फसल का दाम गिरने पर तैयारी स्टॉक मार्केट गिरने जैसी तेज़ क्यों नहीं होती?

Devinder SharmaDevinder Sharma   11 Oct 2016 8:20 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
फसल का दाम गिरने पर तैयारी स्टॉक मार्केट गिरने जैसी तेज़ क्यों नहीं होती?देवेंद्र शर्मा Devinder Sharma

अभी बासमती का समय नहीं है। जैसे-जैसे इस लंबे दाने वाले खुशबूदार अनाज की खेती का समय शुरू हो रहा, किसानों पर संकट एक बार फिर गहराता जा रहा है। "मैंने बासमती की फसल 1,800 प्रति कुंतल में बेच दी है," कुरुक्षेत्र ज़िले के किसान राज कुमार ने आगे कहा, "2013 में बासमती का रेट 4,200 तक पहुंच गया था लेकिन फिर तब से अब तक बासमती के खरीददार कम हो गए हैं।"

मैंने बासमती की फसल 1,800 प्रति कुंतल में बेच दी है। 2013 में बासमती का रेट 4,200 तक पहुंच गया था लेकिन फिर तब से अब तक बासमती के खरीददार कम हो गए हैं।
राज कुमार, बासमती किसान, कुरुक्षेत्र

बासमती के किसान पिछले तीन सालों से लगातार अनिश्चितता की मा झेल रहे हैं। लेकिन अगर आपको लगता कि बासमती किसानों के आंसू पोछने सरकार आगे आएगी तो आप गलत हैं। इन कारकों को नियंत्रित करने में सरकार पहले भी विफल रही है आगे भी रहेगी। किसान को रोने के लिए अकेले छोड़ दिया जाएगा।

उदाहरण के तौर पर कुछ हफ्तों पहले मूंग के दाम इस आशा में कम हो गए कि आने वाली फसल बंपर होने वाली है। वर्तमान खरीफ में मूंग का रकबा 36 प्रतिशत बढ़ते ही इसका दाम 3,200 रु प्रति कुंतल तक घट गया, जो 4,000 के ऊपर था। जबकि, सरकार ने इस दाल की खरीद का जो न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है वो 5,225 रु प्रति कुंतल है। इसमें 425 रुपए का बोनस भी शामिल है। दो साल तक लगातार भयंकर मूल्यवृद्धि से सरकार के लिए संकट खड़ा कर चुकी दलहन की फसल, सरकार की प्राथमिकता बनी हुई है। इसीलिए सरकार ने तेजी से कदम उठाते हुए किसानों की सहकारी कंपनी नाफेड और एफसीआई को हर तरह की दलहन खरीदने का आदेश दे दिया, हालांकि यहां भी प्राथमिक उद्देश्य बफर स्टॉक बनाना था।

ऐसे समय में जब बासमती धान और दलहन के मूल्य इतने कम हो चुके हैं, टमाटर के मूल्य गिरने की ख़बरें भी आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से आने लगी हैं। थोक दाम जब चार रु किलो तक गिर गया तो अनंतपुर ज़िले के किसानों ने तो अपना टमाटर सड़कों पर फेंक दिया। किसानों का ऐसा करना रोज़ का काम हो गया है तो मैं नहीं चौंका। ना सरकार को ही कोई फर्क पड़ा।

अब इस घटनाक्रम की तुलना स्टॉक मार्केट की दरों के घटने से करिए। अगस्त 2015 में छोटी सी गिरावट के तुरंत बाद ही वित्त मंत्री अरुण जेटली को प्रेस कांफ्रेंस करके निवेशकों को विश्वास दिलाना पड़ा था कि चिंता की बात नहीं है सरकार नज़र बनाए है। इसके तुरुंत बाद उन्होंने एक समूह बनाया था जो दिन में तीन बार उन्हें स्थिति बताता था। वित्त मंत्री ने इस स्थित में जो चिंता और प्रतिक्रिया दिखाई वो शायद वैसी ही थी जैसी रक्षा मंत्री युद्ध की स्थित में दिखाते।

ज़ाहिर है, सवाल प्राथमिकता का है।

किसान प्राथमिकता वाली योजनाओं से बाहर ही रहते हैं। इसे समझने के लिए टमाटर का ही केस देखते हैं। टमाटर की मूल्यों में देशव्यापी गिरावट कुछ महीनों पहले भी देखी गई थी, मार्च मध्य और फिर मई की शुरुआत में। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक तक।

फरवरी में हैदराबाद से प्रकाशिक दैनिक अख़बार 'द हंस' में छपा था, "नलगोण्डा ज़िले के टमाटर उत्पादक संकट में आ गये हैं क्योंकि बंपर आवाक के चलते दाम तीन रु किलो तक घट चुके हैं। छत्तीसगढ़ के किसानों ने टमाटर को पेड़ों पर ही सड़ने दिया क्योंकि दाम इतने कम थे कि तुड़ाई का खर्च भी न निकल पाता।" कुछ महीनों बाद अप्रैल में फाइनेंशियल एक्सप्रेस ने भी टमाटर की दामों में गिरावट को रिपोर्ट किया।

अगर आप को लगता है कि 2016 टमाटर किसानों के लिए अकेला ऐसा साल था जिसमें ज्यादा उत्पादन की वजह से उन्हें दिक्कत आई तो ये जान लीजए: पिछले पांच सालों में 2011 से 2015 तक स्थिति ऐसी ही रही है। मीडिया में ख़बरें खोजें तो पाएंगे कि हर साल वही संकट है बस साल बदलता रहा।

सिर्फ टमाटर किसान ही नहीं इस साल प्याज़ के किसानों को भी बंपर उपज के चलते कम दाम का संकट झेलना पड़ रहा है। इसी 22 सितम्बर की बात करें तो किसानों को आंध्र प्रदेश के कुरनूल बाज़ार में प्रति कुंतल 70 से 200 रु का दाम मिला। सिर्फ सितम्बर ही नहीं प्याज़ के दामों में गिरावट इसी साल फरवरी के दौरान भी देखी गई थी।

राष्ट्रीय मीडिया ने भी तब जाकर ध्यान दिया जब एक किसान ने दावा किया कि पुणे के एपीएमसी बाज़ार में एक टन प्याज़ बेचकर उसके हाथ सिर्फ एक रुपए आया।

राष्ट्रीय मीडिया ने भी तब जाकर ध्यान दिया जब एक किसान ने दावा किया कि पुणे के एपीएमसी बाज़ार में एक टन प्याज़ बेचकर उसके हाथ सिर्फ एक रुपए आया। "हम हर रोज़ सूखा प्रभावित क्षेत्रों में किसान आत्महत्याओं की ख़बरे पढ़ते हैं। प्याज़ के लगातार घटते दामों को देखकर लगता है कि प्याज़ के किसानों का भी यह हश्र हो सकता है," देवीदास परबहाने ने पीटीआई को बताया था। ये मार्च की बात है। इसके कुछ समय बाद ही टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी रवींद्र माधिकर नाम के एक किसान की कहानी छापी थी जिसे लासूर थोक बाज़ार में 450 किलो छोटे प्याज़ बेचकर मात्र 175 रुपए मिले थे। माधिकर इस सदमें से कई दिन तक नहीं उबर पाया।

तीन ऐसे वर्षों के बाद जिनमें प्याज़ के दाम अचानक ऊंचे हो गए और मीडिया महंगाई का रोना रोने लगा, सरकार को दाम घटाने के लिए कुछ कदम उठाने पड़े। लेकिन, जब किसी फसल के दाम गिरते हैं तो उसका प्रभाव लाखों किसानों पर एक साथ पड़ता है। छोटे और मंझोले किसान तो इससे हाशिए की ओर थोडा और धकेल दिये जाते हैं। और, टीवी चैनल इस पूरे घटनाक्रम में बड़ी आसानी से किसानों से मुंह मोड़कर अलग दिशा में देखने लगते हैं। मैंने कभी टीवी मीडिया को त्रासदी के समय में किसानों के साथ खड़ा नहीं पाया।

मैं तो उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूं जब कृषि मंत्री भी वित्त मंत्री की तरह तुरंत एक समूह बनाए जो किसानों को मिल रहे थोक मूल्यों पर नज़र रखे। वो दिन जब कृषि मंत्री जनता के बीच आकर ये बताएं कि वे मूल्यों को नियंत्रित करने के क्या कदम उठा रहे हैं और साथ ही त्रासदी से जूझ रहे किसानों के लिए एक प्रधानमंत्री किसान रक्षा कोष बनाएं।

(लेखक खाद्य एवं कृषि नीति विश्लेषक हैं)

     

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.