जलवायु परिवर्तन सम्मेलन: मेजबान पोलैंड को क्यों है कोयले से इतना प्यार?

पोलैंड ने न केवल सम्मेलन स्थल पर जगह-जगह कोयले प्रदर्शित किया है बल्कि उनके राष्ट्रपति एंद्रेजडूडा तमाम नेताओं से ऐसे परिधान पहन कर मिल रहे हैं जो कोयला खान मज़दूरों की वेशभूषा के हिसाब से बनाई गई है।

Hridayesh JoshiHridayesh Joshi   7 Dec 2018 1:51 PM GMT

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जलवायु परिवर्तन सम्मेलन: मेजबान पोलैंड को क्यों है कोयले से इतना प्यार?

कटोविस (पोलैंड)। कटोविस सम्मेलन की शुरुआत के साथ ही जहां कोयले के प्रयोग को रोकने के लिये दुनिया भर से आये पर्यावरण कार्यकर्ता यहां विरोध करते दिखे वहीं लंदन, बर्लिन और ब्रसेल्स जैसे शहरों में भी दूषित करने वाले ईंधन के इस्तेमाल के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुआ। लेकिन खुद पोलैंड जो कि इस महत्वपूर्ण सम्मलेन का मेजबान है उसका कोयले से प्यार बहुत गहरा जो कई सदस्य देशों खासतौर से गरीब और विकासशील देशों के लिये चिंता का विषय है।

फोटो: हृदयेश जोशी

पोलैंड ने न केवल सम्मेलन स्थल पर जगह-जगह कोयले प्रदर्शित किया है बल्कि उनके राष्ट्रपति एंद्रेजडूडा तमाम नेताओं से ऐसे परिधान पहन कर मिल रहे हैं जो कोयला खान मज़दूरों की वेशभूषा के हिसाब से बनाई गई है। डूडा ने सम्मेलन की शुरुआत में ही कह दिया कि कोयले के इस्तेमाल का जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने से कोई लेना-देना नहीं है। कई जानकारों का कहना है कि पोलैंड की अर्थव्यवस्था में कोयले की अहमियत दर्शाने के लिये डूडा यह सब कर और कह रहे हैं लेकिन यह भी साफ है कि पोलैंड कोयले के इस्तेमाल को सही ठहराने की कोशिश में भी लगा है।


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आज पोलैंड की 80 प्रतिशत बिजली कोयला संयंत्रों से बनती है। मंगलवार को ही डूडा ने ब्रजेस्चा (Brzeszcze ) खान श्रमिकों से मिलकर कहा कि वह उनके "हितों" के लिये जागरूक हैं और किसी को भी पोलैंड के कोयला खनन की "हत्या" नहीं करने देंगे।अहम बात यह है कि अभी इसी हफ्ते यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्टऐंजीलिया के शोधकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस साल यानी 2018 में कार्बन उत्सर्जन रिकॉर्ड ऊंचाई पर होंगे जो कि भारत और अन्य विकासशील और गरीब देशों के लिये फ्रिक की बात है क्योंकि जलवायु परिवर्तन की मार सबसे अधिक इन्हीं देशों पर पड़ रही है।

फोटो: हृदयेश जोशी

महत्वपूर्ण है कि पोलैंड के बिल्कुल उलट भारत ने ग्लोबलवॉर्मिंग के ख़तरों से लड़ने के लिये अच्छी तरक्की की है। सम्मलेन के पहले दिन ही सारे देशों को इस बात की जानकारी दे दी कि उसने जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये जिन कदमों को उठाने का वादा पेरिस सम्मेलन के तहत किया है वह तेज़ी से उस लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है और अपने वादे वक्त से पहले ही पूरे करेगा।

लेकिन मेजबान पोलैंड का रुख और कोयले से उसका प्यार बड़ा खतरा बन सकता है। अमेरिका पहले ही जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिये की गई पेरिस संधि से खुद को अलग कर चुका है। अमीर देश – पश्चिमी और यूरोपीय राष्ट्र – कोयले और पेट्रोल डीज़ल जैसे कार्बन युक्त ईंधन का इस्तेमाल कम करने को अनमने हैं। अमेरिका का फैसला और पोलैंड जैसे देशों का रुख इन देशों के आलस और निकम्मेपन को और बढ़ायेगा ही।

जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ हरजीत सिंह कहते हैं "पोलैंड के राष्ट्रपति का बयान पूरे सम्मेलन की अहमियत को ही कम कर देता है। खासतौर से तब जबकि वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी संस्था आईपीसीसी ने कह दिया है कि क्लाइमेटचेंज के ख़तरों से निबटने के लिये हमारे पास केवल 2030 तक का ही समय बचा है, डूडा का बयान निराश करने वाला ही नहीं बल्कि ख़तरे की घंटी है।"

उधर अंग्रेज़ी अख़बार बिजनेसस्टैंडर्ड ने गुरुवार को ख़बर छापी कि अमेरिका समेत यूरोपीय और अमीर देश यह बताने को तैयार नहीं है कि जलवायु परिवर्तन से आने वाली आपदायेंगरीब और विकासशील देशों को जो नुकसान पहुंचायेंगी उसकी भरपाई के लिये कितना पैसा यह अमीर देश देंगे। भारत जैसे देशों के लिये अमीर देशों का यह रुख एक झटका है क्योंकि जैसे जैसे धरती गरम हो रही है बाढ़, चक्रवाती तूफान और सूखे की घटनायें बढ़ रही है और अर्थव्यवस्था पर चोट पहुंच रही है। धरती के गरम होने के लिये अमेरिका और यूरोपीय देश सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं क्योंकि इन देशों औद्योगिक क्रांति की वजह से सबसे अधिक कार्बन वायुमंडल में इन्हीं देशों ने फैलाया है।

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