भीड़ व्यवस्था पर बोझ, पर नेताओं के लिए वोट

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कुछ दिन पहले ही यमुना तट पर श्रीश्री रविशंकर द्वारा 153 देशों से आए 35 लाख लोगों का समागम आयोजित कराया गया। इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संस्कृति का कुंभ मेला कहा। सरकार प्रशासन और पुलिस ने इस बात पर राहत की सांस ली होगी कि तीन दिन के आयोजन में कोई दुर्घटना नहीं हुई, आतंकवादियों ने भी कोई दुस्साहस नहीं किया और जल देवता की भी मेहरबानी रही।

जनशक्ति का प्रदर्शन बढ़ता ही जा रहा है लेकिन नई पहल करके सांस्कृतिक कुम्भ के आयोजन को लेकर अनेक सवाल उठते हैं। मामला उच्चतम न्यायालय में भी गया जिसने हस्तक्षेप नहीं किया। फिर भी जिस आयोजन के लिए करोड़ों का जुर्माना लगे वह वैधानिक नहीं लगता। 

आस्था से जुड़े हुए कुछ आयोजन जैसे मक्का में हज के समय या फिर संगम तट पर महाकुंभ के दिनों में बड़ी भीड़ की व्यवस्था करना सरकारों की जिम्मेदारी बनती है क्योंकि वे मानव आस्था के विषय हैं लेकिन इस बार पर्यावरण, जलप्रदूषण और सुरक्षा को लेकर गम्भीर सवाल उठे और हमारी दिन-प्रतिदिन की व्यवस्था और सामाजिक सुरक्षा पर बोझ बढ़ा जो अपरिहार्य नहीं था। संसद में बड़ी बहस हुई और सवाल उठे कि प्राइवेट आयोजन में सेना और पुलिस को इतनी संख्या में क्यों लगाया गया। सांसद यह मानने को तैयार नहीं दिखे कि यह जीने की कला सिखाने वाला संगीत और संस्कृति का नि:स्वार्थ अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रम था। इसे वेद मंत्रोच्चार और योग साधना सहित व्यवसायिक चर्चाओं जैसे कार्यक्रमों के कारण हिन्दू धर्म से जोड़ा गया। सेक्युलर भारत में ऐसी आलोचनाओं और भ्रम से बचना चाहिए। 

इस कार्यक्रम का उद्धाटन प्रधानमंत्री मोदी ने किया इसमें किसी को दोष नहीं लगेगा लेकिन वित्तमंत्री, गृहमंत्री और पूरी कैबिनेट की उपस्थिति तथा अन्य दलों के बड़े नेताओं की अनुपस्थिति जरूर खटकने वाली थी और फिर बड़ी भीड़ देखकर नेताओं का मन कुलबुलाने लगता है। जमियत उलेमा-ए-हिंद संगठन के आयोजन में गुलाम नबी आजाद के साथ कुछ ऐसा ही हुआ जब उन्होंने असंयमित भाषण दे डाला कि आरएसएस और आईएसआईएस में भेद नहीं है। यह तर्कहीन और असत्य भी है।

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