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कूटनीतिक दबावों से नहीं रुकेगा चीन

India

डॉ. रहीस सिंह

इस समय वैश्विक स्तर पर द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय संबंधों में अनिश्चितता, गैर-सम्भ्रांतवादी प्रतिस्पर्धा और विरोधाभासों का संयोजन, बेहद जटिल रूप में दिख रहा है। ऐसे में वैश्विक गतिविधियों के फोकल प्वाइंट को पहचानना और निर्णायक शक्तियों की उच्चाकांक्षाओं को समझना थोड़ा कठिन है। सामान्यतौर पर भावी वैश्विक रणनीति का फोकल प्वाइंट मध्य-पूर्व होना चाहिए लेकिन यह एशिया प्रशांत, दक्षिण एशिया अथवा हिन्द महासागर में भी इसके छाया बिंदुओं को देखा जा सकता है। प्रश्न यह उठता है कि इसकी अगुवाई कौन करेगा? चीन की महत्वाकांक्षाएं किस स्तर की होंगी? चीन इनकी शुरुआत चाहे जिधर से करे, भारत इसे किस रूप में देखेगा? चीन भविष्य में भारत के खिलाफ कहां तक जा सकता है? एक प्रश्न यह भी है कि क्या वर्तमान समय में भारत और चीन के बीच सीमा को लेकर जिस तरह की तनातनी दिख रही है वह चीन के नए उभार द्वारा निदेशित है अथवा इसके कारण परम्परागत इतिहास की कुछ संधियों और कूटनीतिक व्यवहारों में निहित माने जाएं?

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गौर से देखें तो आंतरिक एशियाई परिस्थितियां इस समय नए अनुभव साझा कर रही हैं, जिसमें भारत के लिए अवसर हैं, विकल्प हैं और बहुत सी चुनौतियां भी। इस स्थिति में भारत के लिए यह जरूरी है कि वह अपना रणनीतिक स्टैंड स्पष्ट करे ताकि अनिश्चितताएं खत्म हों। वैसे तो अब इस बात की सख्त जरूरत है कि भारत को विशेषकर आंतरिक एशिया (इनर एशिया) की भू-सामरिक स्थिति का आकलन कर स्वयं के महाद्वीपीय शक्ति बनने का रास्ता खोजे। लेकिन भारत अभी इस दिशा में कितना चला है, स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता। हां चीन का भारत के प्रति प्रकट ताजा नजरिया, यह संकेत कर रहा है कि चीनी भारत के उभरते स्वरूप के प्रति अाशंकित भी है और बेहद रणनीतिक भी। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले वर्षों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती चीन होगा क्योंकि चीन स्वयं को एक महाशक्ति के रूप में स्थापित करने के लिए आक्रामकता को और बढ़ाएगा। अतः को सावधान एवं सतर्क रहने की जरूरत होगी।

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पिछले सप्ताह चीन ने सिक्किम में सीमा पर एक सामान्य विवाद को लेकर भारत को जिस तरह का संदेश देने की कोशिश की उसके निहितार्थ सामान्य तो नहीं लगते। चीन लगभग चेतावनी के लहजे में यह कह रहा है कि भारत को 1962 की भारत-चीन लड़ाई के सबक भूलने नहीं चाहिए। जवाब में, रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने भी कहा कि अब भारत 1962 वाला भारत नहीं है, बल्कि उस समय से बहुत आगे बढ़ गया है।

प्रतिक्रिया में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जेंग शुआंग ने कहा कि वह ठीक कह रहे हैं कि 2017 का भारत 1962 के भारत से अलग है, लेकिन उसी तरह चीन भी अलग है। महत्वपूर्ण बात यह है कि शुआंग ने सिक्किम सेक्टर में दोनों देशों के बीच सीमा 1890 की चीन-ब्रिटिश संधि के तहत भलीभांति निर्धारित है और भारतीय पक्ष 1890 की संधि का तत्काल पालन करे और चीन अपनी क्षेत्रीय संप्रभुता की रक्षा के लिए ‘सभी आवश्यक कदम’ उठाएगा। चीनी प्रवक्ता द्वारा यह आरोप लगाया गया कि डोके ‘अवैध प्रवेश’ को ‘छिपाने के लिए’ भूटान का इस्तेमाल कर रहा है। भूटान ने मामले में चीन सरकार के समक्ष विरोध दर्ज कराया है।

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फिलहाल तो ऐसा लग रहा है कि चीन भारत की मौजूदा आर्थिक एवं सैनिक क्षमताओं को स्वीकार ही नहीं कर रहा है। यही वजह है कि चीनी भाषा में अहमन्यता दिखाई दे रही है। ध्यान रहे कि चीनी वार्ताकारों ने भारतीय समकक्षों से अभी तक यह कहना जारी रखा है कि चीनी एवं भारतीय अर्थव्यवस्थाओं के आकार में पांच गुना का अंतर है। भारत को चाहिए कि वह चीन की श्रेष्ठता को स्वीकार करे और उसी के अनुसार व्यवहार करे। ऐसा लगता है कि चीन अब एक ऐसे निष्कर्ष पर पहुंच चुका है जहां वह स्वयं को प्रथम श्रेणी की ताकत मान रहा है और भारत को दूसरी अथवा तीसरी श्रेणी की। इस स्थिति में वह भारत से यह भी अपेक्षा करता होगा कि भारत उसके अनुसार चले ना कि उसकी नीतियों के विकल्प ढूंढ़ने, उन्हें काउंटर करने हेतु एलायंसेज तैयार करे। दूसरे शब्दों में कहें कि भारत जिस तरह से ब्रिक्स बैंक, न्यू एशियन बैंक (एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक) का सदस्य बना है, चीन चाहता है कि उसी प्रकार से वह स्टि्रंग आॅफ पर्ल्स, न्यू मैरीटाइम सिल्क रूट, सीपेक और वन बेल्ट वन रोड में भी साझीदार बने। लेकिन उस समय, जब दुनिया के तमाम देश बीजिंग में चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ फोरम में भावी योजनाओं एवं अनुलाभों पर चर्चा कर रहे थे भारत की तरफ से कहा गया कि चीन सीपेक के जरिए भारत की सम्प्रभुता का अनादर कर रहा है और एकता व अखण्डता को प्रभावित कर रहा है तथा वन बेल्ट वन रोड नवउपनिवेशवाद की विशेषताओं से सम्पन्न है। अतः भारत इस फोरम का बहिष्कार कर रहा है।

जब दुनिया के लगभग डेढ़ सौ देश चीनी छतरी के नीचे आकर उसके साथ चलने की मंशा जता रहे हों तब भारत उसके खिलाफ खड़ा होकर विरोध जताए, यह अहमन्यतावादी चीन को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं है। ऐसे में चीन की बौखलाहट का सतह पर आना लाजिमी है। लेकिन क्या भारत को इसे हल्के में लेना चाहिए? यदि नहीं तो भारत को क्या करना चाहिए?

कुछ करने या उस संबंध में सुझाव देने से पहले कुछ बिंदुओं पर गौर करना उचित होगा। पहला यह कि शक्ति-संतुलन चीन के पक्ष में है लेकिन भारतीय नेतृत्व इसे खारिज करता रहा है। वन बेल्ट वन रोड फोरम में शामिल न होकर भारत ने यही संदेश देने की भी कोशिश की है। द्वितीय-एक सामान्य धारणा यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत कूटनीतिक शैली के परिणाम स्वरूप भारत का अंतरराष्ट्रीय कद बेहद मजबूत हुआ है। तृतीय- हाल के दशकों में भारत के बेहतर आर्थिक प्रदर्शन और सूचना प्रौद्योगिकी सेवाओं की बदौलत उसकी श्रेष्ठ वैश्विक छवि निर्मित हुई है।

महत्वपूर्ण बात तो यह है कि भारत-चीन व्यापार के चरित्र में औपनिवेशिक विशेषताएं मौजूद हैं क्योंकि वह कच्चे माल की आपूर्ति करता है और तैयार माल आयात करता है। इसके साथ ही उसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परिवहन संपर्क स्थापित कर लिए हैं और हिंद महासागर में अपनी भौगोलिक पहुंच भी बढ़ा ली है।

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सैन्य संदर्भ में देखें तो गत पांच वर्षों में भारतीय नौसेना ने आठ युद्धपोत अपने बेड़े में शामिल किए जबकि चार रिटायर किए जबकि इसी अवधि में चीन ने 30 युद्धपोत अपने बेड़े में शामिल किए हैं जिनमें से एक तिहाई से ज्यादा पोत उसके दक्षिणी बेड़े में हैं। वायु सेना की मजबूती, अपग्रेडेशन एवं अपडेशन के साथ-साथ आधुनिकीकरण के लिए भारत बाहरी बाजारों पर निर्भर है जबकि चीन पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान बना रहा है। तिब्बत में चीन निर्मित रेलवे लाइन और सड़कों ने उसकी सैन्य परिवहन क्षमता में नाटकीय इजाफा किया है। जबकि इस दिशा में भारत चीन की तुलना काफी धीमी प्रगति कर पा रहा है। इसी दौर में चीन पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल आदि में भारत की तुलना में कहीं अधिक सैनिक-आर्थिक रिश्ते कायम किए हैं जबकि भारत नेबर्स फर्स्ट सिद्धांत के बाद भी इन्हें करीब नहीं ला पाया है (हां श्रीलंका एवं बांग्लादेश में आंशिक सफलता जरूर मिली है) बहरहाल स्थितियां जटिल हैं और चीनी आक्रामकता बढ़ती जा रही है।

भारत को इसे समझना ही नहीं बल्कि रोकने का प्रयास भी करना होगा। इस दिशा में कोई कदम उठाने से पहले भारत को इस बात पर विचार करना होगा कि चीन के लिए डिप्लोमैटिक दबाव महत्व नहीं रखते इसलिए सार्थक निर्णयों एवं पहलों की जरूरत होगी।

(लेखक राजनीतिक व आर्थिक विषयों के जानकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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