दिशाहीन माध्यमिक शिक्षा कहां ले जाएगी छात्रों को

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दिशाहीन माध्यमिक शिक्षा कहां ले जाएगी छात्रों कोदिशाहीन माध्यमिक शिक्षा कहां ले जाएगी छात्रों को

देश में साक्षरता पर काफी जोर दिया गया है और कक्षा 8 तक की पढ़ाई का उद्देश्य नहीं सोचना, वह साक्षरता मिशन का भाग है। लेकिन उसके बाद की पढ़ाई साक्षरता नहीं उद्देश्यपूर्ण होनी चाहिए। माध्यमिक शिक्षा यानी कक्षा 9 से 12 के बाद छात्र-छात्राओं के अधिकांश छात्रों के सामने कोई मंजिल नहीं होती, वे आगे की पढ़ाई के लिए डिग्री कालेज अथवा विश्वविद्यालय की डगर पकड़ लेते हैं। उच्च शिक्षा अथवा रिसर्च उनके मन का कॅरियर नहीं होता लेकिन इससे बेहतर करने को कुछ होता भी नहीं। बीए या बीएससी में नाम लिखा लिया और निकल आया टाइम पास का ज़रिया। शिक्षा प्रबंधन देखने वालों को पता है कि छात्र जो ज्ञान हासिल करते हैं उसके आधार पर मनपसन्द जीवन यापन की राह नहीं खेाजी जा सकती।

माध्यमिक शिक्षा में विसंगति का यह हाल है कि कहीं तो कक्षा 12 के बाद डिग्री यानी स्नातक कक्षाओं में प्रवेश मिलता है, तो कुछ प्रदेशों में कक्षा 11 के बाद यूनीवर्सिटी में प्रवेश मिल जाता है, कहीं डिग्री कोर्स तीन साल का है तो कहीं चार साल का। वर्ष 2009 में माध्यमिक शिक्षा अभियान के अन्तर्गत शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए कुछ चिन्तन हुआ था। प्रत्येक अध्यापक पर छात्रों की संख्या 31 करने का लक्ष्य बनाया गया, अतिरिक्त भवन, अध्यापक, पुस्तकालय और प्रयोगशालाओं की व्यवस्था की जानी थी। ग्रामीण कालेजों में ये लक्ष्य मुगेरीलाल के सपने से अधिक कुछ नहीं। वहां कालेजों और अध्यापकों की कमी के कारण यह शिक्षक-छात्र अनुपात सम्भव ही नहीं।

इन्टरमीडिएट बोर्ड की परीक्षाएं मार्च में समाप्त होने के बाद परीक्षाफल के इन्तजार में तीन महीने का समय यूं ही बीत जाता है। अब सरकारी निर्णय हुआ कि पहली अप्रैल से ही नया सत्र आरम्भ हो जाए। लेकिन तीन महीना अगली कक्षा में बैठने के बाद जब पता चलेगा छात्र फेल है तो उसे अच्छा नहीं लगेगा। जिन विषयों में छात्र फेल है उनकी पुनः परीक्षा का प्रावधान तो है परन्तु छात्र यदि असफल कोर्स की तैयारी में लगा रहा तो अगली कक्षा की तैयारी कैसे करेगा और फिर विश्वविद्यालय की पढ़ाई तो पहले की तरह जुलाई अगस्त में ही आरम्भ होती है।

सच्चाई यह है कि जो लोग उच्च शिक्षा या रिसर्च में रुचि नहीं रखते उन्हें कक्षा 12 के बाद जीवन यापन का मन पसन्द रास्ता नहीं मिलता। आखिर प्रत्येक छात्र विश्वविद्यालय में दाखिला क्यों ले। उसके सामने विकल्प होना चाहिए पढ़ते हुए कमाने का अथवा आन जॉब ट्रेनिंग का। आजादी के 70 साल बीत गए लेकिन शिक्षा नीति स्पष्ट नहीं है। जब तक हर एक को क्षमता, योग्यता के अनुसार काम नहीं मिलेगा तब तक टाइम पास के लिए विश्वविद्यालयों में भीड़ और अराजकता बढ़ती रहेगी।

अध्यापकों की नौकरी पक्की है और उन्हें अपना व्यापार चलाने, खेती करने, कोचिंग चलाने और यहां तक कि हड़ताल करने की आजादी है। ऐसी हालत में गाँवों के विद्यार्थियों को प्रायः एकलव्य की तरह स्वयं संघर्ष करते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। इस बाधा को दूर करने के लिए सुविधा सम्पन्न छात्रावास चाहिए परन्तु गरीब परिवारों की आर्थिक सीमाएं और छात्रावासों की कमी इसमें बाधक हैं।

छात्रों की परीक्षा और मूल्यांकन जो केन्द्रीय व्यवस्था में होता है, दोषपूर्ण है। इसमें परीक्षक लोग एक हाल में एकत्रित होते हैं और प्रति कापी मानदेय कमाते हैं। उनका प्रयास रहता है दिन भर में अधिक से अधिक कापियां जांची जाएं। इस प्रकार के थोक मूल्यांकन में नुकसान छात्रों का ही होता है। यह समय घट सकता है यदि परीक्षाएं दिन की दोनों पारियों में हो और 10 दिन में परीक्षा समाप्त हो जाए। अब 40 दिन लगते हैं परीक्षा में, इतने ही दिन लगते हैं प्रवेश में। आज के डिजिटल युग में मूल्यांकन और प्रवेश प्रक्रिया को सरल तथा कार्यक्षम बनाया जा सकता है।

ऐसी परीक्षाओं के बाद जो प्रमाणपत्र हासिल होते हैं वे जीवन में हमें कुछ नहीं देते। नौकरी देने वाली संस्थाएं अलग से अपनी परीक्षा कराती हैं जिस पर वे भरोसा करती हैं। छात्रों की रुचि को ध्यान में रखते हुए, इन्टरमीडिएट में दो प्रकार के कोर्स होने चाहिए, एक तो शुद्ध रूप से व्यावसायिक जिसे पूरा करके तुरन्त अपना काम आरम्भ कर सकें या नौकरी मिल सके। दूसरे सैद्धान्तिक जिसमें छात्र को मौलिक चिन्तन की प्रेरणा मिले, शोध औार उच्च शिक्षा के लिए वैचारिक सोच विकसित हो।

    

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