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फार्मा कंपनियों की वजह से बढ़ रहा है एंटीबायोटिक प्रदूषण, तत्काल ध्यान देने की है जरूरत

सिरसा और सतलुज नदी के पानी में भारी मात्रा में एंटीबायोटिक है। यहां एक लीटर पानी में 296 माइक्रोग्राम (μg/l) तक एंटीबायोटिक पाया गया। जोकि निर्धारित मानक से 1500 गुना अधिक है।
#Antibiotics

हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में स्थित बद्दी-बरोटा-नालागढ़ मैन्युफैक्चरिंग हब भारत के प्रमुख फार्मास्युटिकल केंद्रों में से एक है। इसकी 670 से अधिक मैन्युफैक्चरिंग इकाइयां हैं जहां एशिया में कुल दवा उत्पादन के 35 फीसदी से अधिक का उत्पादन होता है। फार्मा हब द्वारा किया जा रहा यह उत्पादन तेजी से पर्यावरण प्रदूषण का स्रोत बनता जा रहा है।

सेवानिवृत्त सशस्त्र बलों के अफसरों की एक गैर-लाभकारी संस्था वेटरन्स फोरम फॉर ट्रांसपेरेंसी इन पब्लिक लाइफ (VFTPL) ने हाल ही में दवा उत्पादन की वजह से सिरसा और सतलुज नदियों के पानी में हो रहे प्रदूषण का मुद्दा उठाया था। इन फार्मा कंपनियों से निकलने वाले गंदे पानी में एंटीबायोटिक होते हैं जो कि पानी और मिट्टी को प्रदूषित करते हैं। इसकी वजह से लोगों की सेहत प्रभावित होती है।

पानी में मिला अत्यधिक मात्रा में एंटीबायोटिक

VFTPL ने फार्मा हब के आसपास सिरसा और सतलुज नदी के पानी की जांच की। जांच में यह पाया गया कि पानी में भारी मात्रा में एंटीबायोटिक है। सिप्रोफ्लोक्सासिन जो कि बैक्टीरियल इन्फेक्शन का इलाज करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एंटीबायोटिक है, एक लीटर पानी में 296 माइक्रोग्राम (μg/l) तक पाया गया। यह निर्धारित मानक से 1500 गुना अधिक है।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेशों के कारण आगे की जांच के बाद हिमाचल प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी नदी के पानी में एंटीबायोटिक के खतरनाक स्तर तक बढ़ने की पुष्टि की। बोर्ड ने यह भी कहा कि बद्दी में कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (सीईपीटी) भी उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषित पानी को शोधित करने में विफल रहा है, जबकि साल 2016 से ही यहां औद्योगिक प्रदूषण हो रहा था। उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट जल को शोधित करने में सीईपीटी अहम भूमिका निभाता है।

इसका कारण एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक सेवन और पशुधन व पशु चिकित्सा उद्योगों द्वारा इसका दुरुपयोग करना तो है ही, इसके साथ ही फार्मा कंपनियों द्वारा अपशिष्टों का निपटारा नहीं करना भी एक बड़ी वजह है।

कुछ को छोड़ दिया जाए तो इस इलाके में सभी दवा कंपनियां बिना किसी ऑन-साइट एफ्लुएंट ट्रीटमेंट के 200-किलो लीटर तक अपशिष्ट छोड़ती हैं। यह सीधे तौर पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के गाइडलाइन का उल्लंघन है।

इसके अलावा, कई कंपनियां अपने औद्योगिक अपशिष्टों को गुप्त रूप से यानी चुपके से छोड़ती हैं, ताकि एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट की स्थापना में आने वाली लागत से बचा जा सके। इसकी वजह से उद्योगों से निकलने वाला तरल अपशिष्ट मिट्टी में रिस जाता है या नालों के ज़रिए नदी में मिल जाता है।

एंटीबायोटिक रोगाणुओं को कर देता है म्यूटेंट

दवा बनाने वाली कंपनियों से होने वाला यह प्रदूषण केवल बद्दी तक ही सीमित नहीं है। इसी तरह के अन्य मामले तेलंगाना में हैदराबाद के फार्मा हब और पूर्वोत्तर भारत में सिक्किम से भी सामने आए हैं। नदियों के आसपास ही सभ्यताएं फलती-फूलती हैं। नदियों का प्रदूषित होना पारिस्थितिकी तंत्र और मानव स्वास्थ्य दोनों के लिए ही खतरनाक है।

पानी में एंटीबायोटिक का ज्यादा होना रोगाणुओं को म्यूटेंट करता है। एंटीबायोटिक्स से रोगाणुओं का इलाज होता है, लेकिन रोगाणुओं के म्यूटेंट वैरिएंट पर इसका असर या तो बहुत कम होता है या बिल्कुल नहीं होता। इस स्थिति को एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस (AMR) कहते हैं, जिसे भारत में पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी की तरह देखा जाता है।

साल 2018 में भारत में टीबी में मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस के 130,000 मामले सामने आए थे। हालिया कोविड-19 महामारी के दौरान लोग अब एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक सेवन करने लगे हैं, जिसकी वजह से AMR की स्थिति और भी गंभीर हो गई है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो इसकी वजह से होने वाली मौतों की संख्या साल 2050 तक वैश्विक स्तर पर 1 करोड़ तक पहुंच जाएगी।

इसका कारण एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक सेवन और पशुधन व पशु चिकित्सा उद्योगों द्वारा इसका दुरुपयोग करना तो है ही, इसके साथ ही फार्मा कंपनियों द्वारा अपशिष्टों का निपटारा नहीं करना भी एक बड़ी वजह है।

लागू नहीं हो पाई पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना

एंटीबायोटिक प्रदूषण से निपटने के लिए एक मजबूत व्यवस्था की जरूरत है। पर्यावरण मंत्रालय ने एक मसौदा अधिसूचना जारी किया था, जिसमें फार्मास्युटिकल डिस्चार्ज में एंटीबायोटिक की सीमा निर्धारित की गई थी, लेकिन यह अब तक लागू नहीं हो पाया है।

भारत के फार्मा हब में, केवल कुछ मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों ने ‘जीरो लिक्विड डिस्चार्ज’ के तरीके को अपनाया है। ये कंपनियां एनजीबी लैबोरेटरीज, सेंट्रिएंट फार्मास्युटिकल्स, ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन और अरबिंदो फार्मा जैसी AMR उद्योग संगठन के सदस्य हैं।

मानकों को अंतिम रूप दिए जाने तक, अदालत ने हिमाचल प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 की धारा 17 के तहत अपने मानकों को निर्धारित करने का निर्देश दिया है।

कई कंपनियां अपने औद्योगिक अपशिष्टों को गुप्त रूप से यानी चुपके से छोड़ती हैं, ताकि एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट की स्थापना में आने वाली लागत से बचा जा सके।

इसके अलावा, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को देश में सभी फार्मा कंपनियों में एंटीबायोटिक अपशिष्टों के लिए निगरानी तंत्र का सुझाव देने का निर्देश दिया गया है।

बद्दी फार्मा हब में, केवल कुछ मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों ने ‘जीरो लिक्विड डिस्चार्ज’ के तरीके को अपनाया है। ये कंपनियां एनजीबी लैबोरेटरीज, सेंट्रिएंट फार्मास्युटिकल्स, ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन और अरबिंदो फार्मा जैसी AMR उद्योग संगठन के सदस्य हैं।

एनजीटी ने तीन महीनों के भीतर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का दिया निर्देश

अदालत ने बद्दी में 270 फार्मा मैन्युफैक्चरिंग प्लांट्स द्वारा निर्धारित सीमा से अधिक प्रदूषण के मामले को लेकर आगे की जांच के लिए VFTPL की अपील को स्वीकार कर लिया है।

पर्यावरण मंत्रालय, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, हिमाचल प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और जिला मजिस्ट्रेट सोलन की एक संयुक्त समिति को मामले की जांच करने और अगले तीन महीनों के भीतर एनजीटी को एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया है।

एनजीटी ने माना है कि नदियों में फार्मास्युटिकल अपशिष्टों का डंपिंग, AMR के मुख्य कारणों में से एक है। यह अब नियामक एजेंसियों का काम है कि वे ट्रिब्यूनल के आदेश का पालन करें।

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