल हक़ीम आक्रोशित हो जाते हैं।

भारत के अखबारों से लेकर टीवी चैनलों पर इन दिनों गोरखपुर का BRD अस्पताल चर्चा का प्रमुख विषय बना हुआ है। पिछले चार दिनों में यहां साठ से भी अधिक मौतें हो चुकी हैं। इनमें ज्यादतर मासूम बच्चे हैैं। अस्पताल के मुख्य गेट अंदर जाने के बाद सीधे सौ मीटर चलने पर अस्पताल का इमेरजेंसी गेट है। उसी के सामने तीन कमरों का पोस्टमार्टम हाउस है। जहां रोजाना कई डेड बॉडी पोस्टमार्टम के लिए आते हैं। बाहर से खूबसूरत दिखने वाले इस कमरे में शायद ही कोई अंदर जा पाये। लेकिन यहां आपको अब्दुल हक़ीम (42) और मोहन (30) स्वीपर मिल जाएंगे।

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अब्दुल हक़ीम कहते हैं कि हम अस्पताल से ही तीन किलोमीटर दूर मानबेला खास गांव में रहते हैं। यहां सविंदा पर नौकरी करते है, और परमानेंट करने के लिए यहां के पूर्व वीसी ने 20 हज़ार रुपए की मांग की थी। हमारे लिए यहां न तो कोई सुविधा है और न ही किसी प्रकार का साधन। अस्पताल में मरने वाले लोगों को यहां पोस्टमार्टम के लिए लाया जाता है। हमारे पास दस्ताना तक नहीं है। मास्क तो दूर की बात है। कमरे में कीड़े रेंगते रहते हैं।

यह पूछने पर की जब अस्पताल से मास्क या दस्ताना नहीं मिलता तो आप काम कैसे करते हैं। तो अब्दुल हक़ीम कहते हैं कि अरे भइया हम लोग बिना किसी सुविधा के अंदर नहीं जाते, ना ही बॉडी को हाथ लगाते हैं। जिस फैमिली की बॉडी होती है वही हमे ये सब खरीद कर देती है। जिसके बाद हम बॉडी की चीर फाड़ करते हैं। यहाँ रोज दो से चार बॉडी पोस्टमार्टम के लिए आती है, अगर हम बिना सुविधा के काम करेंगे तो मर जाएंगे।

अस्पताल में ही ऑक्सीजन प्लांट में मिस्त्री के पद पर काम करने वाले रमेश राम (35) कहते हैं, कि हम तीन सालों से कार्यरत हैं। लेकिन अस्पताल में इतनी गंदगी है कि यहां मरीजों के साथ आने वाला सामान्य इंसान भी बीमार पड़ जाए। मंत्री जी आते हैं, अस्पताल के अंदर तुरंत सफाई शुरू हो जाती है। लेकिन अस्पताल के कैंपस में फैली गंदगी को कोई नहीं देखता।

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वो कहते हैं, अरे हम अस्पताल के गैस प्लांट के पास बने कमरे में रहते हैं। यहां के नालियों में डॉक्टर इलाज में उपयोग होने वाले सुइयों को नालियों में फेंक देते हैं। कभी-कभी तो ऑपरेशन के बाद मांस के टुकड़े भी नालियों में फेंक देते हैं, अगर आपको यकीन ना हो तो चलिए अभी हम आपको लिए चलते हैं।

गुस्साते हुए वो कहते हैं कि हम अब्दुल हक़ीम को दो साल से जानते हैं। लेकिन उनका काम देखकर हम भी उन्हें कुछ बोल नहीं पाते। वो तो सड़ती हुई लाश को सिलते हैं कहीं चोट वगैरह के निशान हो तो वो जगह को सही करते हैं। अरे कभी-कभी तो दस-दस दिन तक लाश सड़ती रहती हैं, और हम उसे पाउडर छिड़कर बदबू से बचाते हैं। लेकिन उसमें कीड़ा तो लग ही जाता है। यह पूछने पर की इतने दिन तक लाश को यहां क्योँ रखा जाता है। तो वह कहते हैं कि जब तक डॉक्टर का आदेश नहीं होता है, हम लाश को उनकी फैमिली के हवाले नहीं करते हैं। कभी-कभी डॉक्टर भी पोस्टमार्टम करने में कई दिन लगा देते हैं।

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बात करके निकले ही थे चार लोग एक लाश को लेने के लिए आए। उनमे से 45 साल का युवक विजय बहादुर साहनी नेपाल के भैरावां गांव रहने वाले बोले कि दादा हम यहां पड़ोसी की लाश लेने आये हैं। 12 तारीख को उनके पड़ोसी धनई (32) ने मिट्टी का तेल डालकर आत्मदाह करने की कोशिश की थी। यहां लाकर भर्ती करने के बाद रविवार को उनकी मौत हो गयी। उसके बाद जब हम पोस्टमार्टम कराने के लिए लेकर आये, तो हमे ही दस्ताना, मास्क और अन्य चीज़ें लेकर स्वीपर को देना पड़ा। जिसमे हमारा एक हज़ार रूपया खर्च हो गया।

हां हम शराब पीते हैं

अब्दुल हक़ीम ने शराब पी रखी थी। इस बारे में वे कहते हैं कि हां शराब पी रखी है, आपकी बात को कोई क्यो मानेगा तो वह बोले भइया तुमको हम कमरे के अंदर लेकर चलते हैं, तुम बिना मास्क के अंदर नहीं जा पाओगे। लेकिन हमारा काम ही यही है। तो हम बिना पिये नहीं जा सकते। क्योंकि उस कमरे में ना तो सफाई है और ना ही बिजली। लाश को रखने के लिए फ्रीजर भी लाये गए हैं।लेकिन बिजली ना होने के कारण वो बेकार ही पड़ा है।

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