लफ्फाजी वाले, भ्रामक विज्ञापन दंडनीय अपराध हैं

Dr SB MisraDr SB Misra   6 Oct 2016 7:05 PM GMT

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लफ्फाजी वाले, भ्रामक विज्ञापन दंडनीय अपराध हैंलफ्फाजी वाले भ्रामक विज्ञापन

दो मिनट वाले मैगी विज्ञापन अब कम सुनने को मिलते हैं प्रतिबंध के कारण लेकिन हमारा सीमेंट ‘‘सस्ता नहीं सबसे अच्छा” अभी भी सुनाई देता है। सबसे अच्छा है इसका सबूत क्या है, सरकार और जनता को पूछना चाहिए, किस आधार पर कह रहे हैं।

खाद डालते ही फसल लहलहाने लगती है या मंजन करते ही अखरोट तोड़ने लगते हैं, या क्रीम लगाते ही गंजी खोपड़ी में बाल उगने लगते हैं अथवा टानिक पीते ही शीशे की दीवार चीर कर कूद जाते हैं अथवा एक बिस्किट खाते ही बच्चा किसी बलवान जवान को हरा देता है और बनियाइन पहनते ही लड़की चिपक कर खड़ी हो जाती है, ऐसे विज्ञापनों से बेची जा रही वस्तु के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती। विज्ञापनों की लफ्फाजी हर हाल में बन्द होनी चाहिए, यह धोखाधड़ी है और इसलिए अपराध है। उचित होता अपनी प्रोडक्ट के गुण, जांच रिपोर्ट के निष्कर्ष और विषेषज्ञों की राय बताते।

गोरा बनने की क्रीम बिकने लगी है। गाँवों में गोरा मतलब अंग्रेज। और हम कहते हैं कि रंगभेद गलत है। कुछ समय पहले तक महिलाओं ने हजारों साल पुरानी बच्चों को स्तनपान कराने की प्रथा बन्द सी कर दी थी और दूध पाउडर चल पड़ा था। अब डॉक्टरों को ज्ञान आया है और अच्छी पहल की है कि स्तनपान की भारतीय प्रथा सर्वोत्तम है। किसानों ने अंग्रेजी खाद के विज्ञापनों के जाल में फंसकर अपने खेत बर्बाद कर दिए। कीटनाशक, खरपतवारनाशक रसायनों के दुष्प्रभाव का ज्ञान अब हुआ है।

विज्ञापनों का उद्देश्य इतना ही होना चाहिए कि वे बिक्री वाली वस्तु के विषय में पूरी जानकारी उपलब्ध कराएं न कि उसके झूठे गुणगान करें। जब एक सीमेन्ट बेचने वाला कहता है ‘‘सस्ता नहीं सबसे अच्छा” तो उससे पूछा जाना चाहिए कि ऐसा कहने का तुम्हारा आधार क्या है। उचित होगा वह अपनी सीमेन्ट की बाइंडिंग स्ट्रेन्थ यानी जोड़ने की ताकत बता दें। पता चल जाएगा कि इससे अच्छी किसी और की सीमेन्ट है या नहीं।

आप ने एक विज्ञापन देखा होगा जिसमें एक हृष्ट-पुष्ट आदमी केवल अन्डरवियर पहन कर खड़ा है और एक सुन्दर महिला उसके बदन पर हाथ रखे है या एक आदमी केवल बनियाइन पहने खड़ा है और एक लड़की आकर सट जाती है। चड्ढी-बनियाइन बेचने वाले ये विज्ञापन कहना क्या चाहते है। क्या महिलाएं उनकी तरफ आकर्षित होती हैं जो केवल अन्डरवियर अथवा केवल बनियाइन पहनते हैं। ऐसे विज्ञापन जिनमें महिलाओं को बिना औचित्य के दिखाकर सेक्स भावनाओं का उद्रेक किया गया हो दंडनीय अपराधों की श्रेणी में डालना चाहिए। चाहे कुदाल फावड़ा बेचना हो एक लड़की जरूर दिखाएंगे, सेक्स का फूहड़पन परोसने के लिए।

अमेरिका, इंग्लैंड और कनाडा में व्यवस्था है भ्रामक और झूठे विज्ञापन हटवाने की। वहां उपभोक्ताओं को ‘‘कंज्यूमर डायरेक्ट” के माध्यम से व्यावहारिक सलाह की व्यवस्था है। हमारे देश में भी ऐसे कानून हैं जो झूठे, भ्रामक और धोखेबाज विज्ञापनों पर अंकुश लगाने के लिए बने हैं लेकिन शायद ऐसी संस्था नहीं कि झूठे वादे करने वाले विज्ञापनों पर कड़ी नजर रखे और अपने आप संज्ञान में ले। उदारीकरण के बाद तो ऐसे विज्ञापनों की संख्या बहुत बढ़ी है।

हमारे देश में ऐडवरटाइजिंग स्टैंडर्डस काउंसिल ऑफ इंडिया नाम की स्वैच्छिक संस्था है परन्तु उसके पास सेंसर बोर्ड अथवा इलेक्शन कोड जैसे दिशा निर्देश लागू करने के लिए कोई अधिकार नहीं है। कुछ कानून जैसे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 और मोनोपली ऐंड रिस्ट्रिक्टिव प्रेक्टिसेज अधिनियम 1969 तभी लागू होते हैं जब खरीदार जोखिम उठा चुकता है परन्तु भावी क्रेताओं को झूठे विज्ञापनों के जाल में फंसने से बचाने का नियम नहीं। शूगर फ्री के एक विज्ञापन में एक महिला एक अधेड़ पुरुष के गाल नोंचते हुए कहती है ‘‘इक्वल इक्वल”, इससे क्या सन्देश मिला ?

विदेशी कम्पनियां भारत में टिड्डी की तरह आ रही हैं जिनके विज्ञापनों पर अंकुश लगाना सरल नहीं होगा। हमारे देश में झूठे सच्चे वादों के साथ विज्ञापन संभव हैं क्योंकि इन पर कोई प्रभावशाली नियंत्रण नहीं है। मेक इन इंडिया के युग में अब समय आ गया है कि उत्पादन करने वाली कम्पनी अपना सामान बाजार में उतारने के पहले अपने उत्पादों की गुणवत्ता एक सक्षम आयोग के सामने प्रमाणित करे जिस प्रकार सेंसर बोर्ड के सामने फिल्म प्रस्तुत होती है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो हमेशा ही उपभोक्ता ठगा जाता रहेगा।

   

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