किसानों के लिए भी तय हो एक आय

Devinder Sharma | Jan 14, 2017, 16:16 IST
Farmers
हम एक ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बनाते कि किसानों को भी महीने की बंधी रकम मिले, एक तरह का घर चलाने के लिए हरेक महीने की आय? हो भी क्यों न वे देश के लिए अनाज पैदा करते हैं और उसका अंतिम मूल्य सरकार तय करती है। हालांकि यह इतना आसान नहीं है। जब मैंने किसानों की मासिक आय सुनिश्चित करने के लिए आय आयोग बनाने की मांग उठाई थी तो नीति निर्धारकों ने उस पर ढेरों सवाल खड़े कर दिए थे।


मैं त्रिशूर के केरल कृषि विश्वविद्यालय में दो दिन की कार्यशाला में भाग लेकर लौट रहा हूं जहां किसानों की हरेक माह बंधी आय सुनिश्चित किए जाने पर चर्चा चल रही है। इस कार्यशाला के नतीजे पर गौर करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए मंथन चल रहा है।

नोटबंदी से तबाह किसानों की आय में 50 से 70 फीसदी गिरावट आई है। वे चुपचाप इसे झेल गए लेकिन छोटे किसानों को यह कई महीनों, वर्षों तक परेशान कर सकता है। वहीं सरकारी और निजी क्षेत्र में नौकरी करने वालों की तनख्वाह इससे अछूती है क्योंकि वह बंधी आय है। उन्हें माह में यह आय मिलती रहेगी।

इसमें कुछ गलत नहीं है लेकिन अगर कर्मचारियों को महीने की बंधी रकम दी जा सकती है तो हम एक ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बनाते कि किसानों को भी महीने की बंधी रकम मिले, एक तरह का घर चलाने के लिए हरेक महीने की आय? हो भी क्यों न वे देश के लिए अनाज पैदा करते हैं और उसका अंतिम मूल्य सरकार तय करती है। केरल में हाल में हुई कार्यशाला में मैं, 10 अर्थशास्त्री और शोधकर्ता हम इसी बात का मंथन कर रहे थे।

हालांकि यह इतना आसान नहीं है। जब मैंने किसानों की मासिक आय सुनिश्चित करने के लिए आय आयोग बनाने की मांग उठाई थी तो नीति निर्धारकों ने उस पर ढेरों सवाल खड़े कर दिए थे। ज्यादातर लोग किसानों की बंधी आय पर राजी हैं लेकिन इसे कैसे अंजाम दिया जाए इसको लेकर परेशानी है? मुझसे यह सवाल कई बार पूछा गया है।

केरल की कार्यशाला दूसरा प्रयास है जब मैंने ऐसी व्यवस्था या फार्मूला बनाने की हिमायत की ताकि किसानों को न्यूनतम बंधी आय सुनिश्चित हो सके। बीते साल नवंबर में हैदराबाद में मैंने शोधकर्ताओं, अर्थशास्त्रियों और एनजीओ के नेतृत्व के दल के साथ तीन दिन तक इस पर मंथन किया था। किसानों के लिए हैदराबाद की कार्यशाला से एक अच्छी खबर यह है कि वहां के मंथन से ढेरों अच्छे परिणाम सामने आए। हम ऐसा ढांचा बनाने में कामयाब रहे जिसके अंतर्गत किसानों की आय का आकलन हो सके और कुछ संभावनाएं भी पेश कीं। मुझे उम्मीद है कि मार्च तक हम किसानों की आय तय करने के लिए एक ठोस रूपरेखा उपलब्ध करा पाएं।

केरल की कार्यशाला में एक नई बात और निकल कर आई वह यह कि किसान जो पर्यावरण की सेहत सुधारने में योगदान कर रहे हैं उसके लिए उन्हें आर्थिक लाभ दिया जाना चाहिए। जैसे वन, दलदल और यहां तक की नदियों के रखरखाव के लिए मुद्रा संबंधी आकलन होता है, वैसे ही केरल की कार्यशाला में पहली बार किसानों की खेती से पर्यावरण को पहुंचने वाले फायदे को आर्थिक लाभ में परिवर्तित करने का प्रयास फलीभूत हुआ। अब तक किसानों को आर्थिक लाभ देने के लिए इस दिशा में कोई प्रयास नहीं हुआ।

इस मुद्दे पर आगे बात करने से पहले आइए खेती से होने वाली साधारण आय पर गौर फरमाते हैं। आर्थिक सर्वे 2016 में बताया गया है कि खेती से किसान की औसत आय 20 हजार रुपए सालाना है। इसमें भारत के 17 राज्यों के सभी किसान शामिल हैं। सरकार ने पांच साल में किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया है। यह आय गरीबी रेखा के स्तर से काफी नीचे है और सभी मानकों के आकलन के बाद कहा जा सकता है कि यह तो रोजी-रोटी चलाने लायक आय तक नहीं है-जिस आय पर किसान परिवार जीवनयापन कर रहे लेकिन हमें बताया जा रहा है सरकार लागत कम करके पैदावार बढ़ाने का प्रयास कर रही है। पैदावार बढ़ाने के लिए सिंचाई का दायरा बढ़ाना सबसे ज्यादा जरूरी है, इस पर भी जोर दिया जाता रहा है। हरेक जगह जहां मैं जाता हूं मैं पाता हूं कि मंत्री, नीति निर्माता और अर्थशास्त्री इसे लगातार दोहरा रहे हैं।

मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि फसल उत्पादकता देश के विभिन्न हिस्सों में कम है लेकिन यह अकेले ऐसा कारक नहीं है जिसने देश को चौकाने वाले कृषि संकट में लाकर जकड़ दिया। अगर फसल उत्पादकता अकेला ऐसा कारक होता तो क्यों पंजाब के किसान आत्महत्या कर रहे हैं। 2015 में पंजाब में 449 किसानों ने आत्महत्या की, जो राज्य देश के अनाज का कटोरा है। पंजाब में जो हालात मैं देख रहा हूं उससे लहूलुहान कर देने वाला मंजर सामने आ रहा है। कर्ज में डूबे किसान खुद जान देने से पहले अपने बच्चों को मार रहे हैं। उनका कहना है कि कर्ज इतना है कि उनके बच्चे भी उसे नहीं चुका पाएंगे।

पंजाब में 98 फीसदी सिंचाई सुनिश्चित है। देश में इससे ज्यादा अच्छी स्थिति कहीं भी नहीं हो सकती। सिंचाई के इतने बेहतर इंतजाम के बाद भी आत्महत्या नहीं रुक रही है। सुनिश्चित सिंचाई और गेहूं के 45 कुंतल प्रति हेक्टेयर के उच्च उत्पादकता स्तर के बाद, जो अमेरिका के बराबर है और धान के 60 कुंतल प्रति हेक्टेयर के उच्च उत्पादकता स्तर, जो चीन के धान के उत्पादकता के स्तर के समान है, मुझे समझ नहीं आता कि पंजाब के किसान क्यों अपनी जिंदगी खत्म कर रहे हैं।

मेरा कहना यह है कि किसान मर रहे हैं क्योंकि उन्हें उनका जायज आय का हक नहीं दिया जा रहा है। गेहूं और धान के लिए जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलता है वह जानबूझकर कम रखा जाता है। बीते चार साल में एमएसपी में औसत वार्षिक बढ़ोतरी हमेशा सवा तीन से पांच फीसदी के दायरे में रही है। इससे बढ़ती महंगाई का समायोजन तक संभव नहीं है।

किसानों को अनाज उगाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उन्हें जानबूझकर कम भुगतान किया जा रहा है ताकि खाद्य मुद्रास्फीति नीचे रहे। किसानों को आर्थिक रूप से नष्ट किया जा रहा है। फसल बीमा एक जरूरत है, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना व्यवस्था को बदल नहीं सकता जब तक कि ज्यादातर किसानों को उनकी फसल का समुचित लाभ नहीं मिलता।

चार दशकों से अर्थशास्त्री एक ही बात रटते आ रहे हैं-तकनीक का इस्तेमाल पैदावार बढ़ाने में हो, लागत घटे, फसल में विविधता हो, सिंचाई सुविधा में बेहतरी आए- एक बूंद में ज्यादा फसल और बिचौलिए की भूमिका खत्म करने के लिए, जो किसान की आय में बीच में हाथ मार देता है, इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग की ओर झुकाव हो। इन सुझावों को सुनने के बाद ज्यादातर लोग यही सोचते हैं कि कृषि संकट किसानों ने ही खड़ा किया है क्योंकि उन्होंने ताजातरीन तकनीक को नहीं अपनाया, नई फसलों को नहीं बोया, उन्हें नहीं पता कि बैंक क्रेडिट का कैसे इस्तेमाल करें और इसलिए खेती की लागत कम नहीं कर पा रहे हैं जिससे उनका कर्ज बढ़ता ही जा रहा है।

फसल की पैदावार बढ़ाकर खेती से आय दोगुनी करना नीतियों पर आधारित कदम है। यहां आकर खेती से आय में सुधार के वे रटे-रटाए नुस्खे बंट जाते हैं। कृषि अर्थशास्त्री अब तक किसानों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते आए हैं लेकिन क्या किसान फेल हुए हैं या वे अर्थशास्त्री और नीति निर्माता जिन्होंने किसानों को फेल किया है।

(लेखक खाद्य एवं कृषि नीति विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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