अयोध्या में हलचल है, पत्थर तराशे जा रहे हैं, कारसेवक आ चुके हैं और मन्दिर की हुंकार सुनाई पड़ने लगी है, यूपी के चुनावों की तारीख नजदीक आ रहीं है। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कह चुके हैं देवालय से पहले शौचालय बनना चाहिए। तो क्या शौचालय बनाने का काम पूरा हो गया अथवा स्वच्छ भारत का अभियान समाप्त हो गया जो फिर से सुगबुगाहट हो रहीं है। उतावलेपन में कल्याण सिंह की सरकार गई थी अब मोदी सरकार को भी दांव पर लगा रहे हैं।
रामलला को तथाकथित मस्जिद में सुकून से बैठे हुए मैंने देखा था और हम भी चैन से दर्शन कर पाए थे। जहां तक मन्दिर निर्माण के समर्थकों का सवाल है उन्हें समझ में आ जाना चाहिए कि जहां रामलला विराजमान थे वहीं रहने देते तो ठीक था।
जहां भगवान विराजमान हों वही मन्दिर है और कोई भी अदालत यह कभी भी नहीं कह सकती थी कि यह मस्जिदनुमा मन्दिर तोड़ दो। मैं यह तो नहीं जानता कि मस्जिदनुमा मन्दिर तोडऩे से भगवान खुश हुए या नहीं लेकिन इतना जानता हूं कि यह सारी शक्ति, श्रम और समय दरिद्रनारायण की सेवा में लगाया होता तो भगवान जरूर प्रसन्न होते।
देवालय से पहले शौचालय बनना ही चाहिए क्योंकि मन्दिर जाने के पहले कोई भी व्यक्ति दैनिक कर्म से निवृत्त होगा, स्नान करेगा तब शुद्ध मन और स्वच्छ शरीर के साथ मन्दिर जाएगा। अब तो रामलला को तपती धूप, ठिठुरन भरी ठंड और घनघोर बारिश में तिरपाल के नीचे बिठा ही दिया है- मुसलमानों ने नहीं बल्कि रामभक्तों ने। और रामभक्तों को उकसाया कांग्रेस वालों ने, कभी ताला खुलवाकर तो कभी चुनाव अभियान वहीं से आरम्भ करके। सच कहें तो मुकदमेबाजी पचास साल तक इसीलिए लटकी रही कि कांग्रेस सरकारों ने अपना पक्ष ठीक से नहीं रखा।
सोमनाथ मन्दिर की तर्ज़ पर राम मन्दिर बनाने की बात है तो यदि लोकसभा-राज्यसभा से इस आशय का प्रस्ताव पारित हो सके तो मन्दिर बनाना सम्भव हो सकता है पर शायद मोदी ऐसा न करना चाहें क्योंकि अब परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं। अब विकास के लिए देश में शान्ति अधिक जरूरी है। अधिकांश लोगों को अपने और अपने परिवार के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की चिन्ता है। यदि मन्दिर बन भी गया तो देश के भूखे-नंगे लोग उसका क्या करेंगे, राजनेता जरूर लाभ उठाएंगे।
मन्दिर के लिए बेचैनी दिखाने के बजाय हिन्दुओं को अपने समाज की बुराइयों को दूर करने के लिए कोई ठोस उपाय करना चाहिए। उदाहरण के लिए विधवाओं का नारकीय जीवन, दहेज की आग, छुआछूत की बीमारी, भूखे नंगे लोग और मरती हुई गाएं, बाल विवाह, साधुवेष में लोगों की हरकतें, मन्दिरों से मूर्तियों की चोरी और मन्दिरों का कालाधन। इन कामों को करने के लिए हिन्दू सिद्धान्त कहीं भी आड़े नहीं आते परन्तु इनके करने से सुर्खियां नहीं बिखेर सकेंगे।
इसी तरह मस्जिद के पक्षधर मुस्लिम समुदाय से उम्मीद थी कि सच्चर कमीशन की रिपोर्ट के बाद वह अपने समाज के लिए कुछ सोचेंगे। लेकिन पिछली सरकारों ने उन्हें सरकारी इमदाद पर निर्भर कर दिया है। चार शादियां, बड़ा परिवार, तीन तलाक से बेसहारा महिलाएं, अशिक्षा, महिलाओं का पर्दा और उन पर पाबन्दी, वक्फ की जायदाद की बदइन्तजामी, जैसे अनेक मसले हैं लेकिन वे तो बाबर की शान बचाने में अधिक रुचि रखते है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में लड़कियों को वाइस चांसलर द्वारा लाइब्रेरी जाने से रोका जाना, काजी-मुल्ला बनने से रोकना, आखिर कितनी मलाला संघर्ष करती रहेंगी और कब तक?
मोदी को मन्दिर-मस्जिद के पहले शौचालय मात्र नहीं बल्कि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की चिन्ता करनी होगी, एक सीमा तक कर भी रहे हैं लेकिन उनके समर्थक उतावले हो रहे हैं, अदालत के फैसले का इन्तजार भी नहीं कर सकते। पेट भरने को भोजन, तन ढकने को कपड़ा, सुरक्षित रहने के लिए मकान, बीमार पड़ने पर दवाई, शिक्षा के लिए स्कूल कालेज और उसके बाद मन्दिर-मस्जिद। भूखे पेट न तो भव्य मन्दिर बनेगा और न सशक्त भारत। पता नहीं ये लोग कैसा भारत बनाना चाहते हैं।
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