आदर्श गाँव का मतलब छोटा शहर नहीं होना चाहिए

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आदर्श गाँव का मतलब छोटा शहर नहीं होना चाहिएनरेंद्र मोदी

महात्मा गांधी ने कहा था यदि गाँव समाप्त हुए तो भारत समाप्त हो जाएगा। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में कम से कम एक आदर्श गाँव स्थापित करने का सुझाव सांसदों को देकर महात्मा गांधी की चेतावनी पर ध्यान दिया है। इस प्रकार 790 आदर्श गाँव तो बन जाएंगे और यदि प्रान्तीय सरकारें भी अपने विधायकों को ऐसा ही सुझाव दें और उसे लागू किया जाए तो लगभग 4000 और आदर्श गाँव बन सकते हैं। आदर्श गाँव का मतलब होगा जीवन की भौतिक सुविधाओं के साथ ही गाँव की सरलता, ईमानदारी, परस्पर सौहार्द्र और सामूहिक सोच जो पहले हुआ करती थी।

गांधी जी के विचारों को मानें तो ग्राम स्वराज के अन्तर्गत सभी गाँव स्वावलम्बी होने चाहिए और प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग में ग्रामीण का निर्णय ही नहीं ग्रामीणों का स्वामित्व भी होना चाहिए। महाराष्ट्र में एक आदर्श ग्राम योजना चली थी और 300 विकासखंडों में इतने ही गाँवों को आदर्श ग्राम योजना के अन्तर्गत लिया गया था। पता नहीं इन गाँवों का क्या हुआ। उत्तर प्रदेश में भी अम्बेडकर, लोहिया और जनेश्वर मिश्र के नामों से ऐसी ही योजनाएं चली हैं लेकिन इन्हें आदर्श गाँव नहीं कहा जा सकता।

गाँव को आदर्श तभी कहा जाएगा जब वहां के लोगों को मजदूरी करने के लिए शहरों को पलायन ना करना पड़े, साधारण तौर पर दवाई इलाज के लिए शहरी अस्पतालों की ओर न भागना पड़े और बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए शहर के विद्यालयों की ओर ना जाना पड़े। जहां स्थानीय सामग्री का उपयोग करके भवन निर्माण होता हो, अपने उपयोग लायक कपड़े बनते हों, शुद्ध जल और प्राणवायु उपलब्ध हो, वृक्षों की हरियाली हो, दूध घी की बहुतायत हो और फसल तथा पशुओं के लिए पर्याप्त जल संचय होता हो।

पंचायतों की पुरानी भूमिका वापस आए, गाँव की विशेषताएं समझ कर उन्हें जीवित रखा जाए। कच्चे घर बनते थे तो तालाब अपने आप बन जाते थे परन्तु उन घरों की दीवारों और छप्परों को टिकाऊ बनाने के लिए कोई रिसर्च नहीं हुई और वहां भी तपन और ठंड भरे पक्के मकान बनने लगे। बिजली वाले पंखों से काम चल सकता था लेकिन गाँवों में कूलर और एसी चलने लगे। हल और बैलगाड़ी की गति धीमी है परन्तु उससे ऊर्जा संकट नहीं पैदा होता। इन पर रिसर्च न करके इन्हें पुनर्जीवित किया जाए।

जब हम वैकल्पिक ऊर्जा जैसे सौर, पवन और बायोगैस का भरपूर उत्पादन और उपयोग कर सकते हैं तो मुफ्त बिजली देकर ग्रामीणों का ईमान खराब करने की आवश्यकता नहीं है और न खैरात देकर उन्हें भिखारी बनाने की जरूरत है। शहरी मानसिकता के चलते ग्रामीण नौजवानों में अपने पारम्परिक व्यवसायों के प्रति अरुचि पैदा हो गई है और वे डेयरी, मुर्गी पालन, मछली पालन जैसे कामों से दूर भागते हैं क्योंकि इन कामों को साफ सुथरा बनाने के लिए रिसर्च नहीं हुई।

किसान गेहूं पैदा करता है और व्यापारी को 13 रुपया प्रति किलो बेचता है जो उसकी दलिया बनाकर दोगुने दाम वसूलता है, किसान धान पैदा करके 10 रुपया प्रति किलो बेचता है और उद्योगपति उसके चावल की पालिश निकाल कर टॅानिक बनाता है, ग्रामीण फल और सब्जी उगाता है और सड़ने के डर से किसी भाव बेच देता है, उद्योगपति उन्हें डब्बों में बन्द करके अथवा जैम जेली बनाकर पूरा लाभ कमाता है। यह सभी काम गाँव में उचित प्रशिक्षण देकर गाँववालों के द्वारा हो सकते है, गाँव को स्वावलम्बी बनाया जा सकता है। गाँवों में सदा से आर्गेनिक खेती ही होती थी लेकिन रसायनिक खादों ने खेतों की मिट्टी का स्वास्थ्य खराब कर दिया, चारे की कमी ने दुधारू जानवर घटा दिए, दूध दही की जगह ग्रामीण नौजवानों ने चाय की राह पकड़ ली। यहां तक कि गाँवों में पीने के पानी की कठिनाई होने वाली है क्योंकि मुफ्त बोरिंग और बिजली से पीने योग्य पानी को मछली पालन, सिंचाई और बागबानी पर खर्च किया जाता है। भूजल को बचाकर पीने के लिए और भूतल पर जल संग्रह करके सिंचाई और जानवरों के लिए उपयोग करके इससे बचा जा सकता है।

इस प्रकार आदर्श गाँव छोटा शहर नहीं होगा, वह प्रकृति की गोद में पलता हुआ शिशु होगा। हजारों साल के अनुभव का लाभ लेकर पुरानी नींव पर नया महल होगा। पुरातन को युगानुकूल बनाकर हरियाली भरे वातावरण में परिवार भाव से रहता हुआ जन समूह होगा। ऐसा स्थान जिसके लिए शहर के लोग कहेंगे चलो गाँव की ओर चलें।

     

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