बाल संरक्षण की उल्टी चाल

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बाल संरक्षण की उल्टी चालगाँव कनेक्शन

26 साल पहले संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने बाल अधिकार समझौते को पारित था। इस समझौते की रोशनी में भारत में भी बच्चों के हक में कई नीतियां और कानून बनाए गए हैं। बच्चों और किशोरों की सुरक्षा, संरक्षण और देखभाल के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2000 में किशोर न्याय अधिनियम लाया गया। यह एक ऐसा प्रगतिशील कानून है। इसके तहत 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी विधि विवादित बच्चे के साथ वयस्कों की तरह व्यवहार नहीं किया जा सकता है उनके लिए अलग से न्याय व्यवस्था की गयी है। 2007 में केन्द्र सरकार से किशोर न्याय अधिनियम को मजबूती से लागू करवाने के लिए समेकित बाल संरक्षण योजना बनाई गयी। अधिनियम के अनुसार देश के प्रत्ये

क जि़ले में एक बाल गृह हो, एक आश्रय गृह हो, एक आब्ज़रवेशन होम हो, एक विशेष गृह हो।  

किशोर न्याय अधिनियम और एकीकृत बाल संरक्षण योजना कागज़ी रूप से सबसे अच्छी योजना है। यह कानून इतना आदर्श है कि अगर इसे उसकी आत्मा के अनुसार लागू किया जाए तो शायद कोई भी बच्चा लावारिस, सड़क पर भीख मांगता, मजदूरी करता दिखाई नहीं देगा। लेकिन इसके क्रियान्वयन को लेकर कई सारी समस्याएं, जटिलताएं और रुकावटें सामने आ रही हैं। इसे लागू करने में नौ विभागों की भूमिका बनती है लेकिन हकीकत यह है कि महिला बाल विकास और सामाजिक न्याय विभाग को छोड़ कर ज्यादातर विभाग इसके प्रति उदासीन है और यह उनकी प्राथमिकता में नहीं आता है। इसे जमीन स्तर पर उतारने के लिए संस्थाओं, एजेंसियों में प्रशिक्षित स्टाफ की कमी एक बड़ी चुनौती है। संरक्षण और सुधार गृहों की स्थिति भी दयनीय है आईसीपीएस को लागू करने में राज्य के साथ स्वयंसेवी संस्थाओं की महती भूमिका बन गई है।  

आए दिन शिशु, बाल एवं सुधार गृहों से बच्चों के उत्पीडऩ, उनकी देखभाल में कोताही, सुरक्षा में चूक, पर्याप्त सेवाओं और सुविधाओं के अभाव की खबरें आती रहती हैं। पर इसे रोकने को शायद ही कोई ठोस कदम उठाया जाता हो।  

सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरे देश के बाल सुधार गृहों की स्थिति के अध्ययन के लिए न्यायाधीश मदन बी. लोकर की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गयी थी, इस न्यायिक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के सरकारी बाल सुधार गृहों में रह रहे  40 फीसदी विधि विवादित बच्चे बहुत चिंताजनक स्थिति में रहते हैं, पर हमारे बाल सुधार गृहों की हालत वयस्कों के कारागारों से भी बदतर है। कमेटी के अनुसार बाल सुधार गृहों को 'चाइल्ड फ्रेंडली' तरीके से चलाने के लिए सरकारों से पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जा रहे हैं, किशोर न्याय अधिनियम के कई सारे प्रावधान जैसे सामुदायिक सेवाएं परामर्श केंद्र्र और किशोरों की सजा से संबंधित अन्य प्रावधान जमीन पर लागू होने के बजाए अभी भी कागजों पर ही है। 

एशियन सेंटर फॉर ह्यूमेन राइट्स, नई दिल्ली की रिपोर्ट India's Hell Hole: Child Sexual Assault In Juvenile Justice Home's जिसमें भारत के विभिन्न राज्यों में स्थित बाल गृहों में बच्चों के साथ होने वाले यौन उत्पीडऩ के जिन 39 मामलों का अध्ययन किया गया है, इसमें से 11 मामले सरकारी सम्प्रेक्षण गृह, बाल गृह, आश्रय गृह और अनाथालयों के हैं, जबकि 27 केस प्राइवेट या स्वयंसेवी संस्था द्वारा चलाए जा रहे सम्प्रेक्षण गृह, बाल गृह, आश्रय गृह और अनाथालयों के हैं। सरकारी गृहों के मामले में ज्यादातर अपराधकर्ता वहीं के कर्मचारी होते हैं जबकि प्राइवेट या स्वंसेवी संस्था में वहां काम करना वाले कोई भी कर्मी हो सकता है। रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर राज्य सरकारों द्वारा जेजे. होम्स के लिए निरीक्षण कमेटी का गठन नहीं किया गया है। किशोर न्याय अधिनियम 2007 के नियमों के अनुसार सभी तरह के गृहों में रहने वाले बच्चों का उनके जुर्म, आयु, लिंग के आधार पर वर्गीकरण करके उन्हें अलग-अलग रखना चाहिए। लेकिन इसका पालन नहीं किया जा रहा है। 

बाल सुरक्षा को काम करने वाली संस्था 'आंगन' से 31 संप्रेक्षण गृहों के कुल 264 लड़कों से बात करने के बाद जो निष्कर्ष सामने आए हैं वे हमारी किशोर न्याय व्यवस्था की चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं। अध्ययन में शामिल 72 फीसदी बच्चों ने बताया कि उन्हें किशोर न्याय बोर्ड के सामने प्रस्तुत करने से पहले पुलिस लॉक-अप में रखा गया था। इसी तरह से 45 फीसदी बच्चों ने बताया कि पुलिस कस्टडी के दौरान उन्हें शारीरिक रूप से प्रताडि़त किया गया। इनमें से 75 फीसदी बच्चों ने बताया कि पेशी में बोर्ड ने उनसे कोई सवाल नहीं पूछा और ना ही उनका पक्ष जानने का प्रयास किया। 

इसे देखते हुए 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने किशोर गृहों की निगरानी का निर्णय लिया। एक पैनल का गठन किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने सभी राज्यों के हाईकोर्ट को लिखा कि वे अपने यहां एक जज को नामांकित करें जो इन गृहों का निरीक्षण करेंगे। इसकी रिपोर्ट वे राज्य सरकार और जुवेनाइल कमेटियों को भेजेंगे। सितंबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र-राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया कि देश में अपंजीकृत स्वयंसेवी संस्था से चलाए जा रहे बाल गृहों को तत्काल बंद किया जाए और उन्हें किसी भी तरह की सरकारी फंड न दिया जाए। 

 

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