हर तरह की असहिष्णुता और अनुदारता का प्रतिरोध होना चाहिए। लेकिन मौजूदा विरोध के तीखेपन में थोड़ी मूर्खता शामिल है। इसका एक उदाहरण प्रोफेसर इरफान हबीब को आरएसएस और इस्लामिक स्टेट में दिख रही समानता है।
क्या आरएसएस और आईएसआईएस एक हैं? इस सवाल से कई जुमले तैयार हो सकते हैं- भारतीय उदारवादी कितने उदार हैं? वे कितने वामपंथी हैं? या फिर भारत का वाम कितना उदार है? इतना ही नहीं,
यह भी कि क्या देश का उदार विचार अप्रत्याशित खतरे में है? अगर ऐसा है तो भारत इसका मुकाबला कैसे करेगा? अगर हम भारतीय उदारवाद के नेहरूवादी विचार को लेकर चिंतित हैं तो इसके बचाव का समय काफी पहले बीत चुका है। इसकी रक्षा तब की जानी चाहिए थी जब उनकी पुत्री ने तत्कालीन सोवियत संघ के साथ कनिष्ठ सामरिक सहयोगी के रूप में संधि पर हस्ताक्षर किए थे, 1969 में दक्षिणपंथ से सहानुभूति और सोवियत विरोधी रुख रखने वाले तमाम लोगों को कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखाया और हर चीज़ का राष्ट्रीयकरण कर दिया। उन्होंने आपातकाल लागू करके भारत के नेहरूवादी विचार की शेष चीजों को भी नष्ट कर दिया।
साल 1969 से 1989 के दौरान हमने गुटनिरेपक्षता गंवा दी, मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाते हमें जो थोड़ी बहुत आर्थिक आज़ादी थी वह भी चली गई, आपातकाल लगा, तमाम जगहों पर विद्रोह की घटनाएं हुईं, संविधान के अनुच्छेद 356 का मनमाना इस्तेमाल कर बार-बार निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त किया गया, पुस्तकों और फिल्मों पर प्रतिबंध लगे, शाहबानो मामले में फैसला पलटा गया, अयोध्या में ताला खुला, शिलान्यास हुआ और साल 1989 में राजीव गांधी ने रामराज्य लाने के वादे के साथ अयोध्या (फैजाबाद) से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की।
इन दो दशकों में उदारवादियों की अनुपस्थिति भी काबिलेगौर रही। आपातकाल के विरोध में हुए आंदोलन में जयप्रकाश नारायण के समाजवादी अनुयायियों तथा गैरधर्मनिरपेक्ष दक्षिणपंथी ताकतों ने त्याग किया। इनमें जनसंघ और उसके सहयोगी संगठन तथा शिरोमणि अकाली दल शामिल थे। विरोध करने वाले एकमात्र सिने सितारा थे देव आनंद। लब्बोलुआब यह कि भारत का उदार वाम इन दो दशकों के दौरान आमतौर पर सत्ता के साथ रहा। यह वह अवधि थी जब नेहरू के उदारवादी भारत के विचार को उन्हीं के वारिस नष्ट कर रहे थे। दरबार आत्मतुष्ट करने वाली जगह है। सत्ता से नज़दीकी के चलते वे तमाम संस्थानों और पाठ्यक्रमों पर काबिज़ रहे और उन्होंने किसी भी वैकल्पिक विचार को नष्ट कर दिया। भारतीय दक्षिणपंथ को लेकर एक उचित, स्वस्थ और बौद्धिक विचार को कभी विकसित ही नहीं होने दिया गया। परिणामस्वरूप आज एक विचित्र दक्षिणपंथ सामने है। इसके विचार और पूर्वाग्रह गाय की पूजा से पवित्र हुए हैं, गोबर गैस के ईंधन से चलते हैं। इतिहास की उसकी समझ लोकसाहित्य से उपजी और विज्ञान की वैदिक गल्प से।
हर तरह की असहिष्णुता और अनुदारता का प्रतिरोध होना चाहिए। लेकिन मौजूदा विरोध के तीखेपन में थोड़ी मूर्खता शामिल है। इसका एक उदाहरण प्रोफेसर इरफान हबीब को आरएसएस और इस्लामिक स्टेट में दिख रही समानता है। आरएसएस की विचार प्रक्रिया में तमाम खामियां हैं जिन्हें ख़ारिज किया जाना चाहिए। तमाम बातें ऐसी भी हैं जो बहस के योग्य हैं। लेकिन उसकी लाठी, बज़ूका (ऐसी लंबी बंदूक जिससे रॉकेट तक दागे जा सकते हैं) नहीं है और उसे हिंदू आईएसआईएस करार देना उतना ही गलत और असहिष्णुतापूर्ण है जितना कि हिंदू दक्षिणपंथियों द्वारा आलोचकों को पाकिस्तान जाने को कहना। यह लोकतंत्र के लिए भी अवमाननापूर्ण है।
अगर आरएसएस हमारा आईएसआईएस है तो हम इसका मुकाबला कैसे करेंगे? क्या हम अमेरिकियों या फ्रांसीसियों और ईरानियों को बुलाकर नागपुर और झंडेवालान पर बमबारी करवाएंगे? यह एक तरह का अतिवाद है। विनायक सेन का मामला एक और उदाहरण है। उन पर हथियारबंद माओवादियों की मदद करने के लिए राजद्रोह का मामला चला। यह तत्काल उदारवादियों के लिए मसला बन गया क्योंकि राजद्रोह का कानून औपनिवेशिक और दमनकारी था। सेन को उदार नायक की तरह पेश किया गया, इस बीच छत्तीसगढ़ में यह मुकदमा ही राह भटक गया। ज़मानत पर रिहा होने के बाद उनको योजना आयोग की एक समिति का सदस्य बनाया गया। पुराने राजद्रोह कानून के ख़िलाफ यकीनन दलील बनती है क्योंकि इसका इस्तेमाल ब्रिटिश शासक आज़ादी के दीवानों के खिलाफ करते थे।
बाद में उसी राजद्रोह कानून का इस्तेमाल गुजरात और तमिलनाडु में क्रमश: हार्दिक पटेल और लोक गायक कोवन के खिलाफ भी किया गया। तब उदारवादी नेताओं ने उस कदर हो-हल्ला नहीं मचाया। अगर विनायक सेन के मामले में असली मुद्दा एक पुराने दमनकारी कानून का इस्तेमाल था तब उसे पटेल और कोवन के खिलाफ इस्तेमाल करना भी उतना ही बुरा हुआ। लेकिन इन अवसरों पर विरोध की कमी दर्शाती है कि विनायक सेन के मामले में उपजे विरोध का रिश्ता आज़ादी से नहीं बल्कि विचारधारा से था। वह सामाजिक कार्यकर्ता और अतिवादी वाम से सहानुभूति रखने वाले हैं। ऐसे में उनका बचाव किया जाना चाहिए।
संप्रग के अधीन इन सामाजिक कार्यकर्ताओं की शक्ति और अधिक थी क्योंकि सरकार पर प्रधानमंत्री का नहीं 10 जनपथ का नियंत्रण था। ये कार्यकर्ता 10 जनपथ के दरबारी बनकर प्रसन्न थे। उन्होंने संप्रग के हर सुधारवादी रुख का विरोध किया। फिर चाहे मामला हवाई अड्डों के निजीकरण का हो या एफडीआई की सीमा बढ़ाने का, डब्ल्यूटीओ, पेटेंट, उच्च शिक्षा सुधार यहां तक कि आधार तक का उन्होंने विरोध किया। उन्होंने सोनिया गांधी और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सभी लोकलुभावन बातों का स्वागत किया। इससे पार्टी और सरकार के बीच की खाई चौड़ी होती गई। मौजूदा प्रतिरोध का नेतृत्व कर रहे कई प्रमुख लोग उसी श्रेणी के हैं। सेवानिवृत्त नौसेना प्रमुख एडमिरल रामदास की बात करते हैं। वह एक बढिय़ा इंसान और सैनिक हैं। उन्होंने संप्रग सरकार को अस्थिर करने की हर कोशिश में हिस्सेदारी की। वह बुनियादी परियोजनाओं और उच्चस्तरीय नियुक्तियों के खिलाफ रहे।
अब वह आजादी कम होने का विरोध कर रहे हैं। नवउदारवादी मनमोहन सिंह की सरकार को लेकर इस कदर अरुचि देखने को मिली कि हमारे वाम बुद्घिजीवियों ने उनकी सरकार के खिलाफ धुर दक्षिणपंथ तक से हाथ मिलाने से गुरेज नहीं किया। 9 फीसदी विकास दर वाले उनके वर्षों का मखौल उड़ाते और 91 फीसदी विनाश का ताना दिया गया। इस दौरान वाम राजनीतिक दलों ने भाजपा का साथ दिया। परमाणु समझौते, खुदरा में एफडीआई के मसले पर उन्होंने भाजपा के साथ मतदान कर संप्रग सरकार को गिराने का प्रयास किया। मतदाता इतने तंग आ गए कि उन्होंने निष्क्रिय कर दी गई सरकार की जगह एक निर्णायक सरकार चुन ली। आधुनिक भारत की विचार प्रक्रिया में वाम बुद्घिजीवियों के दबदबे और परिवार द्वारा उसे प्रश्रय के परिणामस्वरूप एक शिथिल, ठहरी हुई राजनीति अस्तित्व में आई जहां धर्मनिरपेक्ष शब्द मुस्लिम का पर्याय बन गया।
ध्यान दीजिए कि बिहार में भी असदुद्दीन ओवैसी से यही मांग की गई कि वे धर्मनिरपेक्ष वोटों को बांटें नहीं। यह राजनीति अब खुल चुकी है। सुधारों की चौथाई सदी में देश में पुरानी विचारधारा से इतर नए उद्यमी पैदा हुए हैं जिनको नए विचारों और नेताओं की आवश्यकता है। जो उनकी कल्पनाशीलता को गति दे सकें। अगर उन्होंने यह तय किया है कि वह नेता राहुल गांधी नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी हैं तो आप इसे उलट नहीं सकते। आरएसएस को आईएसआईएस बताने वाली बातें केवल उनका मनोरंजन कर सकती हैं। वे गरीबी में महिमामंडन से भी उकता चुके हैं। राजनीतिक तौर पर वाम अब राष्ट्रीय स्तर पर पतनशील शक्ति है। नई पीढ़ी का मतदाता अतिराष्ट्रवादी है लेकिन वह जरूरी तौर पर अनुदार नहीं है। उन्हें आदित्यनाथ की बातें भी उतनी ही हास्यास्पद लगती हैं जितनी इरफान हबीब की। अगर भाजपा रोजगार और वृद्घि पैदा कर पाने में नाकाम रही तो वे उसके मतों के ध्रुवीकरण के रुख को भी स्वीकार नहीं करेगी। परंतु वे वाम-उदारवाद की पुरानी धारणा को भी स्वीकार नहीं करेंगे। यह बात हिंदू दक्षिणपंथ को बढ़त देती है। इसका मुकाबला मुख्यधारा का नया उदारवाद कर सकता है, न कि वैचारिक जुमलेबाजी अथवा मूडीज की सलाह।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं)।