भारत में जातिविहीन समाज मुंगेरी लाल का सपना है

Dr SB MisraDr SB Misra   4 Jan 2017 1:52 PM GMT

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भारत में जातिविहीन समाज मुंगेरी लाल का सपना हैउच्चतम न्यायालय ने राजनीति से जाति, धर्म और क्षेत्रवाद को समाप्त करने के उद्देश्य से चुनाव में इनका प्रयोग प्रतिबंधित कर दिया है।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने राजनीति से जाति, धर्म और क्षेत्रवाद को समाप्त करने के उद्देश्य से चुनाव में इनका प्रयोग प्रतिबंधित कर दिया है। यदि इस सुझाव का कड़ाई से पालन किया गया तो अनेक राजनैतिक दलों की मान्यता समाप्त हो सकती है जैसे मुस्लिम लीग, हिन्दू महा सभा, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, तेलगू देशम पार्टी, आदि। कितने ही दल दलित जातियों और पिछड़ी जातियों के नाम पर वोट मांगते हैं उनका चुनाव निरस्त हो जाएगा। देखना होगा अदालती फैसलों की दुहाई देने वाले कितने लोग इस निर्णय को मानते हैं और कितनी सरकारें इसका पालन सुनिश्चित करा पाती हैं। जब जाति के आधार पर वजीफा, टिकट, डूट, पसैकरी सब मांग सकते हैं तो वोट क्यों नहीं।

जाति व्यवस्था के जन्मदाता महर्षि मनु स्वर्ग में बैठे मुस्करा रहे होंगे कि उनका बनाया सामाजिक ढांचा आज भी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रबन्धन का सशक्त आधार बना हुआ है। मनु ने जो चार जातियां बनाई थीं उनसे हमने आधुनिक भारत में 6000 बना ली हैं। हमारे नेताओं ने सुनिश्चित कर लिया है कि जातियों के बीच की दीवारें कमजोर न होने पाएं।

स्वतंत्र भारत के नेताओं ने तय किया कि जाति ही आधार बनेगी नौकरी पाने, संसद, विधानसभा या पंचायत में जगह पाने के लिए। उन्होंने एकमात्र जातीय आधार पर दरोगा, पुलिस और अध्यापक बनाने आरम्भ किए, सोचा हर आदमी हर काम कर सकता है यदि जाति सही है। उन्होंने सोचा इस तरीके से सेक्युलर समाज की रचना हो जाएगी। यह उसी तरह हुआ कि कोई सोचे हम आग से आग बुझा देंगे। इन लोगों को अम्बेडकर की बुद्धि पर भरोसा नहीं जिन्होंने व्यवस्था दी थी कि जातीय आरक्षण दस साल के लिए पर्याप्त होगा। कोई औषधि बहुत समय तक खाने से निष्प्रभावी हो जाती है।

कुछ लोगों का मानना है कि देश में सामाजिक प्रगति जानने का जाति ही एक मात्र पैमाना है। यह सोच जातियों को सदा सर्वदा के लिए प्रासंगिक बनाता है। आधे से अधिक सरकारी कर्मचारी अपनी कुर्सियों पर अपनी जाति के कारण बैठे हैं, योग्यता और क्षमता के कारण नहीं। जिस मनुवाद को कुछ लोग गालियां दे रहे थे उसी के आधार पर सुविधाएं बटोर रहे हैं और मनुवाद को खाद पानी दे रहे हैं। यदि किसी ने जातिविहीन समाज की कल्पना की होगी तो वह मुंगेरी लाल के सपने से अधिक कुछ नहीं है।

जातिविहीन समाज की रचना का एक उपाय इन नेताओं ने सोचा कि जातिसूचक शब्दों का प्रयोग रोक देने भर से जातियां समाप्त हो जाएंगी। अदालतों के आदेश के बावजूद हमारी सरकारें जातीय जनगणना नहीं करातीं। कैसी विचित्र बात है जाति आधारित लाभ उठाएंगे बिना जाति का नाम लिए। गाँव में कहते हैं ‘गुड़ खाएं, गुलगुला से परहेज़’। जातीय शब्दों को सम्मानजनक बनाने के लिए कभी हरिजन तो कभी अनुसूचित बोलेंगे लेकिन अनु माने तो छोटा ही होता है। जाति पीछा नहीं छोंड़ती जहां जाओगे साथ जाएगी।

यदि हमारे नेता सोचते हैं कि 67 साल में जातियों के बंधन ढीले हुए हैं तो उनका भ्रम है। वे दीवारें और मजबूत हुई हैं, उसी का परिणाम है। आप गाँव-देहात में किसी ब्राह्मण या ठाकुर के दरवाजे पर जाइए और कहिए कि हम अनुसूचित हैं हमें पानी पिला दो। आप देखते रहना किस ग्लास में वह पानी लाता है। जातीय दीवारें मजबूत हो रही हैं, इसका सबूत है कि जातीय संघर्ष और अन्याय घटे नहीं बढ़े हैं। सच्चाई यह है कि सम्मान व्यक्तियों का होता है जाति का नहीं। हम सोचें वाल्मीकि, कबीर, रविदास, तुकाराम, अम्बेडकर, जगजीवन राम, कर्पुरी ठाकुर, वल्लभ भाई पटेल का नाम सम्मान से लिया जाता है भले ही कोई उनकी जाति नहीं जानता। क्षमता और योग्यता आरक्षण मांगती नहीं है, अपना अधिकार हासिल करती है।

जब हमारे नेता किसी चुनाव क्षेत्र में प्रत्याशी खोजते हैं तो जातीय बहुमत को आधार मानते हैं फिर भी अपने को जातिविहीन समाज का पक्षधर कहते हैं, सेकुलर मानते हैं। कम्युनिस्ट जो भगवान को नहीं मानते परन्तु जाति को मानते हैं और इसकी वर्ग से बराबरी करते हैं। जातीय नेता अपने को कुछ दिनों तक वर्ग चिन्तक के रूप में समाज को भ्रमित कर सकते हैं लेकिन यह बहुत दिनों तक नहीं चलता। यदि जाति और वर्ग एक ही होता तो स्वामी प्रसाद मौर्य को मायावती से अलग होने की नौबत नहीं आती, बहाने कितने बताएं। स्पष्ट है कि जातियां अमर हैं, मनुवाद अमर है। जातीय विद्वेष का कारण था जातियों से जुड़ा हुआ लाभ और पद। उसी अवधारणा को जीवित रखकर हम विद्वेष मिटाना चाहते हैं, यह कामयाब नहीं होगा।

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