एक मालेगांव जो फिल्मों में दिखता है, दूसरा जहां किसान आत्महत्या करते हैं...

Prabhat SinghPrabhat Singh   15 Nov 2017 5:51 PM GMT

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एक मालेगांव जो फिल्मों में दिखता है, दूसरा जहां किसान आत्महत्या करते हैं...इतने सारे बच्चों के होने के बावजूद ख़ामोशी?

मिसल पावयानी तीखे शोरबे वाला काला चना और पाव। एक बार जलगांव में खाया था, कान से धुंआ निकलने के हाल में पहुंच गया था। और बड़ा रस्सा बेकरी वाला ख़स्ता हुआ। वहीं सूख चुके नींबू और मिर्च के साथ टंगे काले रंग के एक गुड्डे पर निगाह पड़ी। मालूम हुआ, वह बावला है। बावला बुरी नज़र से दुकान की हिफ़ाज़त करता है। मेरी ‘चहा’ बन गई थी। तब तक हापुड़ की टीम भी आ गई और बातचीत का सिलसिला बावला से हटकर बुखार में पड़े किसान यात्रा के साथियों पर केंद्रित हो गया।

पहला भाग यहां पढ़ें-किसान मुक्ति यात्रा और एक

फोटोग्राफर की डायरी (भाग-1)

धुले से चांदवड़ की दूरी क़रीब सौ किलोमीटर है। नेशनल हाईवे 60 पर मालेगांव होकर निकले। हम मालेगांव में दाख़िल नहीं हुए, बस छूकर गुज़रे। साथ के कुछ लोगों को तुरंत मालेगांव ब्लास्ट की याद आई। जगदीश इनामदार ने वहां बुनकरों की बड़ी आबादी और कपड़ा उद्योग का ज़िक्र छेड़ा मगर मुझे ‘मालेगांव का सुपरमैन‘ याद आ रहा था। कभी हस्तकरघा और उसके बाद पावर लूम का बड़ा केंद्र रहा मालेगांव धमाकों की वजह से मुल्क भर में पहचाना गया मगर ‘मालेगांव का सुपरमैन‘ पर बनी फैज़ा अहमद ख़ान की डॉक्युमेंट्री’सुपरमेन ऑफ मालेगांव‘ की वजह से उसे दुनिया भर में पहचान मिली।

मालेगांव का नाम तो खूब सुना होगा

दुनिया भर के फिल्म उत्सवों में इस डॉक्युमेंट्री को ख़ूब सराहना मिली और कई अवॉर्ड भी। मशहूर फिल्मों को आधार बनाकर वहां के कुछ उत्साही मामूली वीडियो कैमरे से ही रीमिक्स बनाते हैं, ‘मालेगांव की शोले’, ‘मालेगांव की शान’, या ‘मालेगांव का जेम्स बांड’ सरीखी फिल्में। ख़ुद ही एडिट करते हैं, गाने और म्यूज़िक तैयार करते हैं। आमतौर पर ये फिल्में मालेगांव में ही वीडियो प्रोजेक्टर पर दिखाई जाती हैं। बर्तन या कपड़े की दुकान चलाने वाले, चाय बेचने वाले या फिर पावर लूम पर काम करने वाले इन फिल्मों में अभिनय करते हैं।

सुपरमैन का किरदार निभाने वाले शफ़ीक से मैं गोवा फिल्म उत्सव में मिला था। उस समय जब किसी कमरे में बेन किंग्ज़ले मीडिया से मुख़ातिब थे, फिल्म वाले सुपरमैन के कॉस्ट्यूम में शफ़ीक़ बाहर घास पर खड़े टीवी चैनल की रिपोर्टर से बात कर रहे थे। शफ़ीक़ किसी पावरलूम कारख़ाने में काम करते थे। मूल फिल्म तो मैंने नहीं देखी है मगर उसे बनाने की प्रक्रिया पर फैज़ा की डॉक्युमेंट्री कई बार देखी है। बहुत लोगों को दिखाई भी है। मालेगांव को सबसे पहले मैं मालीवुड की वजह से याद करता हूं।

हम देर रात तक चांदवड़ पहुंच सके। रास्ते में कुछ सभाएं भी थीं। सांसद के सौजन्य से डाक बंगले में एक कमरा हमारे हिस्से में भी आया। अंदर लकड़ी की छत और ऊपर खपरैल देखकर यह अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं था कि यह डाक बंगला अंग्रेज़ों के वक्त में बना रहा होगा। रात के खाने में आम और दूध। आम हमारे पास थे और दूध डाकबंगले की रसोई में। काया को ज़रूरी आराम मिला तो सुबह नींद जल्दी खुल गई। तैयार होकर बाहर निकल आया। छोटी जगहों पर सुबह की गतिविधियां आमतौर पर एक जैसी ही होती हैं।

बच्चे स्कूल के लिए तो मजदूर और दुकानदार काम के लिए निकल पड़े थे। टेंपो आ-जा रहे थे, कुछ सवारियां लिए और कुछ सब्ज़ियां लादे। चौराहे से थोड़ा आगे सब्ज़ी मंडी सज भी गई थी। इतनी ताज़ी गोभी के ढेर और इतने सुर्ख टमाटर और चमकती हरी मिर्च कि ख़रीदने को जी चाहे। इस समय जब उत्तर भारत में गोभी का मौसम सिमट चुका था, वहां गोभी देखकर भला लगा।

वे तोलकर नहीं गिनती से बेच रहे थे। दुकानें अलबत्ता अभी खुली नहीं थीं, उनके ग्राहक संभवतः अभी सो रहे थे। वापस चौराहे पर लौटा। चाय के एक ठिकाने पर बेंच दिखाई दीतो जम गया। गैस पर एक ओर केतली तो दूसरी तरफ कड़ाही गर्म हो रही थी। इसी के ऊपर झूलते दो बोर्ड पर मेन्यू दर्ज़ था- चहा, डोनेट, मिसल पाव और बड़ा रस्सा। डोनेट पढ़कर जिज्ञासा हुई तो पूछा कि यह क्या है? जवाब में उन्होंने एक पैकेट की तरफ इशारा कर दिया- वहां बन थे, वैसे ही लंबे बन जैसे हॉट डॉग में इस्तेमाल होते हैं।

मिसल पावयानी तीखे शोरबे वाला काला चना और पाव। एक बार जलगांव में खाया था, कान से धुंआ निकलने के हाल में पहुंच गया था। और बड़ा रस्सा बेकरी वाला ख़स्ता हुआ। वहीं सूख चुके नींबू और मिर्च के साथ टंगे काले रंग के एक गुड्डे पर निगाह पड़ी। मालूम हुआ, वह बावला है। बावला बुरी नज़र से दुकान की हिफ़ाज़त करता है। मेरी ‘चहा’ बन गई थी। तब तक हापुड़ की टीम भी आ गई और बातचीत का सिलसिला बावला से हटकर बुखार में पड़े किसान यात्रा के साथियों पर केंद्रित हो गया।

चांदवड़से थोड़ा बाहर निकलने पर साथ चल रहे शेतकरी संगठन के स्थानीय नेताओं में से एक ने सतपुड़ा की पहाड़ियों की तरफ इशारा करते हुए बताया कि वहां अहिल्याबाई होल्कर का बनवाया हुआ रेणुका देवी का मंदिर है। रेणुका देवी ऋषि जमदग्नि की पत्नी और परशुराम की मां थीं। कहते हैं कि अपने गुस्सैल पिता के कहने पर आज्ञाकारी परशुराम ने मां का सिर धड़ से अलग कर दिया था। उनका सिर यहां और धड़ माहूर (नांदेड़) में गिरा। उन्हीं रेणुका देवी का भव्य मंदिर यहां है और माहूर में भी।

मालवा की महारानी राजमाता अहिल्याबाई होल्कर का रंगमहल भी इन्हीं पहाड़ियों पर है, जहां अब स्कूल और कुछ सरकारी दफ्तर चलते हैं। राजमाता के नाम से मुझे बनारस का अहिल्याबाई घाट याद आया। रास्ते में ही गूगल पर जाकर देखा तो मालूम हुआ कि बनारस का घाट हीं नहीं, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश समेत देश में तमाम जगहों पर उन्होंने मंदिर, घाट और धर्मशालाएं बनवाई थीं।

रास्ते में एक चौराहे पर नुक्कड़ स्वागत के लिए रुके। पटाखों और ड्रम की आवाज़ के बीच वीएम सिंह ने पास ही रुकी बस से झांक रहे बच्चों की ओर इशारा करके बताया कि वे सभी उन किसानों के बच्चे हैं, जिन्होंने खुदकशी कर ली थी। मैंने भर नज़र उन्हें देखा और उनसे मिलने के लिए बस में चढ़ गया। बाहर के शोर के बावजूद बस के अंदर ख़ामोशी थी। इतने सारे बच्चों के होने के बावजूद ख़ामोशी? मुझे वह अनुशासित किस्म की ख़ामोशी नहीं लगी।

वह कुछ ऐसी थी, जो अंतस की उदासी से उपजती है, अवसाद से पैदा होती है।यही उनके चेहरों पर, उनकी आंखों में भी पढ़ा जा सकता था। खिड़की पर झुके बच्चे मुझे देखकर आगे की ओर आ गए। माथे पर सफेद तिलक और सिर पर टोपी। टोपी पर दोनों ओर उनकी व्यथा और अपील की इबारतें दर्ज़ थी- आमच्या शेतकरी बापाने आत्महत्या केली (मेरे किसान पिता ने ख़ुदकशी कर ली), ती चुक तुम्ही करु नका (तुम ऐसी ग़लती मत करना)। वे बच्चे थे पर इतने अबोध नहीं कि पिता को खोने और जीवन के अभावों का अर्थ न समझ सकें।

देवा शेतक याला सुखी ठेव(भगवान किसान को आशीर्वाद दें) और आधारतीर्थ आधाराश्रम। मैंने उनसे पूछा कि वे कहां से आ रहे हैं? जवाब मिला, त्र्यम्बकेश्वर से। त्र्यम्बकेश्वर स्थित आधाराश्रम अनाथ बच्चों के लिए काम करने वाला संगठन है, जो फिलहाल ऐसे 310 बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और उनके भरण-पोषण का ज़िम्मा उठा रहा है। मुख्यतः विदर्भ, मराठवाड़ा और कोंकण इलाकों से लिए गए इन बच्चों में 142 लड़कियां हैं।

ये चेहरे उन्हीं बच्चों के हैं, जिनके पिता के जान देने की छोटी-मोटी ख़बरें हम पिछले कुछ वर्षों में अख़बारों में पढ़ते रहे हैं और अगर क्षणिक रुप से विचलित हुए हों तो भी जाने कब का भूल चुके होंगे। ये उदास चेहरे उन्हीं ख़बरों की याद दिलाते हैं, उन गंभीर और हताशा से भर देने वाली परिस्थितियों की भी, जो जीवन से विमुख कर सकती हैं। सरकारी विज्ञापनों में हरियाली के बीच हाथ में हंसिया लिए मुस्कराते किसान की तस्वीर के बिल्कुल उलट ऐसी तस्वीर जो आपको बेचैन कर दे। मैं बस से उतर गया।

मुंबई-आगरा हाइवे पर पिंपलगांव बसवंत में सभा थी और खाना भी। तेज़ गर्मी थी और उमस भी कम नहीं। हाईवे के किनारे स्वयंवर लॉन्स के परिसर में वह बस हमसे आगे दाखिल हुई। बस से उतरे बच्चे क़तार बनाकर हॉल में दाख़िल हुए और अपने साथ चल रहे गुरु का इशारा पाकर बाईं तरफ़ की कुर्सियों पर बैठ गए। उनकी खामोश भंगिमा कोई बदलाव नहीं आया था। सभा शुरू होने में अभी वक़्त था। नेता मीडिया से बातचीत के लिए पीछे की ओर किसी कमरे में थे। खाने के बाद मैं बाहर निकल आया। स्वंयवर लॉन्स के बाईं ओर खेत थे। दूर तक अंगूर की लतरें फैली हुई थीं। कंटीली बाड के बीच रास्ता खोजकर उस तरफ चला गया। खुले में हल्की हवा का अहसास सुखद था और हरे रंग के तमाम शेड्स भी जो पत्तों के हवा में उड़ने से पैदा हो रहे थे। बीच में बनी पगडंडी पर चलकर अंदर तक गया। वहां छांव थी, अरहर के खेतों की तरह ही। मुड़कर देखा तो सामने की तरफ कांटेदार बाड़ के पीछे एक रिहाइश दिखाई दी। वहां तक पहुंचा तो बाड़ के पीछे दो लोग आकर खड़े हो गए थे। वे इन खेतों में काम करने वाले मजदूर निकले, जिन्हें मैं खेत का मालिक समझ बैठा था। अंगूर सरीखे अभिजात फल की खेती करने वाले ऐसे मामूली लोग नहीं होते। ज़मीन भर नहीं, पूंजी की ज़रूरत भी होती है। लक्ष्मण ने बताया कि इस बार की फसल ले चुके हैं, अब तो छंटाई और खेत दुरुस्त करने का काम चल रहा है। उन्होंने ही बताया कि फसल तो ठीक हुई इस बार मगर कीमत बहुत कम मिली। बाद में बाजार से इसकी तस्दीक भी हो गई। हापुड मंडली के टोनी ने बताया कि नासिक में किशमिश बहुत अच्छी और सस्ती मिलती है। मुझे उनकी बात जंची। हापुड़ जाकर पापड़ नहीं खाए तो क्या किया? उनकी मोटर में पिपलिया के ही कोई सज्जन साथ चल रहे थे। टोनी ने कुछ और लोगों भी साथ ले लिया।

बाहर के ट्रैफिक में मेरी निगाह प्याज़ से लदे ट्रैक्टरों की आवाजाही पर ही थी, तेज़ धूप में चमकता यह पारदर्शी लाल-गुलाबी रंग दिल्ली-नोएडा पहुंचने तक कितना धूसर और मैला हो जाता है। यह अलग बात है कि दाम कई गुना बढ़ जाते हैं। थोड़ा ही आगे जाकर देखा कि पटरी के किनारे काफी दूर तक खोखे हैं और उनके बाहर बने स्टॉल पर किशमिश-छुआरे के पैकेट सजे हैं। पहले ही ठिकाने पर जाकर देखा- हरी, हल्की कत्थई और काले रंग की किशमिश थी, कुछ लम्बी, कुछ गोल, अलग-अलग दाम मगर मुनासिब। मैंने तीन-चार तरह की किशमिश अलग कर ली। साथ वाले इनकी कीमतों पर सहमत नहीं थे, उनका मानना था कि सौ रुपये किलो बिल्कुल मुनासिब दाम है। इस तरह का मोलभाव मुझे रत्ती भर नहीं सुहाता, इसका शऊर भी नहीं है। सो उन्हें अनसुना करके मैंने दाम चुकाए और वहां से हट गया। वे लोग टहलते हुए आगे चले गए और कुछ आगे ठहरकर उन बुजुर्ग महिला से बात करने लगा, जो सामने किशमिश का बड़ा सा ढेर लगाए, छांटकर पैकिंग कर रही थीं। हिन्दी में बोलने में उन्हें थोड़ी दिक्क़त हो रही थी मगर उन्होंने जो बताया उसका सार यह था कि अंगूर को इतने लंबे समय तक नहीं सहेजा जा सकता, और किशमिश के दाम भी बेहतर मिल जाते हैं। मैं विजेता भाव से लौट रहे उन लोगों को देख रहा था, जो अपने हाथ के पैकेट आगे करके मुझे बता रहे थे कि पहले स्टॉल वाले ने मुझे ठग लिया था। किसानों को वाजिब दाम दिलाने की मांग करने वाले वे लोग ख़ुद भी किसान हैं, फिर ऐसा क्यों? उन्हें ऐसे अटपटे सवाल का जवाब देना ज़रूरी नहीं लगा।

दिंडौरी हमारा अगला पड़ाव था। क़स्बे में दाख़िल होते हुए क्षीरसागर अस्पताल के बोर्ड पर नज़र पड़ी तो सुबह नासिक में दाख़िल होते वक़्त देखा गया बोर्ड याद आ गया- शबरी रेस्टोरेंट। मन ही मन तुलना करने पर रेस्टोरेंट का नाम ज्यादा सार्थक लगा। कोई अस्पताल का नाम क्षीरसागर क्यों रखे? फिर सोचा कि शायद मौलिकता के चक्कर में डॉक्टर साहब ने यह अनूठा नाम खोजा हो। जहां हम रुके, वहां बाक़ी के लोग क़रीब ही किसी मंदिर में महात्मा से भेंट करने चले गए और मुझे कैलाश मवाल मिल गए। कैलाश अंगूर की खेती करते हैं और इस बार मिले दाम को लेकर ख़ासे खिन्न हैं। कहने लगे, ‘15 साल में पेस्टिसाइड के दाम तीन गुना तक बढ़े हैं, खाद मंहगी हुई है, मजदूरी बढ़ी है मगर अंगूर का भाव कमोबेश उतना ही है। इस बार लोगों को दस रुपये किलो या इससे भी कम में अंगूर बेचना पड़ा।’ उनके साथ खड़े गांव के ही एक सज्जन ने जोड़ा, ‘यूपी की किसी चुनाव सभा में मोदी जी ने कहा था कि आप लोगों को अंगूर दस रुपये किलो खिलाऊंगा। देखा जाए तो उन्होंने अपना वायदा ही पूरा किया है।’इस बार अंगूर के दामों में इस तरह की गिरावट की वजहें जानने के लिए बिजनेस वाले अख़बार खंगाले तो मालूम हुआ कि इस सीज़न में 1.13 लाख टन अंगूर यूरोप को एक्सपोर्ट किया गया, जबकि पिछली बार 84,384 टन ही बाहर भेजा गया था।

रिपोर्ट्स के मुताबिक इस साल गड़बड़ी यह हुई कि मार्च में ही चिली ने यूरोप के बाज़ारों में अपना अंगूर भेज दिया। सो हिन्दुस्तानी निर्यातकों को भारी मुश्किल का सामना करना पड़ा और अंगूर के दाम 50 फ़ीसदी तक गिरकर 35 रुपये किलो तक आ गए। ऐसे में किसान को मिलने वाले दामों के बारे में अंदाज़ लगा सकते हैं। नासिक के अंगूर को जीआई टैग (जिओग्राफिकल इन्डिकेशन) मिला हुआ है और देश के अंगूर एक्सपोर्ट का 55 फीसदी नासिक से ही जाता है।

राजीव सामंत की वाइनरी के ब्रांड ‘सुला‘के नाम और स्वाद के शौक़ीनों को तो मालूम ही होगा कि यह नासिक की वाइनरी से आती है। इलाक़े में बड़े पैमाने पर अंगूर की पैदावार का ही नतीजा है कि नासिक में दो दर्जन से ज्यादा वाइनरी हैं। रास्ते में जगदीश ने बताया था कि एक पुराने विधायक हैं, जो अंगूर के बड़े उत्पादक हैं और जिनकी ख़ुद की तीन वाइनरी हैं, नासिक के अलावा भूटान और नेपाल में भी। मैंने कैलाश से वाइनरी में अंगूर की खपत के बारे में पूछा, जवाब में उन्होंने बताया कि एक्सपोर्टर और वाइन बनाने वाले फसल के पहले क़रार करते हैं मगर उनकी शर्त होती है कि खेतों में कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं किया गया हो। इसे पक्का करने के लिए दो बार लैब टेस्ट भी कराना होता है और इस पर क़रीब बारह हज़ार रुपये ख़र्च होते हैं। कैलाश बता रहे थे और मैं अंगूर के उस स्वाद के बारे में सोच रहा था, जो कई बार मुंह में रासायनिक क़िस्म का कसैलापन घोलता है। ज़ाहिर है कि अंगूर के साथ हम कीटनाशक भी खा रहे होते हैं। कीटनाशक से मुक्त वाइन और युक्त अंगूर! मैंने लम्बे और गोल अंगूर में अंतर जानना चाहा और कैलाश ने तमाम नाम गिना दिए, थॉमसन, गणेश, सोनाका, शरद, मानिक चमन. बिना बीज वाली ये प्रजातियां किशमिश बनाने के काम भी आती हैं। उनका कहना था कि नासिक की वाइनरी अब वाले सोलापुर और सांगली से अंगूर ख़रीदते हैं।

यहां से निकलकर हमें गुजरात में दाख़िल होना था। पड़ाव था तापी के व्यारा में। सो कैलाश से विदा लेने से पहले मैंने उनके बच्चों और पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछा। बोले, ‘हां, अभी तो पढ़ाई कर रहे हैं। मगर नौकरी मिल ही कहाँ रही है? झक मारकर खेती में ही लगना पड़ेगा।’

दूसरा भाग यहां पढ़ें-

किसान मुक्ति यात्रा और एक फोटोग्राफर की डायरी (भाग-2)

तीसरा भाग- किसान मुक्ति यात्रा (भाग-3) : किसान नेताओं की गिरफ्तारी और अफीम की सब्जी

चौथा भाग- किसान मुक्ति यात्रा (भाग-4) : स्वागत में उड़ते फूल और सिलसिला नए तजुर्बात का

पांचवां भाग-किसान मुक्ति यात्रा (भाग-5) : महाराज से

मुलाक़ात और इन्दौर में प्रवास

छठवां भाग- किसान मुक्ति यात्रा (भाग-6) : और एक दिन मेधा ताई के नाम

सातवां भाग- किसान मुक्ति यात्रा (भाग-7) : ख़ुदकशी बस ख़बर बनकर रह जाती है

        

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