आजकल अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण का मुद्दा बहुत गरम है। जब 23 दिसम्बर 1949 की आधी रात अयोध्या की मस्जिदनुमा बिल्डिंग में अचानक घंटा घड़ियाल बजने लगे और रामलला की मूर्तियां विराजमान हो गईं और शंखध्वनि के साथ आवाजें आईं ‘भए प्रकट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी’, तब फैजाबाद के जिलाधिकारी थे कृष्ण करुणाकर नैयर और उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली में हुकूमत थी कांग्रेस की।
इनमें से किसी ने इस चमत्कारी काम को गैरकानूनी नहीं माना और मूर्तियां हटवाने का प्रयास भी नहीं किया। जाहिर है कि यह सब शासन और प्रशासन की सहमति से हुआ होगा। और अदालतें 70 साल से चींटी की गति से निर्णय की ओर बढ रही हैं।
राम मन्दिर के प्रति कांग्रेस का सकारात्मक रुझान इस बात से पता चलता है कि राजीव गांधी ने राम मन्दिर के शिलान्यास की अनुमति 1989 में प्रदान की थी। इतना ही नहीं अपना चुनाव प्रचार भी उन्होंने अयोध्या से ही आरम्भ किया था। आज भी राहुल गांधी मन्दिर मन्दिर जाते हैं और अपने को जनेउधारी हिन्दू कहते हैं।
मस्जिद में रामलला के विराजमान हो जाने के बाद भी तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कोई कड़ा कदम नहीं उठाया। मुसलमानों की इबादत में खलल यदि हुआ भी था तो भी कांग्रेस चुप रही। दंगे और खून खराबा भी नहीं हुआ और 1952 में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से चुनाव जीती। न्यायालय में मामले की अन्तहीन प्रक्रिया आरम्भ हुई जो अभी तक चल रही है।
अदालतों को मालिकाना हक निश्चित करने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि बाबर अयोध्या की जमीन टर्की से नहीं लाया था, जबरन कब्जा किया था। किसी किसान की जमीन भूमाफिया द्वारा जबरन ले ली जाती है तो अदालत वह जमीन किसान को वापस दिलाती है। बाबर ने इब्राहीम लोदी तथा राणा सांगा को युद्ध में परास्त करके भारत की धरती पर कब्जा किया था। बावजूद इसके हमारी अदालतें पिछले 70 साल में यह नहीं जान पाईं कि भूखंड पर मालिकाना हक किसका है। सरकार ने भी कभी प्रकरण की एफआईआर दर्ज करके कार्रवाई नहीं की।
कहते हैं रामजन्मभूमि को लेकर 1853 में साम्प्रदायिक दंगे हुए थे और अंग्रेज हुकूमत ने 1859 में हिन्दुओं के लिए जमीन आवंटित कर दी थी। देश के मजहबी बटवारे के समय भी रामजन्मभूमि कोई बड़ा मुद्दा नहीं था। हिन्दू और मुसलमानों के प्रार्थना की जगहें बांटी जा चुकीं थीं। जिस बिल्डिंग को हिन्दू ढांचा और मुसलमान बाबरी मस्जिद कहते हैं, उसमें 1961 तक भजन कीर्तन चलता रहा। उस पर मालिकाना हक का सवाल 12 साल तक नहीं उठा, आस्था के विषय पर बहस होती रही।
आखिरकार 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने स्वामित्च का मुकदमा दायर किया जिसका फैसला स्वामित्व के आधार पर ही होना है। राजीव गांधी की सरकार ने शायद हिन्दुओं का स्वामित्व माना था और उनकी पूजा निर्बाध चलने देने के लिए विवादित भवन का ताला खुलवाया था। मैंने भी रामलला को उसी मस्जिदनुमा बिल्डिंग में शांति से बैठे हुए देखा था और दर्शन किये थे।
राम मन्दिर के प्रति कांग्रेस का सकारात्मक रुझान इस बात से पता चलता है कि राजीव गांधी ने राम मन्दिर के शिलान्यास की अनुमति 1989 में प्रदान की थी। इतना ही नहीं अपना चुनाव प्रचार भी उन्होंने अयोध्या से ही आरम्भ किया था। आज भी राहुल गांधी मन्दिर मन्दिर जाते हैं और अपने को जनेउधारी हिन्दू कहते हैं।
धर्म की राजनीति के ही उदाहरण हैं इन्दिरा गांधी द्वारा गाय का दूध पीते बछड़े का कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बनाना। कांग्रेस तो धर्म की राजनीति छुपे तौर पर करती थी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने खुलकर लाभ उठाया। संघ परिवार की मांग कर दी कि अयोध्या के राम, काशी के शिव और मथुरा के कृष्ण मन्दिरों को हिन्दुओं को सौंप दिया जाए। वैसे अयोध्या के मामले में मन्दिर का महत्व पूजा के लिए नहीं, बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राम का जन्मस्थान होने के लिए है। भाजपा की कठिनाई है कि मन्दिर बनने पर श्रेय कांग्रेस को शिलान्यास के लिए और आडवाणी जी को जन्मभूमि आन्दोलन के लिए अधिक मिलेगा।
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