तीन तलाक और उससे जुड़े कुछ मुद्दों पर माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला आने वाला है। इस काम में 70 साल इसलिए लग गए कि जवाहर लाल नेहरू ने देश की कुछ आबादी के लिए शरिया कानून लागू कर रखा था और कुछ के लिए हिन्दू कोड बिल बनाया था। डॉक्टर अम्बेडकर इससे सहमत नहीं थे और सोचें तो यह भारतीय संविधान का अपमान था।
उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिक संहिता लागू करने को अनेक बार कहा है लेकिन सेकुलर सरकारें सब के लिए एक जैसा कानून लागू करना ही नहीं चाहतीं। देखना है मोदी सरकार संविधान का सम्मान कर पाती है या दूसरों की तरह मसला स्थगित रखती है।
वैसे मोदी सरकार ने समान नागरिक संहिता लागू करने की संभावना तलाशने के लिए लॉ कमीशन की सलाह मांगी है, वह भी जब माननीय उच्चतम न्यायालय ने पूछा कि इसे लागू करने के लिए क्या कर रहे हैं। यह काम भारत की आजादी के तुरन्त बाद होना चाहिए था। पहले भी उच्चतम न्यायालय ने यह सवाल केन्द्रीय सरकारों से पूछा था लेकिन वे बगलें झांकती रहीं। अच्छा है मोदी सरकार ने अपना कर्तव्य निभाने की दिशा में कम से कम एक कदम तो बढ़ाया है, मंजिल तक पहुंचने में कठिनाइयां हैं ऐसा प्रशासन ने कहना आरम्भ कर दिया है। संविधान निर्माता अम्बेडकर का अपमान आखिर कब तक करोगे।
पाकिस्तान के नेताओं ने वहां शरिया कानून लागू कर दिए। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी अपने तमाम नागरिकों के लिए शरिया कानून चलने दिया और हिन्दुओं पर हिन्दू कोड बिल लागू किया। संविधान निर्माता अम्बेडकर का कानून था संविधान की धारा 44 में उल्लिखित समान नागरिक संहिता। दोनों देशों में कमोबेश शरिया कानून लागू हो गए। कई मुस्लिम धर्मगुरु ठीक ही कहते हैं मुसलमानों से अधिक हिन्दू समाज के लोग कॉमन सिविल कोड का विरोध करते हैं, शायद राजनैतिक कारणों से।
जवाहर लाल नेहरू संविधान सभा के सदस्य थे और यदि संविधान को पूरी तरह लागू करना ही नहीं था तो दिखावे के लिए धारा 44 के रूप में संविधान में कॉमन सिविल कोड को रखा ही क्यों। जहां तक मुझे याद है भारतीय मुसलमान 1956 तक पर्सनल लॉ के लिए उद्वेलित नहीं थे क्योंकि वे मानकर चल रहे थे सेकुलर भारत में इसकी गुंजाइश नहीं है। उस समय भारत का मुसलमान यूनिफार्म सिविल कोड राजी खुशी स्वीकार कर लेता यदि नेहरू ने ऐसे कानून की पेशकश की होती।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि सभ्य समाज में सभी के लिए एक जैसा कानून होता है जिसमें बेडरूम छोड़कर कुछ भी पर्सनल नहीं होता। तमाम कानून जैसे आबादी पर नियंत्रण, तलाक सहित महिलाओं के अधिकार, बच्चों को उपयोगी शिक्षा, बढ़ती आबादी के लिए पोषण, टीकाकरण जैसे सैकड़ों विषयों का सरोकार पूरे समाज से है, जिम्मेदारी पूरे समाज की है। इन कार्यक्रमों में पैसा सबका खर्च होता है। ऐसी व्यवस्थाओं को पर्सनल नहीं कहा जा सकता। यदि हम सेकुलरवादी और समाजवादी व्यवस्था का दम भरते हैं तो समाज को टुकड़ों में बांटकर नहीं देख सकते लेकिन मोदी सरकार भी समाज को सम्पूर्णता में देख सकेगी इसमें बहुत सन्देह है।
अस्सी के दशक में शाहबानो का प्रकरण बहुत मशहूर हुआ था जब उच्चतम न्यायालय ने तीन तलाक के बाद गुजारा मांगने वाली शाहबानो को गुजारा मंजूर कर दिया था और लगा था कि राजीव गांधी इतिहास रचेंगे लेकिन गुब्बारे की हवा बहुत जल्दी निकल गई और संविधान का संशोधन कर दिया गया। आखिर कॉमन सिविल कोड के विरोधी क्या चाहते हैं शाहबानो जैसी शरिया कानून की शिकार महिलाएं घूमती रहें सड़कों पर और सरकार देखती रहे।
जब इबादत में खलल नहीं डाला जा रहा और उनके खान-पान भोजन को कोई नहीं बदल रहा तो देश को प्रभावित करने वाले कानूनों को पर्सनल कह कर एकरूपता का विरोध क्यों? मनमाने तरीके से एक से अधिक शादियां करने के लिए, जितने चाहें बच्चे पैदा करने के लिए और उसके बाद सच्चर कमीशन के हिसाब से सबसे पिछड़ी जमात में खड़े होने के लिए आबादी तैयार कर रहे हैं। बहुत से मुस्लिम देशों ने शरिया कानूनों में बदलाव किया है और तमाम मुसलमान जो सेकुलर देशों में जाकर रहते हैं, शरिया के हिसाब से नहीं वहां के संविधान के हिसाब से जीवन बिताते हैं। अब देखना होगा मोदी सरकार क्या करती है।
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