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क्या कॉलेस्ट्रॉल आपका दोस्त है, दुश्मन नहीं?

Modern science

कुछ दिनों से कई पुराने शोध पत्रों को खंगाल रहा हूं, वजह कॉलेस्ट्रॉल को लेकर आधुनिक विज्ञान के जानकारों के बीच दबी जुबान से चल रही बहस है। एक शोध पत्र में कॉलेस्ट्रॉल के संदर्भ में प्रकाशित होने वाली सबसे पहली रिसर्च रिपोर्ट की जानकारी मिली। सन 1889 में वैज्ञानिक लेहजन और नॉस ने एक 11 वर्षीय बालक की मृत्यु पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करी थी और रिपोर्ट में बताया गया था कि बच्चे के जन्म से ही उसे हाइपरकॉलेस्ट्रोलेमिया की समस्या थी।

इस रोग के दौरान शरीर में अधिक से अत्यधिक कॉलेस्ट्रॉल बन जाता है जिसकी वजह से कई बार रोगी की मृत्यु तक हो जाती है। ऐसा माना जाता है कि इस बालक की मृत्यु के बाद से ही कॉलेस्ट्रॉल को मृत्यु का कारक माना जाने लगा। इस रिपोर्ट के बाद कई शोधें प्रस्तुत की गईं जिनमें रिसर्च लैब में कॉलेस्ट्रॉल के प्रभावों/दुष्प्रभावों को लेकर लैब एनिमल्स पर क्लिनिकल ट्रायल किया गया और परिणामों को बताया गया।

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सन 1955 में वैज्ञानिक एंसल कीस ने बताया कि हमारे शरीर में कॉलेस्ट्रॉल का स्तर सेवन किए गए खाद्य पदार्थों के आधार पर बढ़ता या घटता रहता है। कीस ने अपनी शोध रिपोर्ट में बताया कि ज्यादा वसीय (फैट) पदार्थों को खाने से हृदयाघात होता है। लेकिन इस तरह की तमाम क्लिनिकल रिपोर्ट्स को खारिज़ करते हुए वैज्ञानिक हेईदी स्टीवेंशन ने बताया कि एंसल कीस जैसे वैज्ञानिकों के शोध अध्ययन पूर्व नियोजित तरीकों से प्रस्तुत किए गए।

हेईदी ने अपने लेख ‘कॉलेस्ट्रॉल इज़ फ्रेंड नॉट एनमी (कॉलेस्ट्रॉल दोस्त है दुश्मन नहीं)’ में तीखी प्रतिक्रिया के साथ कीस की रिपोर्ट को खारिज़ कर दिया था। हेईदी कहती हैं कि ‘कीस ने धोखा दिया, उन्होंने जिन 22 देशों से अपने आंकड़े इकट्ठा किए थे उनमें से करीब 15 देशों ने कीस के परिणामों और निष्कर्ष पर विरोध जताया था क्योंकि इन 15 देशों में हुए अध्ययनों में इस बात की पुष्टि थी ही नहीं कि ज्यादा वसीय पदार्थों से हृदयाघात जैसा कुछ हुआ हो’। कीस के अध्ययन की रिपोर्ट पर सिर्फ 7 देशों के परिणामों का हावीपन स्पष्ट दिखा। ‘यानी, जो परिणाम हमारे समक्ष आए वो पूर्व नियोजित तरीकों से लाए गए, किसी खास मंशा के साथ’ अपने लेख में हेईदी ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में लिखा है।

कई हेल्थ एक्टिविस्ट्स आज भी मानते हैं कि आधुनिक विज्ञान ने कॉलेस्ट्रॉल को विलेन बना दिया है, सवाल उठता है कि आखिर क्यों? जवाब बेहद सादा और आसान है। हर इंडस्ट्री की तरह आधुनिक औषधि विज्ञान भी अपने उत्पादों को बेचना चाहता है, यानी लोग डॉक्टर्स तक जाएं, मिलें और दवाएं खाएं। अकेले कॉलेस्ट्रॉल को विलेन बना दिए जाने से विकसित और विकासशील देशों का एक बड़ा तबका औषधि बाज़ार का नियमित ग्राहक बन गया।

हेईदी जैसे अनेक हेल्थ एक्टिविस्ट्स हैं जो एक के बाद एक प्रकाशित होने वाली शोध रिपोर्ट्स को चैलेंज किए जा रहे हैं। हॉलैंड के मेडिकल एक्टिविस्ट जोनाथन हिस ने सबसे पहले अपने दावों के साथ ये बता दिया कि वैज्ञानिकों की एक जमात किस तरह से अलग-अलग प्रकार के कॉलेस्ट्रॉल के नाम पर शोध करके नए-नए डाटा लाकर खौफ का एक बाज़ार तैयार कर रहे हैं और वो भी मल्टीनेशनल कंपनियों के इशारों पर।

कॉलेस्ट्रॉल पानी में घुलते नहीं इसलिए इन्हें शरीर की कोशिकाओं तक ले जाने का जिम्मा लिपोप्रोटीन्स के पास है। लिपोप्रोटीन के साथ कॉलेस्ट्रॉल को देखकर इन्हें भी कॉलेस्ट्रॉल समझना पागलपन है या एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा। HDL, LDL, VLDL का नाम तो हम सब ने खूब सुना है लेकिन कभी क्ल्योमाइक्रोन्स का नाम नहीं सुना होगा। एक शोध रिपोर्ट बताती है कि ये ज्यादा बड़े लिपोप्रोटीन्स हैं लेकिन अब इसके आकलन के लिए ब्लड का कौन सा टेस्ट किया जाए किसी को आइडिया नहीं है इसलिए इसका कोई जिक्र ही नहीं करता है।

डॉ. दीपक आचार्य के सारे लेख यहां पढ़ें- http://www.gaonconnection.com/author/74345

हमें तो उन्हीं बातों और कारकों को लेकर धमकाया या डराया जाता है जिनका परीक्षण करना पैथोलॉजी लैब को आता है। अब एक बात मेरी भी समझ से परे है कि जो सबसे ज्यादा एक्टिव लिपोप्रोटीन है, उसके परीक्षण का ही अता-पता नहीं है तो डॉक्टर्स को पता कैसे चलेगा कि कौन सी दवा दी जाए जिससे लिपोप्रोटीन के स्तर को सामान्य रखा जा सकेगा? मेरे ख्याल से इस विषय पर खुलकर संवाद होना जरूरी है। ऐसा ना हो कि विकासशील देश के लोग जाने अनजाने में औषधि बाजार के नियमित ग्राहक बने रहें, वो भी बेवजह।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक है।)

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