देविंदर शर्मा- 1700 रुपए महीने में एक गाय नहीं पलती, किसान परिवार उसमें गुजारा कैसे करता होगा?
Arvind Shukla | Sep 02, 2019, 06:51 IST
"2016 का आर्थिक सर्वे कहता है कि 17 राज्यों यानि लगभग आधे भारत में किसान परिवारों की मासिक आमदनी 1700 रुपए है। इतने रुपए में एक गाय नहीं पाली जा सकती। आप कल्पना करिए 1700 रुपए में कैसे किसान का परिवार गुजारा करता होगा?" देविंदर शर्मा
सवाल : भारत हो या अमेरिका कृषि और किसानों के संकट के मूल वजह क्या है?
उस संकट को समझने के लिए हमें भारत और दूसरे देशों के इकनॉमिक्स डिजाइन, इनकॉमिक्स चक्र को समझना होगा। 1960 के दशक में अमेरिका की खेती और आज की खेती देखिए। इन 60 सालों में वहां के किसानों की वास्तविक कृषि आय नीचे गई है। ये बात खुद अमेरिका के कृषि विभाग में मुख्य आर्थिक सलाहकार बताते हैं कि किसानों की आमदनी नीचे जा रही है।
साल 2018 में अमेरिकी किसानों की औसत आमदनी कम हुई है। ये पहली बार नहीं है, पिछले 6 साल से वहां ऐसा हो रहा है। ये अमेरिका की खेती का हाल है, जिसे हम (भारत) अपनाते हैं। उसके जैसी तकनीकी और नीतियां चाहते हैं।
भारत में भी खेती उसी संकट से गुजर रही है। आमदनी के आंकड़ों में अंतर हो सकता है। क्योंकि हमने (सरकारों ने) जानबूझकर किसानों को आमदनी से दूर रखा है, क्योंकि ये माना जाता है कि आर्थिक बदलाव तभी साकार हो पाएंगे जब हम खेती को खत्म करेंगे। भारत समेत पूरी दुनिया के अर्थशास्त्री ये कहते हैं कि लोगों को खेतों से निकालकर शहर में लाया जाए, क्योंकि इंडस्ट्री को सस्ते मजदूरों की जरुरत है। उद्योग को पनपने के लिए सस्ता कच्चा माल चाहिए। इसी लिए खेती का संकट है।
अब भारत में देखिए 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि 17 राज्यों में यानि आधे भारत में किसानों परिवार की औसत वार्षिक आय 20 हजार रुपए है। यानि करीब 1700 रुपए महीना। भारत में भी आप इतने रुपए में एक गाय नहीं पाल सकते। आप सिर्फ कल्पना करिए कि एक किसान का परिवार इन 1700 रुपए में कैसे एक महीने गुजारा करता होगा?
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सवाल: भारत की एक बड़ी आबादी (करीब 50 करोड़) सीधे तौर पर खेती से जुड़ी है। फिर इतनी बड़ी आबादी को क्या लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है?
थोड़ा और पीछे चलते हैं। अनडाइय नाम के एक शोध में कहा गया कि 1985 से 2005 तक फार्म गेट प्राइस farm get price (यानि वो रेट जो किसानों को मिलता है) वो फ्रोजन frozen (स्थिर) रहा। अगर महंगाई (लागत के अनुपात में) को रखकर देंगे तो पता चलेगा कि किसानों को जो दाम 1985 में मिलता था वही 2005 में मिला। उसमें कोई अंतर नहीं है। यानि 20 साल से कीमतें स्थिर रहीं।
हालातों को समझने के लिए एक और रिपोर्ट पर नजर डालिए। आर्थिक सहयोग संगठन और Indian Council for Research on International Economic Relations (OECD-ICRIER) की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2000 से 2017 तक किसानों के उत्पादों को सही मूल्य न मिल पाने से उन्हें 45 लाख करोड़ का नुकसान हुआ।
कहने का मतलब है कि 40 साल से किसान उसी इनकम में गुजारा कर रहा है। जिस इनकम में तो जो 40 साल पहले था। अब आप कृषि संकट को समझ सकते हैं। अगर ऐसा हमारे साथ हुआ होता तो कब का आत्महत्या कर लिए होते। या फिर उस व्यवसाय से निकल गए होते। तो खेती के संकट को आय-आमदनी के परिपेक्ष्य में देखने की ज्याद जरुरती है। लेकिन माहौल ऐसा बनाया गया ह कि किसानों को ज्यादा उत्पादन नहीं हुआ इसलिए खेती में घाटा है। ये सोच गलत है।
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सवाल: लेकिन मोटे तौर पर कहा ये जाता है कि अच्छी उपज (ज्यादा उत्पादन) न होने से किसान परेशान हैं?
ये बात समझने के लिए पंजाब को लेते हैं। पंजाब एक ऐसा उदाहरण है जो दुनिया को चौका देता है। पंजाब Punjab में 98 फीसदी एरिया सिंचित है। शायद ही ऐसा कोई खेत होगा जहां पानी नहीं पहुंचता है। धान, गेहूं की पैदावार के मामले में वो दुनिया में नंबर एक पर है। सिंचाई बेहतर है, उत्पादन में सबसे ऊपर है इसके बावजूद वो किसानों कि आत्महत्या का गढ़ बन गया है। पिछले 10 सालों में पंजाब में 10 हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है।
इससे पता चलता है कि संकट उत्पादन या सिंचाई से नहीं हैं, क्योंकि जहां ये उपलब्ध है वहां भी किसान जान दे रहा है। तो कहीं न कहीं पॉलिसी धारकों, सरकारों, नेताओं को सोचना और देखना चाहिए कि देश में ऐसा क्या है, कारण और उपाय खोजने होंगे। न कि समस्या भारत की है और उपाय अमेरिका और यूरोप में खोजे जाएं। कई बार हमने (भारत) ने ऐसे विदेशों से ऐसे गलत समाधान दिए हैं, जिनका खामियाजा भी भुगनता पड़ा है। इसलिए मैं कहता हूं इस पर बहुत गंभीरता से विचार कर स्थानीय स्तर पर समाधान खोजने चाहिए।
सवाल: किसानों की बड़ी समस्या इनपुट कास्ट होती है? सरकार अब जीरो बजट प्राकृतिक खेती की बात कर रही है? क्या ये भारत में पहली बार है।
देविंदर शर्मा: जीरो बजट प्राकृतिक खेती का मुझे लगता है कि कहीं न कहीं ये मैसेज गया है कि हमें खेती में इनवेस्ट (निवेश) की जरुरत नहीं है, किसानों को ज्यादा कुछ लगाने की जरुरत नहीं है। अगर नीति निर्माता जीरो बजट को इस तरह सोच रहे हैं कि उत्पादन लागत (cost of production ) कम होने से आमदनी बढ़ जाएगी तो ये फार्मूला हानिकारक है।
भारत में प्राकृतिक तरीकों और कम लागत का सिलसिला बहुत पुराना है। आपसे भी शायद कभी सवाल पूछा गया होगा कि नाम में क्या रखा है? मुझे एक बार प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह ने बताया था कई रिकार्ड बनाने वाले उनके पहले नॉवेल को उन्होंने 20 प्रकाशकों को दिया, सभी ने उसे खारिज कर दिया। तब उन्होंने उसका नाम बदल कर 'ट्रेन टू पाकिस्तान' कर दिया। और फिर वो दुनियाभर में छा गई।
जीरो बजट का नाम आने से सरकार अपने दायित्वों से बच सकती है।
आज अगर हम देखते हैं 2011 और 2016-17 के बीच आरबीआई (RBI) का डाटा ये कहता है कि कृषि क्षेत्र में जो निवेश हुआ वो कुल जीडीपी (GDP) का मात्र 0.4 फीसदी है। जबकि इस 50 फीसदी आबादी शामिल है। यानि आप 50 फीसदी के लिए निवेश नहीं करना चाहते। 0.4 फीसदी निवेश के हिसाब से नीति आयोग का जीरो बजट फार्मूला अच्छा है।
मेरा मानना है कि जीरो बजट खेती पद्दति अच्छी है, इसमें एक चीज और जोड़ने की जरुरत ह वो है एग्रो इक लॉजिकल यानि प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल करने की जरुरत है। देश में बहुत सारे लोगों ने प्राकृतिक खेती पर काम किया है। कर्नाटका में नारायण रेड्डी साहब, गुजरात में भास्कर साल्वे, तमिलनाडु में नामलवार ने बिना कीटनाशक लोगों को खेती करना सिखाया। ये तीनों लोग हमारे बीच नहीं है लेकिन आज भी ऐसे कई लोग हैं जो अपने अपने स्तर पर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दे रहे हैं। खेती में बाहर से कम से कम चीजें लाई जाएं, जो खेत-घर में है उसी के अनुरूप खेती होती हो।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण में इसका ( zero budget natural farming) जिक्र कर नई शुरुआत दी। इसकी चर्चा होनी जरुरी थी। क्योंकि दुनिया को समझ आ गया है कि जहरीले कीटनाशकों से दूर का रास्ता अपनाना ही होगा। भारत में ये चर्चा ऐसे समय पर शुरु हुई है जब अमेरिका और यूरोप में भी इस पर बात हो रही है।
सवाल: मतलब विकसित देशों में कृषि की वर्तमान पद्दतियों में बदलाव की बात हो रही है?
रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस रास्ते (सघन खेती- intensive farming ) पर हम चल रहे वो ठीक नहीं। लोगों का स्वास्थ्य खराब हुआ, मिट्टी खराब हुई, लागत बढ़ी, पर्यावरण खराब, पानी का दोहन हुआ और जलवायु परिवर्तन का ठीकरा भी इंटेसिंव फार्मिंग सिस्टम (सघन- कीटनाशक और उर्वरक वाली) पर फोड़ा गया है।
उनका कहना है कि ब्रिटेन को एक ट्रांजिशन पीरियड में जाना होगा। एग्रो इकलॉजिकल सिस्मट की ओर जाना होगा। प्रकृति आधारित खेती को अपनाना होगा।
अगर बिट्रेन ये सोच रहा है तो भारत के लिए ये सही मौका है क्योंकि हमने नई तरह की खेती उन्हीं से सीखी है। उनकी पद्दतियां अपनाई हैं। अगर वो बदल रहे हैं तो हमें भी बदलना चाहिए। प्रकृति अनुकूल सभी पद्दतियां अच्छी हैं। फिर चाहे वो जैविक खेती या फिर जीरो बजट प्राकृतिक खेती, वो फिर होमा थेरेपी हो या फिर बॉयो डायनमिक… इन सबको क्षेत्र और के हिसाब से लागू करना और बढ़ाना चाहिए। कोई पद्दति पंजाब में सफल होगी तो कर्नाटका में नहीं, राजस्थान वाली केरल में कारगर न हो। इसलिए सभी पद्तियों को बढ़ावा देना चाहिए। हमें किसानो को वो रास्ता दिखाना होगा जिससे वो दुनिया की तमाम समस्याओं से निकल सके। वैसे भी कीटनाशक जहर ही होते हैं। और जिस खेती में ये डालकर फसल पैदा की जाएगी उसके दुष्परिणाम तो होंगे ही।