काश कि ऐसे शिक्षक देश के हर विद्यार्थी को नसीब हों

चाहे अपने एक वर्षीय बच्चे को पीठ से बांधकर 40 किलोमीटर दूर से बाइक चलाकर विद्यालय पहुंचना हो या स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चों के घर जाकर उनको मुफ्त में ट्यूशन पढ़ना या फिर बच्चों के साथ बढ़ते अपराधों को नज़रअंदाज़ न करके उन्हें आसान कहानियों के माध्यम से गुड-टच और बैड-टच की जानकारी देना, प्रदेश के कुछ ऐसे शिक्षक हैं जो यह सब कर के एक बेहतर भारत, एक बेहतर भविष्य के लिए कार्यरत हैं।

Jigyasa MishraJigyasa Mishra   5 Sep 2018 9:07 AM GMT

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काश कि ऐसे शिक्षक देश के हर विद्यार्थी को नसीब हों

जिज्ञासा मिश्रा

लखनऊ। बेशक आज देश के कई प्रांतों, गाँवों में शिक्षकों का आभाव है लेकिन उनमें से कई जगहों पर यह कमी खल नहीं रही। पिछले कुछ दिनों में मुझे जब रिपोर्टिंग के लिए उत्तर प्रदेश के ग़ाज़िआबाद, सीतापुर, लखीमपुर, कर्वी, महोबा, हमीरपुर, गोसाईगंज, मिर्ज़ापुर जैसे जिलों के तमाम सरकारी विद्यालयों में जाने का मौका मिला तो कुछ ऐसे शिक्षकों से मुलाकात हुई जो अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल पेशे मात्र से बढ़कर कर्तव्यों का पालन करने में कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कई ऐसे विद्यालय देखने को मिले जहाँ अध्यापकों ने अपने लगन और प्रयास से विद्यालयों को उदाहरण के काबिल बना दिया है।

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चाहे अपने एक वर्षीय बच्चे को पीठ से बांधकर 40 किलोमीटर दूर से बाइक चलाकर विद्यालय पहुंचना हो या स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चों के घर जाकर उनको मुफ्त में ट्यूशन पढ़ना या फिर बच्चों के साथ बढ़ते अपराधों को नज़रअंदाज़ न करके उन्हें आसान कहानियों के माध्यम से गुड-टच और बैड-टच की जानकारी देना, प्रदेश के कुछ ऐसे शिक्षक हैं जो यह सब कर के बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए कार्यरत हैं।

संतोष कुमार (प्राथमिक विद्यालय सलौली, गोसाईगंज, लखनऊ) -


संतोष 20 अगस्त वर्ष 2013 से कार्यरत हैं। 2 वर्ष पूर्व जब संतोष का बच्चा करीबन एक साल का था तब संतोष उसे लेकर प्रतिदिन विद्यालय आये। संतोष का घर लखनऊ के गोमतीनगर के पास है और विद्यालय गोसाईगंज के सलौली गाँव में। संतोष की पत्नी एक अस्पताल में बतौर नर्स कार्यरत हैं जिस वजह से वह बच्चे को अपने साथ अस्पताल ले जाने में असमर्थ थी। ऐसे में संतोष ने ना सिर्फ एक ज़िम्मेदार पिता का कर्त्तव्य निभाया बल्कि विषम परिस्थितियों में भी तमाम शिक्षकों के लिए एक उदाहरण बन गए। संतोष हर रोज़ करीबन 40 किमी की दूरी अपने बच्चे को पीठ पर दुपटे से बाँध कर, बाइक चलाकर तय करते और प्रतिदिन अपने दोनों कर्तव्यों क बखूबी निभाते। आज संतोष को विद्यालय में 5 वर्ष हो चुके हैं और अब उनका बालक भी शहर के प्ले-ग्रुप में भी पढ़ने लगा है। "हम भी सरकारी विद्यालय में पढ़े हैं और शिक्षकों को देखा है कि वो किस लगन से कार्य करते थे। मैं यदि अपनी परिस्थितियों से हार कर शिक्षा देने के नाम पर सिर्फ नौकरी करूँगा तो 200 बच्चों की ज़िन्दगियाँ कैसे बदलेंगी?" संतोष कहते हैं।

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अजय (प्राथमिक विद्यालय नयापुरवा, मानिकपुर, चित्रकूट)-


जहां कई सरकारी स्कूल बच्चों के न आने से परेशान हैं, वहीं चित्रकूट जिले के प्राथमिक विद्यालय नयापुरवा, मानिकपुर में स्कूल के बाद शाम को एक्सट्रा क्लास भी चलती है। वर्तमान में विद्यालय में एक प्रधानाचार्य, एक सहायक शिक्षक और एक शिक्षा मित्र तैनात हैं। यहां 132 बच्चों का रजिस्ट्रेशन है। शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता हो यहां जब बच्चों की उपस्थिति 110 के नीचे जाती हो।

प्राथमिक विद्यालय नयापुरवा शहर से हटकर देवांगना घाटी के ऊपर छोटे से गाँव, ददरी में स्थित है। जहां बच्चों के साथ टीचर भी दूर दूर से आते हैं। प्रधानाध्यापक अजय कहते हैं, "शुरू में विद्यालय में उपस्थिति 50 प्रतिशत भी हो जाती थी तो हमारे लिए बड़ी बात होती थी। बच्चे होमवर्क भी नहीं करते थे। तब हमने सोचा यदि बच्चों को शिक्षित करना है तो कोई उपाय निकल कर इन्हें थोड़ा ज्यादा वक्त देना होगा। स्कूल से घर जाने के बाद बच्चे बिल्कुल पढ़ाई नहीं करते थे। अभिभावक पढ़ाते नहीं थे और बच्चे खुद कोशिश नहीं करते थे। होमवर्क न कर पाने के कारण भी कई बार बच्चे नहीं आते थे। तब हमने ग्रुप स्टडी करवाने की शुरुआत की। हमने मोहल्लों में बच्चों से साथ मिलकर पढ़ने को कहा। हर जगह एक पढ़ाई मॉनिटर भी बनाया। वह मॉनिटर सभी बच्चों को स्कूल की छुट्टी के दो घंटे बाद इकट्ठा कर के पढ़ाता है। मॉनिटर किसी मेधावी को ही बनाते हैं।' सहायक शिक्षक, ललित कहते हैं "हम लोग हर दूसरे दिन बच्चों की ग्रुप स्टडी का निरीक्षण करने जाते हैं। बच्चों को कोई दिक्कत होती है तो उनकी मदद भी करते हैं।"

प्रधानाध्यापक, अजय कुमार बताते हैं, "2016 में जब यहाँ मेरी नियुक्ति हुई थी तब छात्रों की उपस्थिति मुश्किल से 40 फ़ीसदी हुआ करती थी। फ़िर हमने मिलकर, घरों में जाकर अभिभावकों से बात करनी शुरू की तब जाके, आज 2 साल बाद, प्रतिदिन 80 प्रतिशत उपस्थिति होती है।" अजय अपने शिक्षकों के साथ हर हफ्ते उन अभिभावकों से मिलने जाते हैं की हाज़िरी कम होती है। "हमने एक अभिभावक संपर्क रजिस्टर भी बनाया है जिसमें अभिभावकों के नंबर हैं। ज़रुरत पड़ने पर हम उन्हें फ़ोन भी करते हैं," वह आगे बताते हैं।

अर्चना गुप्ता (प्राथमिक विद्यालय बरा)-


प्रधानाध्यापिका अर्चना के साथ मिलकर तीन महिला शिक्षामित्र और तीन सहायक शिक्षिकाएं स्कूल की सूरत बदलने में लगी हुई हैं। इसी का नतीजा है जो विद्यालय में छात्राओं की संख्या छात्रों से अधिक है। विद्यालय में कुल 294 छात्रों का नामांकन है, जिसमें से 165 लड़कियां है और 129 लड़के हैं। विद्यालय में गुणवत्ता लाने के लिए सभी शिक्षक एकजुट होकर अलग अलग सेक्टर में काम कर रही हैं। बच्चों के साथ बढ़ते अपराधों को नज़रअंदाज़ न करके ये शिक्षिकाएं हर हफ्ते सभी विद्यार्थियों को आसान कहानियों के माध्यम से गुड-टच और बैड-टच की जानकारी देती हैं। इस सेशन में छात्राओं के साथ छात्रों को भी सम्मिलित किया जाता है। सहायक शिक्षक, मीना पाण्डेय बताती हैं, आज के माहौल में बच्चे घर और बाहर कहीं भी सुरक्षित नहीं है। ऐसे में हमें बचपन से यह सीख देनी जरूरी है ताकि बच्चे अच्छाई और बुराई की समझ रख सकें।

मानवीय सहायता संगठन वर्ल्ड विजन इंडिया द्वारा किए गए 2017 के सर्वेक्षण में देश के 26 राज्यों में 12 से 18 आयु वर्ग के 45,000 से अधिक बच्चों ने एक सर्वेक्षण में भाग लिया, जिसमें पता चला कि हर दो बच्चों में से एक बाल यौन शोषण का शिकार है। 45,844 केस स्टडीज़ के साथ यह भी पता चला कि इस डर के कारण हर पांच में से बच्चा ख़ुद को असुरक्षित महसूस करता है और हर चार में से एक परिवार ऐसे मामलों में खुल कर सामने नहीं आते।

2016 में क्राइम्स इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, बच्चों के खिलाफ अपराधों के 106,958 मामले दर्ज किए गए थे। इनमें से 36,022 मामले पोस्को (यौन अपराध से बच्चों के संरक्षण) अधिनियम के तहत दर्ज किए गए थे। वर्ष 2014 में बाल शोषण के लिए पंजीकृत मामलों की संख्या 8,904 से बढ़कर वर्ष 2015 में 14,913 हो गई। पोस्को अधिनियम के तहत, राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा बाल शोषण के मामलों (3,078) के बाद मध्यप्रदेश (1,687 मामले), तमिलनाडु (1,544 मामले), कर्नाटक (1,480 मामले) और गुजरात (1,416 मामले) शामिल हैं।

'आयुष्मान भारत' के तहत इसी साल अप्रैल में देश के स्कूलों में बच्चों को सेक्स एजुकेशन दिए जाने को आधिकारिक किया गया था। देश स्कूल स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत 'रोल प्ले और एक्टिविटी बेस्ड' मॉड्यूल के रूप में लागू प्रावधान पहले चरण में नौवीं से बारहवीं तक ही था जिसे देश के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनना था लेकिन इस बेसिक स्कूल के शिक्षकों ने प्राइमरी लेवल के बच्चों में 'गुड टच-बैड टच' की ज़रुरत को सर्वाधिक समझकर अपने स्तर पर उन्हें सेक्स एजुकेशन देनी शुरू कर दी।

विनय कुमार मिश्रा प्राथमिक विद्यालय ब्युर, मानिकपुर, चित्रकूट-


विनय कुमार मिश्रा मानिकपुर क्षेत्र में स्थित प्राथमिक विद्यालय, ब्यूर के हेडमास्टर हैं जिन्होंने घर-घर जाकर अपने और अन्य विद्यालयों की बच्चियों को मुफ्त में पढ़ाने का जिम्मा लिया है। मानिकपुर, उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 250 किलोमीटर दूर चित्रकूट जिले में स्थित है। विनय बताते हैं, "हम नहीं चाहते कि कोई भी बच्चा किसी से कम हो। सब एक साथ आगे बढ़ें इसलिए हम कमज़ोर छात्रों को अलग से बुला के पढ़ाते हैं।"

जनगणना के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में साक्षरता दर 69.72 % है जिसमे साक्षर पुरुषों की संख्या 79.24 है और महिलाओं की 59.26। ब्यूर गाँव में रहनेवाले ज़्यादातर लोग या तो खेती करते हैं या चित्रकूट जाकर मजदूरी। लड़कियां विद्यालय तो जाती हैं लेकिन वहां से लौटकर घर के काम करना उनको बचपन से ही सिखाया जाता है। ऐसे में उन्हें घर पर पढ़ने का समय मिले यह सोचकर विनय ने अभिभावकों व ग्राम प्रधान से बात कर हफ्ते में दो दिन उनके घर जाकर पढ़ाना शुरू किया। ग्राम प्रधान रामलाल गर्ग बताते हैं, "इस विद्यालय के दोनों ही हेडमास्टर बच्चो के प्रति समर्पित रहते हैं। चाहे वह सुबह जल्दी पहुंचकर बच्चों को पढ़ाना हो या फिर घर जा कर अलग से तट्यूशन देना। हम सब चाहते हैं की हमारे गाओं की बच्चियां पढ़ कर गाँव का और देश का नाम रौशन करें।"

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ऋतु अवस्थी प्राथमिक विद्यालय राजापुर, लखीमपुर-

आमतौर पर, बागवानी, सरकारी विद्यालयों के पाठ्यक्रम में नहीं होती है। लेकिन अगर शिक्षक खुद से चाहें तो बच्चों को किसी भी रुप में ढाला जा सकता है। राजापुर विद्यालय की विद्यालय की प्रधानाध्यापिका, ऋतु अवस्थीऐसे शिक्षकों में से एक हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 150 किलोमीटर दूर प्रदेश की तराई बेल्ट लखीमपुरखीरी में शहर से थोड़ा आगे ग्रामीण इलाके में राजापुर प्राथमिक विद्यालय है। कक्षा एक से पांचवीं तक 201 छात्रों को अकेले संभाल रहीं ऋतु कहती हैं कि उन्होंने आसपास के बच्चों को कई बार जामुन, अनार और आम के पेड़ को तोड़ते देखा तो लगा कि अगर बच्चों को ही इनका पहरेदार बना दिया जाए तो न सिर्फ पेड़ बचेंगे बल्कि बच्चों को प्रकृति से लगाव होगा। क्योंकि हमारे स्कूल में न माली है और न ही सुरक्षाकर्मी। शुरू में जब मिड-डे-मिल खाने की बारी आती थी तो कुछ बच्चे खाना खाने के लिए घर से अपने अलग थाली और गिलास लाते थे। पूछने पर कई बच्चों ने बताया उनके अभिवावक ही उन्हें ऐसा करने को कहते हैंलेकिन अब तस्वीर बदल गई है।

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