धड़क जो धड़कनों में उतरेगी आहिस्ता-आहिस्ता

कई छोटे-छोटे प्यार के पलों से धड़क सजी हुई है। वो हमारी आपकी तरह उन दोनों की भी आपस में लड़ाई होती है और फिर गले लग कर फूट-फूट कर रोते भी हैं। वो प्रेम में लड़ना और लड़ने के बाद महबूब की छाती से सिर कर रोना ही तो प्रेम है।

अनु रॉयअनु रॉय   23 July 2018 7:51 AM GMT

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धड़क जो धड़कनों में उतरेगी आहिस्ता-आहिस्तासाभार- इंटरनेट

"जो मेरे दिल को दिल बनाती है

तेरे नाम की कोई धड़क है ना।"

सच है न। बिना प्रेम के हम क्या हम होते जो आज हैं, नहीं। प्रेम में हम रचते हैं ख़ुद को नए सिरे से। हम महबूब बन जाते हैं और महबूब हम।

प्रेम कुछ ऐसा ही है न। हर चीज़ के मायने बदल कर रख देता है ये। वो जिन चीज़ों को हम सिरे से खारिज करते आये होते हैं, उन्हीं को जीने लग जाते हैं।अपनी हर चीज़ को ताक पर रख महबूब के सपनों से हम अपनी आँखों को भरने लग जाते हैं। उनके हाथों की लक़ीरों में हम अपनी तक़दीर तलाशने लगते हैं।वो कुछ कहे इसके पहले हम सुन लेते हैं उनकी धड़कनों को और फिर बिना कुछ कहे पूरी करते हैं उनकी ख्वाहिशें।

कुछ ऐसी ही प्रेम की कहानी है 'धड़क'। जिसमें पार्थवी हर वो चीज़ करती है जो मधु को पसंद हो और मधु हर वो कोशिश करता है जिससे पार्थवी के चेहरे पर मुस्कान आ जाये। पार्थवी जो एक ऊँची जाति की अमीर लड़की है, उसे प्रेम एक छोटी जाति के ग़रीब लड़के से हो जाता है। पार्थवी के पिता को ये बात नाग़वार गुज़रती है और वो लड़के को जेल में रखवा देते हैं। पार्थवी जेल से लड़के को भगा कर अपने साथ कोलकत्ता ले आती है। वहां दोनों शादी कर लेते हैं। इसके बाद जो होता है उसे जानने के लिए फिल्म देखिये।

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इतना पढ़ कर आपको भी लग ही गया होगा कि वही टिपिकल क्लीशे कहानी है। ऊपर से सैराट की रीमेक। तो मैं पहले ही क्लियर कर दूँ कि मैंने सैराट नहीं देखी है तो मैंने 'धड़क' की तुलना सैराट से नहीं की।

'धड़क' मेरे लिए एक ऐसी प्रेम-कहानी है जिसमें अनगिनत प्यार के छोटे-छोटे पल हैं। जो लगभग हर प्रेमी जोड़े के जीवन में आते हैं। फिल्म का लगभग हर दृश्य आपको कहीं न कहीं ख़ुद से जोड़ कर रखेगा। चाहे वो शुरुआत में पार्थवी को मधु का इंग्लिश गाना गा कर दोस्तों के सामने दिखाने के लिए कहना हो या फिर अपना फोन नंबर पूरा नहीं दे कर मधु को बाकि का नंबर पता लगाने के लिए छेड़ना।

फिर मधु का पार्थवी से शर्माते हुए 'किस्स' के लिए पूछना और पार्थवी का झिझक छिपाने के लिए उसका मज़ाक उड़ा देना। हर प्रेमी जोड़े की तरह मधु का सपना देखना कि वो पार्थवी के लिए बड़ा सा बंगला बनाएगा और पार्थवी का इस बात को खारिज़ कर देना हर ये कहते हुए कि, "मुझे कोठी नहीं चाहिए मधु।मुझे हम दोनों का घर चाहिए। जिसमें रोटियां सिर्फ हम दोनों के लिए बनें।"

नहीं, हम भी तो यही चाहते हैं न। हमें हमारा महबूब मिल जाए। भले ही बड़ा सा घर न हो एक छोटा सा कमरा हो। जिसकी दीवारों को हम दोनों ने मिल कर अपने प्रेम के रंगों से रंगा हो। बड़ा सा पलंग, नहीं नीचे जमीन पर रखा हुआ एक चादर हो जिस पर सोते हुए हम महबूब की धड़कनों को गिन पाएं। इससे ज़्यादा हम चाहते ही क्या हैं।

ऐसे ही कई-कई छोटे-छोटे प्यार के पलों से धड़क सजी हुई है। वो हमारी आपकी तरह उन दोनों की भी आपस में लड़ाई होती है और फिर गले लग कर फूट-फूट कर रोते भी हैं। वो प्रेम में लड़ना और लड़ने के बाद महबूब की छाती से सिर कर रोना ही तो प्रेम है।

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धड़क इसी प्रेम की नुमाइंदगी करता है।

अब आते हैं फिल्म के ट्रीटमेंट और कहानी के ऊपर। तो जैसा मैंने बताया भी है कि कहानी क्लीशे है मगर शशांक खेतान ने इसको अपने रंग से रंगा है।

फिल्म उदयपुर से शुरू हो नागपुर होते हुए कोलकात्ता पहुंचती है। धर्मा प्रोडक्शन की फिल्मों का असर दिखता है उदयपुर पर। उदयपुर को जिस खूबूसरती से धड़क में दिखाया गया है शायद ही किसी और फिल्म वो दिखाया गया हो। कोलकात्ता शहर को भी जगा हुआ शहर दिखाने में शशांक क़ामयाब रहें हैं।

फिल्म में संगीत दिया हैं अजय-अतुल ने। वो जान है इस फिल्म की। धड़क धड़कनों में उतर पा रही है इसके संगीत की वज़ह से। अमिताभ भटाचार्य ने जिस खूबसूरती से इसका टाइटल ट्रैक लिखा है न, आने वाले कई सालों तक हर महबूब अपनी महबूबा के लिए जरूर गुनगुनायेगा और महबूबा सपने बुनेगी उन्हें जी कर। महसूस करिए ज़रा इन लफ़्ज़ों को,

"तेरे ही लिए लाऊंगी पिया सोलह साल के सावन जोड़ के

प्यार से थामना, डोर बारीक है सात जन्मों की ये पहली तारीख है।"

हैं न ख़ूबसूरत। सपनों से भरा हुआ। हम जब प्रेम में पड़ते हैं तो यही सोचते हैं न कि सात जन्म अगर होते हैं तो ये पहला से ले कर आख़िरी तक का साथ हो।

संगीत के साथ-साथ फ़िल्म के कॉस्ट्यूम पर भी बारीक़ी से काम किया है शशांक ने। डिज़ाइनर मनीष-मल्होत्रा का काम जान्हवी कपूर को पार्थवी बनाता है।

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कपड़ों के साथ-साथ अपनी अभिनय से भी जान्हवी कपूर ने प्रभावित किया है। एक इनोसेंस झलकता है उनकी आँखों से।उम्मीदें हैं उनसे बहुत। पहली फिल्म के हिसाब से उन्होनें बेहतरीन काम किया है। श्री देवी से तुलना बेमानी है। जान्हवी को लम्बा सफर तय करना है। यही बात उनके को-स्टार ईशान खट्टर के लिए भी कही जा सकती हैं। फिल्म के फ्लो में वो बहते नज़र आये हैं। राजस्थानी एक्सेंट कहीं भी थोपा हुआ नहीं लगा है दोनों पर।

जो आपने भी मेरी तरह सैराट नहीं देखा है तो धड़क देखी जा सकती है। हाँ, जैसा की फ़िल्म को कास्ट-बेस्ड स्टोरी बता कर प्रमोट किया जा रहा मगर फ़िल्म में कहीं भी कास्ट को ले कर डिस्क्रिमिनेशन को दिखाने में निर्देशक चूक गए हैं। वो बात खटक जाती है। बाकि फ़िल्म को एक बार तो देखा जा ही सकता है।इस लाइन के लिए तो कम से कम,

" तू घटा है फुहार की

मैं घड़ी इंतज़ार की

अपना मिलना लिखा

इसी बरस है ना."

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