जब से पीना बंद हुआ तब से जीने लगा बिहार

गरीब आदमी की जिंदगी धागे के सहारे लटकी होती है, ऐसे में शराब न पीकर बचाया गया पैसा उसके परिवार के लिए जिंदगी और मौत की लड़ाई में अहम साबित हो सकता है।
#शराबबंदी

अखबार की एक हेडलाइन पर मेरी नजर जो अटकी तो अटककर रह गई, लिखा था, ‘शराबबंदी ने बिहार को दूध और शहद का प्रदेश बना दिया।’ अखबार की इस खबर में स्वतंत्र रूप से किए गए दो सर्वे का हवाला देते हुए लिखा था कि शुरूआती आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में शहद की बिक्री 380 पर्सेंट और पनीर की बिक्री 200 पर्सेंट बढ़ गई है।

बिहार में देसी शराब समेत सभी तरह की शराब की बिक्री पर पाबंदी लगे दो साल हो चुके हैं। मुझे यह जानकर जरा भी हैरानी नहीं हुई है कि गरीब और समाज के हाशिए पर जी रहे लोगों के जीवन पर इसका सकारात्मक असर पड़ा है। दूध, लस्सी और दूध से बनी दूसरी चीजों की बिक्री बढ़ी है। वर्ष 2016-17 की तुलना में अकेले दूध की ही बिक्री में 17.5 पर्सेंट का इजाफा हुआ है। डेवेलपमेंट मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट, पटना ने अपने अध्ययन में तो यह भी बताया गया है कि साड़ियों की बिक्री में 1,715 पर्सेंट की जबर्दस्त बढ़ोतरी हुई, कपड़ों की खरीद 96 पर्सेंट और खाने-पीने की चीजों की बिक्री में 46 पर्सेंट की वृद्धि हुई। इससे इस तथ्य को मजबूती मिलती है कि जब गरीब आदमी के पास कुछ पैसा (शराब पीने से बची हुई आमदनी) बचता है तो वह उसे जिंदगी की जरूरतों पर खर्च करता है। गरीब आदमी की जिंदगी धागे के सहारे लटकी होती है, ऐसे में शराब न पीकर बचाया गया पैसा उसके परिवार के लिए जिंदगी और मौत के बीच बारीक रेखा साबित हो सकता है।

मैं पिछले कुछ समय से देश की यात्रा करता रहा हूं। मैंने हमेशा देखा है कि गांव की महिलाएं गांव-गांव शराब की दुकानें खोलने वाली सरकार की आबकारी नीति का जबर्दस्त विरोध करती हैं। लेकिन जिस पल मैं यह बात कहूंगा मेरी आवाज शहरी पढ़े-लिखे लोगों के शोर में डूब जाएगी। सरकार की उदारवादी आबकारी नीति के समर्थन में तर्क दिए जाएंगे कि ऐसा करने से सरकार को राजस्व की हानि होगी, शराब चोरी-छिपे बिकने लगेगी और बेरोकटोक भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा वगैरह वगैरह। लेकिन इनमें से शायद ही किसी ने यह जानने के लिए गांवों में कदम रखा होगा कि शराब ने किस तरह सैकड़ों जिंदगियां बर्बाद की हैं या किस तरह सामाजिक तानेबाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है।

यह भी देखें: भारत के किसानों को भी अमेरिका और यूरोप की तर्ज़ पर एक फिक्स आमदनी की गारंटी दी जाए


लगभग 15 साल पहले, मैं अविभाजित आंध्रप्रदेश में यात्रा कर रहा था। । मैं कम्युनिटी मैनेज्ड सस्टेनेबल एग्रीकल्चर (सीएमएसए) कार्यक्रम के तहत कुछ गांवों का दौरा कर रहा था जिसमें गैर-कीटनाशक प्रबंधन (एनपीएम) के तहत 35 लाख एकड़ से अधिक खेती योग्य भूमि लाई गई थी, जिसका अर्थ है कि किसानों ने इस इलाके में रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग करना बंद कर दिया था। मैं गर्मी की एक दोपहर में एक पेड़ की छाया में ऐसी महिलाओं के साथ बैठा था जिन्होंने स्वयं-सहायता समूह बनाए थे। उनकी कामयाबी की कहानियां सुनकर मैंने उनसे पूछा कि आपकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए सरकार को और क्या करना चाहिए। मुझे उम्मीद थी कि उनमें से कोई कहेगा कि हमें गांव तक पहुंचने वाली लिंक रोड की जरूरत है या कि पास में कोई प्राइमरी स्कूल होता तो बेहतर होता, लेकिन वे सभी चुप बैठी रहीं। आखिर में उनकी नेता का जवाब सुनकर मैं हैरान रह गया, उसने कहा था, ” हमें सरकार से कुछ नहीं चाहिए। बस उनसे कह दीजिए कि हमारे गांव में जो शराब की दुकान खुली है उसे बंद कर दें।”

अभी कुछ महीने पहले मैं उसी जिले में एक दूसरे स्वयं सहायता समूह से मिलने पहुंचा। मैं यह जानकर अचंभे में था कि न केवल महिलाएं बल्कि अब पुरुष भी स्वयं सहायता समूह बना रहे थे। इसकी शुरूआत 1995 में हुई जब आंध्र के कुर्नूल जिले से 25 किलोमीटर दूर उय्यलावडा गांव में 20-20 सदस्यों वाले 3 स्वयं सहायता समूह शुरू हुए। इन्हें वहा मंडल समाख्या कहा जाता है, अब इनकी संख्या बढ़कर 96 हो चुकी है और सालाना टर्नओवर 28 करोड़ रुपये है। यह वाकई काफी प्रभावशाली प्रदर्शन है। जब मैंने उनसे पूछा कि आप महिलाओं ने इतना रिकॉर्ड टर्नओवर कैसे हासिल किया तो उनमें से एक ने धीरे से कहा, ” हमारे गांव में कोई शराब की दुकान नहीं है।” जब मैंने और पूछताछ की तो पता चला कि उन्होंने पांच साल पहले उस गांव की इकलौती शराब की दुकान को बंद करा दिया था। इतना ही नहीं, पुष्पावती ने बताया कि कैसे उन्होंने स्वयं सहायता ग्रुप की मदद से कमाए रुपयों से पांच साल पहले एक एकड़ जमीन खरीदी थी। गांव के स्वयं सहायता समूहों के संघ की अध्यक्षा श्रीमती विजय भारती ने बताया कि पहले उनके पति उनके साथ मार-पीट किया करते थे, लेकिन जब से वह आर्थिकरूप से स्वालंबी हुई हैं हालात बदल गए हैं। उनके पति अब एक दुकान चलाते हैं और केमिकल रहित उत्पाद बेचते हैं। वह अब अपने बच्चों को पढ़ा पा रही हैं। विजय भारती गर्व से बताती हैं कि उनके बच्चे अब अंग्रेजी भी बोल सकते हैं।

यह भी देखें: किसानों को कर्ज के दुष्चक्र में फंसाकर मजबूर किया जाता है कि वे अधिक से अधिक कर्ज लें

इससे मुझे उस वाकये की याद आई जब मैं चंड़ीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस का युवा रिपोर्टर था। मुझे हिमाचल प्रदेश सरकार ने एक विकास सम्मान से सम्मानित किया था। यह सम्मान मुझे अपनी उस रिपोर्ट के लिए दिया गया था जिसमें मैंने लिखा था कि कैसे सोलन जिले की ग्रामीण महिलाएं अपने गांवों से शराब की दुकानों को खदेड़ने के लिए अभियान चला रही हैं। यह आंदोलन लंबा चला, मुझे जिला कलेक्टर, एसडीएम और दूसरे अधिकारियों के दफ्तरों के सामने प्रदर्शन करती नाराज महिलाएं याद हैं। जब मुख्यमंत्री ने मुझे सम्मानित किया तो उन्होंने शराबबंदी की जरूरत पर बड़ी-बड़ी बातें कहीं पर मुझे तब बहुत हैरानी हुई जब अगले ही दिन राज्य सरकार ने अपनी आबकारी नीति का ऐलान करते हुए शराब की कुछ सौ नई दुकानें खोलने का प्रावधान किया। आबकारी नीति पर ये दोहरे बोल बोलने की परंपरा खत्म करनी होगी।

इसीलिए मैं यह देखकर बहुत खुश हूं कि तमाम दबावों के बावजूद नीतीश कुमार शराबबंदी की अपनी नीति पर अटल रहे। मैं इस बात से सहमत हूं कि ऐसी नीति लागू करने में काफी अड़चनें आती हैं। गुजरात में भी, जहां शराबबंदी को कई बरस पहले लागू किया गया था, मुझे बताया जाता है कि शराब आज भी अवैध तरीके से उपलब्ध कराई जाती है। लेकिन राहत की बात है कि पिछले हफ्ते अहमदाबाद से महुआ के सफर के दौरान सड़कों पर मेरी किसी शराबी से मुलाकात नहीं हुई, और न ही शराब पीने के बाद झगड़ते हुए शराबी दिखे।

अगर गांवों में शराब की दुकानों को प्रतिबंधित करने से हम ग्रामीण परिवारों को पोषण सुरक्षा दे पाएं और इससे महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा मुहैया हो पाए तो मेरे ख्याल से हमें ऐसी योजना बनाने की जरूरत है जिससे गांवों में शराब की बिक्री पर रोक लगाई जा सके। 

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma ) उनके सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

Recent Posts



More Posts

popular Posts