लालटेन कथा: कभी हर एक घर में रोशनी का जरिया थी, अब इसका शीशा भी ढूंढे न मिलेगा
लालटेन महारानी संग्राहलयों से लेकर प्रदर्शनियों तक में आमजन की जानकारी बढ़ाने और दर्शनार्थ प्रदर्शित की जाने लगेगी। जिसे दिखाकर नई पीढ़ी को अवगत कराया जाएगा कि कभी यह चीज भारत के गांव-कस्बों से लेकर शहरों तक में प्रकाश पुंज अर्थात रात में रोशनी प्रदान करने के काम आती थी।
Dr. Satyendra Pal Singh 15 April 2022 8:31 AM GMT
आने वाले कुछ दशकों बाद पैदा होने वाली पीढ़ी के लिए लालटेन का नाम सुनना ऐसा लगेगा कि यह किसी नए ग्रह के प्राणी का नाम तो नहीं है या फिर कहीं सुकरात और कबीर के जमाने में पैदा हुए किसी दार्शनिक का नाम तो नहीं था। ऐसा हम यूं ही नहीं कह रह हैं। जनाब जरा गौर फरमाइयेगा, अपने आसपास नजर दौड़ाइयेगा। कुछ हासिल हो न हो आप वर्तमान हकीकत से जरूर रूबरू हो जाएंगे।
आज लालटेन रखने वाले उगंलियों पर गिनने को मिलेंगे। गांव, शहरों से लेकर महानगरों तक में आज कितनी नौजवान पीढ़ी ऐसी है जोकि लालटेन से परचित होगी। मेरा तो मानना है कि आने वाले कुछ ही वर्षों में लालटेन एक दुर्लभ विलक्षण वस्तु का दर्जा हासिल जरूर कर लेगी। जिसे देश की हैरीटेज वस्तुओं की सूची में भी शामिल कर लिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
लालटेन महारानी संग्राहलयों से लेकर प्रदर्शनियों तक में आमजन की जानकारी बढ़ाने और दर्शनार्थ प्रदर्शित की जाने लगेगी। जिसे दिखाकर नई पीढ़ी को अवगत कराया जाएगा कि कभी यह चीज भारत के गांव-कस्बों से लेकर शहरों तक में प्रकाश पुंज अर्थात रात में रोशनी प्रदान करने के काम आती थी।
भाइयों किसी जमाने में लालटेन बड़े काम की चीज रही है। यह भारत की आजादी की लड़ाई की साक्षी रही है तो वहीं महापुरूषों से लेकर राजनेताओं तक को दिशा दे चुकी है। न जाने कितने कवियों, लेखकों ने इसकी रोशनी में ही साहित्य सृजन की नई बुलंदियों को छुआ है। वहीं कितने विद्यार्थियों और युवाओं ने इसकी ज्योति में शिक्षा ग्रहण करके देश के उच्च पदों को सुशोभित किया है।
आज बेचारी वही लालटेन अपने वजूद के लिए लड़ाई लड़ रही है। हम महानगरों में रहने वाले अपने शहरों को मेट्रो शहर का दर्जा हासिल हो जाने पर जरूर गर्व महसूस करते हैं। लेकिन भाइयों आपको बता दें दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों के निवासी हमें छोटे कस्बे से अधिक का भाव नहीं देते हैं। लेकिन आज महानगरों की तो छोड़िए गांव-कस्बों में भी लालटेन की बेकदरी का हाल बहुत बुरा है।
मैं करीब 13 वर्ष पहले एक छोटे से कसबे से स्थानांतरण होकर के एक महानगर में रहने आया था। संयोग से सामान लेकर आने में लालटेन का शीशा फूट गया। हमने महानगर में न जाने कितनी गली-कूचों से लेकर कई छोटे-बड़े बाजारों की खाक छानमारी पर लालटेन का शीशा नहीं मिला तो नहीं मिला। न जाने कितने लोगों से पूछा कि भाइयों लालटेन का शीशा कहां मिलेगा तो हम ही परिहास का विषय बन गए।
क्या यार इक्कीसवीं सदी चल रही है और आप आज भी बाबा आदम के जमाने की लालटेन के शीशा की बात कर रहे हैं। हमने कहा कि लाइट बहुत जाती है इसलिए रात में लालटेन जला लेते हैं। बढ़िया काम करती है और खर्चा भी कम होता है। अरे यार लालटेन-फालटेन को छोड़ो और इनर्वटर लगवा लो।
खैर हमने भी हिम्मत नहीं हारी और हमारी लालटेन के शीशे की तलाश अनवरत जारी रही। तब कहीं जाकर एक दुकान पर आर्डर देने के एक माह बाद हमें अपनी लालटेन का शीशा हासिल हो सका। साथ ही हमें यह ज्ञान भी हो गया कि दुलर्भ वस्तुओं का मिलना बहुत टेढ़ी खीर है। अब जब रात में बत्ती गुल होती है तो लालटेन महारानी धड़ल्ले से जगमगाती है।
लेकिन आने वाले जब देखते हैं तो लालटेन के बारे में अपने मृदु विचार प्रकट करने से नहीं चूकते हैं। इस सबको देखते हुये लगता है कि सदियों तक हम भारतवासियों को अपनी रोशनी से जगमग करने वाली लालटेन आज अपने ही देश में अपनों के बीच ही बेगानी हो गई है।
(डॉ सत्येंद्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी, मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख हैं, यह उनके निजी विचार हैं।)
#childhood village lantern #story
More Stories