सामाजिक मुद्दों से जुड़कर अपना अस्तित्व बचाने में जुटी कटपुतली

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सामाजिक मुद्दों से जुड़कर अपना अस्तित्व बचाने में जुटी कटपुतलीgaonconnection

लखनऊ। चचाजान गाँव-गाँव जाकर लोगों को शिक्षा, साफ-सफाई के प्रति जागरूक करने के साथ ही मनोरंजन भी करते हैं। इसमें साथ देते हैं, चचाजान के परिवार वाले जिनका नाम हर कार्यक्रम में बदल जाता है। 

हर उम्र के लोगों का खूब मनोरंजन करने वाले ये चचाजान कोई आदमी नहीं बल्कि एक कठपुतली हैं। लखनऊ के उत्तर में लगभग 11 किमी दूर सड़क के किनारे साक्षरता भवन के एक कमरे में चचाजान का कुनबा रहता है। चचाजान को बनाया है यहां के चीफ पपेटियर आरके त्रिवेदी ने। त्रिवेदी के कमरे में चारों तरफ कठपुतलियां ही दिखती हैं कोई पूरी तरह बनकर कई कार्यक्रम कर चुकी है तो कोई अभी पूरा बनने के इंतजार में हैं। जितनी कठपुतलियां उतने ही रंग, कोई दुल्हनियां बनी है तो कोई गाँव का किसान। अखबार की लुगदी से बनी सभी कठपुतलियों की सजावट इतनी संुदर की गई है कि कमरा बहुत से अलग-अलग व्यक्तित्वों से भरा लगता है।

‘‘मैं पिछले 29 वर्षों से कठपुतली का कार्यक्रम कर रहा हूं और अब तक हजारों कार्यक्रम कर चुका हूं। हम गाँव-गाँव जाकर लोगों का मनोरंजन करने के साथ ही उनकों जागरूक भी करते हैं।’’ त्रिवेदी आगे बताते हैं, ‘‘अब पहले की तरह कठपुतली के कार्यक्रम में दर्शक नहीं रह गए हैं, लेकिन हमारी पूरी कोशिश रहती है कि कठपुतली की इस कला को मिटने न दें।’’

लम्बे समय से कठपुतली का इस्तेमाल केवल मनोरंजन के लिए होता आया था पर उसके कथानकों में बदलाव आ रहा है। मनोरंजन अभी भी है लेकिन उसके साथ अब एक सामाजिक संदेश भी लोगों तक पहंुचाने की कोशिश रहती है। 

आरके त्रिवेदी व उनके साथी गाँव और कस्बों में जाकर लोगों को परिवार नियोजन, पर्यावरण संरक्षण, बाल विवाह जैसे मुद्दों पर जागरुक करते हैं। त्रिवेदी बताते हैं, ‘‘आमतौर पर कठपुतली के नाटकों की कहानियां पौराणिक ही होती थीं लेकिन अब सामाजिक मुद्दों को कहानी के रूप में ढालकर हम दर्शकों तक ले जाते हैं जिससे लोगों को मनोरंजन के साथ ही कुछ सीखने को भी मिले।’’

एक ओर त्रिवेदी गाँव-गाँव जाकर कठपुतली को बचाए रखने की जुगत में हैं वहीं दूसरी ओर त्रिवेदी की तरह ही एक और कलाकार हैं जिसके लिए कठपुतली ही उनका परिवार है। लखनऊ में हुसैनगंज के पास ही लालकुआं भेड़ी मंडी में रहते हैं मेराज़ आलम। इनके ज़हन में भी रात-दिन एक ही मिशन चलता रहता है कठपुतलियों को उनका भुलाया जा चुका सम्मान वापस दिलाना।

      मेराज़ पिछले दस वर्षों से लगातार कठपुतली कला को अपनी मेहनत से सींचने में लगे हैं। वो बताते हैं, ‘‘शुरू में मैने केवल कठपुतलियां बनाना शुरू किया लेकिन धीरे-धीरे मेरा मन इसमें रम गया। कठपुतली बनाने के साथ ही फिर मैने कठपुतली का नाटक भी दिखाना शुरू कर दिया और इसमें मेरे घरवालों ने भी मेरा साथ दिया।’’

मेराज़ ने कठपुतली बनाने और उनको सही से चलाने की कला अपनी पत्नी से ही सीखी है। 

मेराज़ बताते हैं, ‘‘कपिल देव नाम के एक कलाकार ने लखनऊ में कठपुतली की कार्यशाला लगायीथी। एक महीने की कार्यशाला में मेरी पत्नी ने हिस्सा लिया और वो रोज जाती और कार्यशाला में जो भी होता आकर मुझे बताती। ऐसे मुझे भी कठपुतली के बारे में बहुत सी जानकारियां मिल गईं।’’ मनोरंजन के अन्य साधनों ने तो कठपुतली कला की लोकप्रियता को प्रभावित किया ही इसे महंगाई से भी धक्का लगा। 

ये पहलू समझाते हुए मेराज़ कहते हैं, ‘‘दूसरी कलाओं की तरह कठपुतली भी बढ़ती मंहगाई से प्रभावित हुई है। एक ब्रश 20 से 30 रुपए का आता है, रंग की एक डिब्बी भी 40-50 रुपए से कम की नहीं आती है। अब जरूरी सामान मंहगे होंगे तो कठपुतली बनाना भी महंगा होगा ही। लेकिन मेरा कठपुतली के प्रति लगाव मुझे रुकने नहीं देता।’’ 

मेराज़ आगे कहते हैं, ‘‘मेरे कुछ साथी पपेटियर हैं जो गाँवों में कई दिनों तक रुककर नाटक दिखाते हैं जिसके बदले गाँव वाले उन्हें राशन-पानी दे देते हैं। इसी से उनका गुजारा चलता है।’’

मेराज़ आलम बच्चों को कठपुतली बनाना और उनको नचाना भी सिखाते हैं। इस बारे में मेराज़ कहते हैं, ‘‘कठपुतली एक लोक कला हैं अगर इस पर ध्यान न दिया गया तो ये भी दूसरी कलाओं की तरह लुप्त हो जाएगी।’’ मेराज़ आगे कहते हैं, ‘‘मैं अब दूसरों को भी प्रशिक्षण देता हूं और मुझे विश्वास है कि भविष्य में कठपुतली की कला बहुत आगे तक जाएगी।’’

 

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