बाढ़-सूखे से बड़ी विभीषिका है नोटबंदी

cash shortage problem

2016 ख़त्म हो रहा है। किसान इस साल को खराब फसली वर्ष के रूप में याद करेंगे। साल के मध्य में मानसून ने सूखे से हांफ रही खेती-किसानी को राहत दी लेकिन उसके जाते ही वक्त आ गया रबी फसलों की बुआई का और नोटबंदी उस पर पहाड़ बनकर टूट पड़ी।

यह एक जलजले की तरह आया जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित किसान हुए। लगातार बीते दो साल में सूखे की मार झेल चुके किसानों को नोटबंदी से उबरने में शायद एक या दो से ज्यादा वर्ष लग जाएं। बीते 50 दिन में उनकी कमाई में 50 से 70 फीसदी तक कमी आई है और इससे भविष्य में छोटे किसानों की रोजी-रोटी पर असर पड़ना तय है। गरीब शायद ही नोटबंदी के जलजले से जल्द उभर पाएं।

अगले साल बजट में सरकार शायद ही किसानों या खेतीहर मजदूरों के लिए कोई प्रावधान करे। पर सवाल उठता है कि जब बाढ़ से राहत दी जाती है, सूखे में मदद पहुंचाई जाती है तो नोटबंदी के नुकसान को खत्म करने के लिए उपाय क्यों न हो जिसका असर किसी प्राकृतिक आपदा से कम नहीं है।

बाजार में तुअर या अरहर दाल आ गई है। चाहे कर्नाटक का गुलबर्ग, आंध्र प्रदेश का करनूल और मध्य प्रदेश का इंदौर हो, कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुकाबले औंधे मुंह गिरी हैं। 5050 रुपए प्रति कुंतल के एमएसपी की तुलना में आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के थोक बाजार में क्रमश: 3666 रुपए प्रति कुंतल और 4570 रुपए प्रति कुंतल कीमतें चल रही हैं। महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश से जब आवक शुरू होगी तो कीमतें और नीचे आना तय हैं।

बीते दो साल में तुअर दाल की खुदरा कीमतें ऊंची रहीं, जो इस साल की शुरुआत में 200 रुपए प्रति किलो तक पहुंच गईं, एमएसपी भी 4625 रुपए प्रति किलो से बढ़कर 5050 रुपए प्रति कुंतल हो गया था, जिससे किसानों का इस फसल पर भरोसा बढ़ा और उन्होंने अच्छी कमाई की उम्मीद में तुअर या अरहर दाल की बुवाई की। इस साल 43 लाख टन तुअर दाल की आवक की उम्मीद है यानी बीते साल से 24.6 लाख टन का इजाफा होगा।

तुअर की कहानी मूंग की तरह है। बीते साल के एमएसपी 4850 रुपए प्रति कुंतल को बढ़ाकर 5225 प्रति कुंतल किया गया लेकिन मंडी में सितंबर में इसकी आवक के साथ ही कीमतें गिरने लगीं। देशभर में किसानों को एमएसपी के नीचे फसल बेचने को मजबूर होना पड़ा।

नोटबंदी ने निश्चित तौर पर किसानों की तकलीफ बढ़ाई है और कृषि उत्पादों के बाजार इससे उबरने वाले नहीं है। ‘सीएनबीसी टीवी’ ने नवी मुंबई के एपीएमसी बाजार के हवाले से खबर दी कि स्थिति लगातार बिगड़ रही है। आठ नवंबर को 500 और 1000 रुपए के नोट बंद होने के 50 दिन बाद किसानों के लिए कीमतें 50 से 60 फीसदी घटी हैं। नवी मुंबई की मंडी में आठ से 10 टन सब्जी सड़ गई। किसान को अपनी फसल का कोई मूल्य नहीं मिला। थोक व्यापारी नकदी की कमी के कारण खुदरा कारोबार द्वारा उनके उत्पादों के न खरीदे जाने का इल्जाम लगा रहे हैं। वजह कुछ भी हो, हर हाल में किसान को ही खामियाजा भुगतना होगा।

नवी मुंबई कोई अपवाद नहीं है। नई दिल्ली की आजादपुर मंडी में एपीएमसी बाजार में किसानों को औने-पौने दामों में अपने उत्पाद बेचने पड़ रहे हैं। न सिर्फ सब्जियां बल्कि इंदौर में फूलों की कीमतें तक धड़ाम हो गई हैं। ‘इंडियास्पेंड’ ने एक किसान के हवाले से कहा-नोटबंदी के चार दिन पहले और बाद में मैं सेवंती (क्रिसेंथम) फूलों को 30 से 40 रुपए प्रति किलो में बेच रहा था लेकिन वह अब चार से छह रुपए प्रति किलो में बेच रहा हूं। नोटबंदी के बाद फूलों की खेती में लगे किसानों की कमाई 50 से 80 फीसदी घटी है।

कपास, सोयाबीन, बासमती चावल और ठंड की सब्जियों मसलन टमाटर, आलू, पत्ता गोभी, फूल गोभी, मटर, पालक और गाजर की भी यही कहानी है। हालांकि नोटबंदी से किसानों को हुए नुकसान पर सत्तारूढ़ दलों के प्रवक्ताओं का वक्तव्य आना बाकी है। बीते कुछ समय से मैं यह जाहिर करता रहा हूं कि नोटबंदी का असर बीते दो साल लगातार पड़े सूखे से ज्यादा विनाशकारी होगा। कोई प्रवक्ता मुझसे टीवी शो पर अनुभवसिद्ध साक्ष्य मांग सकता है। हालांकि ताज्जुब तब हो कि अगर कोई प्रवक्ता नोटबंदी के बाद देशभर में लगी कतारों पर अनुभवसिद्ध अध्ययन उपलब्ध करा पाए।

हालांकि, नई दिल्ली में लेखक अशिम चौधरी ने असहाय किसानों के साथ घटे हादसे को बयां करने की कोशिश की। मैं इसे हादसा इसलिए कह रहा हूं कि क्योंकि वह किसी और के किए की सजा भुगत रहे हैं। कई बड़े अर्थशास्त्री और फंड मैनेजर इसे अल्पावधि संकट मान रहे हैं। यह उनके लिए अल्पावधि का संकट है जिनका कारोबार प्रभावित होने के बाद सामान्य हालात में लौट रहा है लेकिन जरा उनकी (छोटे किसानों, रेहड़ी दुकानदारों और भूमिहीन मजदूरों) परिस्थितियों के बारे में सोचिए जो थोड़ा-थोड़ा पैसा रोजाना कमा कर अपना घर चला रहे थे।

अशिम चौधरी ने किसानों की इस दर्द भरी दास्तां को बयां करते हुए नोटबंदी के बाद कुछ सुझाव पेश किए हैं :

‘मैं नई दिल्ली की एक सब्जी मंडी में गया…और जो हुआ वह आश्चर्यजनक था। दस रुपए में एक किलो आलू, एक किलो लोबिया, एक किलो पत्ता गोभी और तीन गड्डी पालक मिल रहे थे।’

‘मैं इतनी सस्ती सब्जियां बड़ी खुशी-खुशी खरीद रहा था…लेकिन मन ही मन उस किसान के लिए रोना आ रहा था।’

“किसान को उसकी लागत की क्या कीमत मिल रही होगी? आलू दो रुपए किलो…वह भी महीनों की मेहनत के बाद?’

‘तो इसका मतलब उसे एक पैकेट बीड़ी या एक गोल्ड फ्लेक सिगरेट खरीदने के लिए सात किलो आलू उगाना पड़ेगा?’

‘छोटे किसानों को हमेशा अपरिपक्व सौदा करना पड़ता है लेकिन (मन ही मन सोच रहा था) श्री नरेंद्र मोदी, नोटबंदी ने उन्हें बुरी तरह झकझोर दिया है।’

‘मुझे सस्ती सब्जी मिलने से खुशी हुई लेकिन मैं यह नहीं चाहता कि किसान उसे खुद ही मजबूर होकर सस्ता बेचे।’

‘जय जवान…मर किसान!’

यह समय है 2016 को अलविदा कहने का। उम्मीद करते हैं कि नया साल अधिक खुशियां और सौभाग्य लेकर आए।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके अपने विचार हैं)

Recent Posts



More Posts

popular Posts