क्या सामाजिक क्षेत्र की चुनौतियों से उबार पाएगा केंद्रीय बजट 2022-23

बजट से यह उम्मीद की गई थी कि सामाजिक क्षेत्र के बजट में इजाफा किया जाएगा और इसके सरकारी खर्चों में विस्तार देखने को मिलेगा। लेकिन मौजूदा संकट और उनकी मांग के बावजूद, बजट ने रूढ़िवादी दृष्टिकोण अपनाया है और ऐसा लगता है कि रोजगार-केंद्रित और समावेशी विकास पर निवेश करने के बजाय केंद्र ने इस अवसर का उपयोग अपने राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों को सिर्फ प्राथमिकता दी है।

Kumar SanjayKumar Sanjay   2 March 2022 1:00 PM GMT

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क्या सामाजिक क्षेत्र की चुनौतियों से उबार पाएगा केंद्रीय बजट 2022-23

देखा गया है कि लोगों को स्थिर रूप से उनकी मजदूरी नहीं मिल पाई है और बेरोजगारी की संख्या में इज़ाफा होता चला गया है। सभी फोटो: गांव कनेक्शन

पूरी दुनिया में विकास के मामले में भारत अभी भी कई देशों के मुकाबले काफी पिछड़ा हुआ है। जीवन की गुणवत्ता, मानव पूंजी और 'मानव विकास सूचकांक' की यदि बात की जाए तो भारत 189 देश में से 131वें स्थान पर है, साथ ही सबसे चौंकाने वाली बात है कि 'ग्लोबल हंगर इंडेक्स' में हमारा देश 116 देशों के श्रेणी में 101वें स्थान पर है, जो कि बहुत गंभीर मुद्दा है।

यह बहुत ही अच्छे तरीके से स्पष्ट है कि पिछले दो वर्षों में कोविड महामारी का गरीब, वंचित समुदाय और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के स्वास्थ्य, शिक्षा और खाद्य सुरक्षा पर बेहद ही गंभीर प्रभाव पड़ा है। वैश्विक संगठन ऑक्सफैम की 'इनइक्वलिटी किल्स' रिपोर्ट और आईसीई360 सर्वेक्षण सहित कई हालिया रिपोर्टें अच्छी तरह से यह स्थापित करती हैं कि भारत में आर्थिक विकास में सुधार की स्थिति अच्छी नहीं है, मतलब कि समाज के गरीब वर्गों की आय कम होती जा रही है, जबकि धनी वर्गों की आय में भारी मात्र में बढ़ोतरी हो रही है।

जैसा कि कई विशेषज्ञ बताते हैं कि कोविड महामारी के बाद से यह प्रवृति काफी तेज हो गई है लेकिन देश, इस तरह की असमानता का अनुभव पिछले कुछ दशकों से करता आ रहा है। इसके अलावा, वर्ष 2016 के बाद यह साफ़ तौर पर देखा गया है कि लोगों को स्थिर रूप से उनकी मजदूरी नहीं मिल पाई है और बेरोजगारी की संख्या में उतरोतर इज़ाफा होता चला गया है।

इस संदर्भ में, मौजूदा बजट से यह उम्मीद की गई थी कि सामाजिक क्षेत्र के बजट में इजाफा किया जाएगा और इसके सरकारी खर्चों में विस्तार देखने को मिलेगा। सामाजिक क्षेत्र पर अधिक बजट प्रावधान और खर्च से ही मानव विकास के परिणामों में सुधार में योगदान हो सकता है, साथ ही यह भी स्पष्ट है कि वर्तमान आर्थिक संकट के दौरान लोगों को राहत देने के साथ- साथ निजी खपत की मांग को बढ़ावा देने में भी योगदान देता है, जिसका अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक और गुणात्मक प्रभाव होता है।

हालांकि, लोगों के मौजूदा संकट और उनकी मांग के बावजूद, बजट ने रूढ़िवादी दृष्टिकोण अपनाया है और ऐसा लगता है कि रोजगार-केंद्रित और समावेशी विकास पर निवेश करने के बजाय केंद्र ने इस अवसर का उपयोग अपने राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों को सिर्फ प्राथमिकता दी है।

राष्ट्रीय स्तर पर यह स्पष्ट है कि लंबे समय तक स्कूल बंद रहने के कारण बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई है, सरकार ने यह घोषणा की है कि वह 'एक कक्षा, एक टीवी चैनल' योजना का विस्तार करेगी लेकिन सरकार को यह चाहिए था कि वह स्कूलों पर अपना आवंटन बढ़ाये ताकि स्कूलों को फिर से एक नए जोश के साथ खोला सके। अगर मौजूदा हालात की बात करें तो प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र की स्थिति बेहद चिंताजनक है।


मसलन, जहां स्कूल के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की जरूरत है और उन बच्चों को स्कूल में वापस लाने के प्रयास किए जाने की जरूरत है जो स्कूल छोड़ चुके हैं और सीखने के लिए भारी नुकसान भी कर रहे हैं। साथ ही शिक्षकों के पढ़ने के स्तर को भी सुधारने की महती आवश्यकता है।

पिछले दो वर्षो के शिक्षा बजट के संशोधित अनुमान पर गौर फरमाया जाये तो हम पाते हैं कि इस पर कम खर्च किया गया है। प्रधान मंत्री पोषण शक्ति निर्माण, जो कि पहले मिड डे मिल के रूप में जाना जाता था, इसको एक भावी योजना के रूप में परिलक्षित किया गया है लेकिन पिछले वर्ष की तुलना में इस योजना पर बजट आवंटन कम कर दिया गया है, यह पिछले साल 11,500 करोड़ रु. था जो इस साल 10,233 करोड़ है।

एक महामारी के दौरान, बार-बार सार्वजनिक व्यवस्था को मज़बूत करने के बारे में वायदों के बावजूद स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के लिए कुल 83,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है जो कि 2021-22 के बजट अनुमान से केवल 16% अधिक है और 2021-22 के पुनरीक्षित बजट अनुमान से 1,000 करोड़ रुपये कम है, जो कि 82,921 करोड़ रुपये था. हालांकि, स्वास्थ्य बजट में 'पेयजल और स्वच्छता' को शामिल करने से, जीडीपी के अनुपात के रूप में स्वास्थ्य खर्च में वृद्धि दिखाई दे रही है। जबकि पेयजल मिशन पर खर्च करना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, इसीलिए इसे स्वास्थ्य बजट के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। इसके अलावा, भले ही जल जीवन मिशन के लिए 50,000 करोड़ से रु. 60,000 करोड़ बजट रुपये तक बढ़ा दिया गया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि 2021-22 में जल और स्वच्छता विभाग को आवंटित धन में से दिसंबर 2021 तक सिर्फ 44% ही खर्च हो पाए हैं।

हालांकि महामारी की अवधि में, सार्वजनिक वितरण प्रणाली कई लोगों के लिए जीवन रेखा रही है। वर्तमान में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत केवल 60% आबादी को ही राशन कार्ड से राशन उपलब्ध कराया जा रहा है। सभी पात्रता रखने वाले लोगों को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत मुफ्त में अतिरिक्त खाद्यान्न दिए गए। सवाल यह है कि क्या 2022-23 के लिए 2.06 लाख करोड़ रुपये की खाद्य सब्सिडी खाद्य सुरक्षा के लिए पर्याप्त है. संकेत यह है कि पीएमजीकेएवाई का विस्तार करने की कोई योजना नहीं है।


सक्षम आंगनवाड़ी, मातृत्व अधिकार और सामाजिक सुरक्षा पेंशन जैसी महत्वपूर्ण योजनाओं का बजट पिछले वर्ष के आवंटन के अनुसार ही है अर्थात उसमे कोई बढ़ोतरी नहीं की गई हैं। मनरेगा के लिए 73,000 करोड़ रुपये का आवंटन भी काम की बढ़ी हुई मांग या 21,000 करोड़ रुपये की जो मजदूरी लंबित मजदूरी को नहीं दर्शाता है।

कुल मिलाकर 2022-23 के बजट में एक बार फिर सामाजिक क्षेत्र की उपेक्षा की गई है। जबकि शायद यह ऐसा समय है जब उसे सबसे ज्यादा समर्थन की जरूरत है। जैसा कि ऊपर हम चर्चा कर चुके हैं कि, स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सरकारी योजनाओं के लिए आवंटित संसाधन कोई इजाफा नहीं हुआ है, जो लापरवाही जैसी स्थितियों की और परिलक्षित कर रहे हैं।

वास्तव में, 2015 से इन योजनाओं के बजट में वास्तविक रूप से गिरावट आ रही है। भारत पहले से ही सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बहुत कम खर्च करने की कमजोर स्थिति में आ चुका है, उदाहरण के लिए, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा लाई गई विश्व सामाजिक सुरक्षा रिपोर्ट 2020-23 से पता चलता है कि भारत में सामाजिक सुरक्षा (स्वास्थ्य को छोड़कर) पर खर्च सकल घरेलू उत्पाद का 1.4% है, जबकि निम्न-मध्यम आय वाले देशों में यह औसतन 2.5%. जरूरत के मुताबिक स्वास्थ्य और शिक्षा पर बजट कम हो रहा है, जो जीडीपी के 3% और 6% के वांछनीय स्तरों से काफी नीचे है। यह निरंतर लापरवाही भारत में समावेशी विकास के लिए शुभ संकेत नहीं है।

(लेखक 'ट्रांसफोर्मिंग रूरल इंडिया फाउंडेशन' से जुड़े हुए हैं और ये उनके निजी विचार हैं.)

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