लाखों लोग अपनी गाड़ियां लेकर छोटे-छोटे बच्चों के साथ देवभूमि में देवस्थानों को जाते हैं उनमें कितने आस्थावान श्रद्धालु होते हैं और कितने तफरी के लिए देवस्थान जाते हैं। एक सज्जन कह रहे थे अब तो बद्रीनाथ के दरवाजे तक गाड़ी चली जाती है, उन्हें कौन बताए यह वरदान नहीं अभिशाप है।
इसी का परिणाम है कि दो साल बाद भी केदारनाथ में मलवे में हजारों नरकंकाल आज भी मिल रहे हैं। अपनी परम्परा के अनुसार धार्मिक पर्यटन या तो पैदल होना चाहिए नहीं तो छोटे सार्वजनिक वाहनों से। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि विकास का मैदानी मॉडल यदि पहाड़ों पर थोपा गया तो हिमालय एक दिन रेगिस्तान बन जाएगा।
मुझे याद है 1978 में नैनीताल में एकाध गाड़ियां दिखाई देती थीं वह भी सरकारी गाड़ियां। पुराने लोगों का कहना था जवाहर लाल नेहरू भी अपनी गाड़ी शहर के बाहर छोड़कर घोड़े पर सवार होकर आए थे। आजाद भारत में धनी लोगों की बड़ी गाड़ियां देवभूमि पर आसानी से चली जाएं इसलिए पहाड़ों पर काफी छेड़छाड़ की गई है। पहाड़ काटकर सड़कें चौड़ी की गई हैं। यह सच है कि आम आदमी सुविधाएं नहीं जुटाता उनका उपभोग करता है। देश चलाने वाले लोगों की जिम्मेदारी बनती है कि दूर दृष्टि और पक्के इरादे की सिर्फ बातें न करें उन पर अमल करें। जब घर में आग लगे तो कुआं खोदने से भला नहीं होगा।
आपदा प्रबंधन के लिए विद्वानों की गोष्ठियां होती हैं, प्रोजेक्ट बनते हैं और रिपोर्ट्स जमा होती हैं बस। बाढ़ नियंत्रण के लिए पहली बार साठ के दशक में दस्तूर कमीशन और नदियों को परस्पर जोड़ने की रिपोर्ट आई थी, तब से अनेक बार चर्चा हुई लेकिन नियंत्रण तो तब होगा जब रिपोर्टों पर कार्यवाही होगी। विश्वविद्यालयों में बड़े-बड़े प्रोफेसर बड़ी-बड़ी ग्रान्ट लेकर रिपोर्ट तैयार करते हैं लेकिन वे रिपोर्ट कितनी व्यावहारिक हैं इसका निर्णय तब होगा जब उन पर कार्यवाही होगी। यदि विपदा के समय चर्चा करना और बाकी समय रिपोर्ट तैयार करना ही आपदा प्रबंधन का ढर्रा है तो वह चल ही रहा है, इससे न बाढ़ रुकेगी और न भूस्खलन।
पिछले दो साल से हम पानी के लिए तरसते रहे और इस साल की बारिश में शहरों की सड़कों पर भी पानी ही पानी दिखा। हमें पता था इस साल अच्छी वर्षा होगी लेकिन हमारी तैयारी नहीं थी। पानी आया और तबाही मचाकर चला गया, देश फिर पानी के लिए तरसेगा। इसमें से कितना पानी हम सहेज सकते थे, कोई नहीं जानता। बाढ़ की तबाही और पहाड़ों पर भूस्खलन से बचने के लिए हम 70 साल से उपाय खोज रहे हैं। करने के नाम पर जो करेगा पानी का भगवान यानी इन्द्र करेगा।
जुलाई 1970 में बादल फटने से अलकनन्दा नदी का जलस्तर 15 मीटर के लगभग बढ़ गया था, 1998 को मालपा में बादल फटने और भूस्खलन से 250 लोगों की मौत हुई थी जिसमें कैलाश मानसरोवर के यात्री भी शामिल थे। अगस्त 2010 में लेह में बादल फटने और भूस्खलन से करीब 1000 लोग मरे थे, केदारनाथ और अन्य स्थानों पर भारी वर्षा और भूस्खलन से अनगिनत लोग मरे थे। बादल फटना तो नहीं रोक सकते परन्तु भारी वर्षा से होने वाली तबाही घटा सकते हैं। आपदा प्रबंधन का तंत्र तभी सक्रिय होता है जब आपदा आई होती है।
पहले भी नदियों के किनारे शहर और गाँव रहे हैं लेकिन तब आबादी कम थी, मकान भारी भरकम नहीं होते थे, धरती पर वनस्पति की चादर ढकी थी और मोटर गाड़ियों के न होने से पक्की सड़कों की जरूरत नहीं थी। अब पहाड़ों के ऊपर बहुमंजिला मकान बनाने और सड़कों के निर्माण से पहाड़ी ढलान अस्थिर हो गए है। पहाड़ों से निकला मलवा मैदानी भागों तक पहुंच कर नदियों को ही पाटता है और बाढ़ का एक कारण बनता है। पहाड़ और मैदान की समस्याओं को अलग करके नहीं देख सकते। वे एक-दूसरे से जुड़ी हैं। सड़कों का निर्माण नेताओं की सलाह से होता है, भूवैज्ञानिकों और इंजीनियरों की सलाह से नहीं। विकास के क्या काम होने है यह तो राजनेता तय कर सकते हैं लेकिन काम कैसे होगा यह वैज्ञानिकों पर छोड़ देना चाहिए।
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