कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर की वजह से बढ़ते स्वास्थ्य संकट ने हमें ऐसे हालात की ओर धकेल दिया गया है, जहां लॉकडाउन जरूरी लगता है। इसका गैर संगठनात्मक क्षेत्रों से जुड़े दिहाड़ी मजदूरों के रोजगार पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। इस बात का पर्याप्त प्रमाण पहले से मौजूद है कि प्रवासी कामगारों और ग्रामीण गरीबों को भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है और आने वाले समय में भोजन और काम का संकट और गहराने वाला है।
एक सर्वे के आधार पर द राइट टु फूड कैंपेन, भारत और सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज ने हाल ही में ‘हंगर वॉच रिपोर्ट’ पेश की, जो पिछले साल लॉकडाउन से पहले की स्थिति की तुलना लॉकडाउन के बाद (अक्टूबर 2020) की स्थिति से करती है। इसका उद्देश्य देशव्यापी तालाबंदी के प्रभाव का आकलन करना था।
काम-धंधे का छूटना और बढ़ती भूख
इस सर्वे में 11 राज्यों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (निम्न आय वर्ग) के 4,000 लोगों को शामिल किया गया था, जो शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों से ताल्लुक रखते थे।
इसमें पाया गया कि अप्रैल 2020 से पहले (जब वे औसतन 7,000 रुपये प्रतिमाह कमा रहे थे) की तुलना में 27 प्रतिशत लोगों के पास अक्टूबर 2020 में आय का कोई साधन नहीं था। इसके अलावा लगभग 68 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनके खाने-पीने में कमी आई है और वे पहले की तुलना में सब्जियां, फल और दाल जैसे पौष्टिक भोजन का सेवन कम कर रहे हैं। साथ ही 48 प्रतिशत ने यहां तक बताया कि अक्टूबर 2020 में एक समय ही खाना खाया।
दूसरी लहर में और असुरक्षित हुए कामगार
चूंकि इस साल दूसरी लहर को काबू करने के लिए एक के बाद एक राज्यों ने दोबारा से लॉकडाउन लगा दिया है। ऐसे में प्रवासी कामगार और अधिक असुरक्षित हो गए हैं। इनमें से कई अपने गांवों को लौट गए हैं तो एक बड़ी आबादी देश के विभिन्न हिस्सों में अपर्याप्त काम (जितना मिलना चाहिए, उतना नहीं) के बिना फंसी हुई है।
प्रवासी श्रमिकों की मदद करने वाला एक ग्रुप स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (SWAN) पिछले साल से ही श्रमिकों की मदद कर रहा है। उसकी रिपोर्ट के अनुसार 81 प्रतिशत लोगों ने कहा कि इस साल 15 अप्रैल के बाद से ज्यादातर का काम पूरी तरह से बंद हो गया है। तो वहीं 76 प्रतिशत कर्मचारी भोजन और रुपये की कमी का सामना कर रहे थे और उन्हें तत्काल सहायता की आवश्यकता थी। लाखों ऐसे हैं जो इसका सामना कर रहे हैं।
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ग्रामीण भारत में कोरोना का कहर
इस बीच कोरोना वायरस इस बार ग्रामीणों पर भी अपना काफी असर दिखाया है। जिला व ब्लॉक स्तर के प्रशासन ने कड़े नियम लागू किए हैं। कर्फ्यू और लॉकडाउन ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पहले से ही नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। ऐसे में हालात केवल खराब होने वाले हैं।
दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों, पशुपालन करने वाले समुदायों और किसान परिवारों को होने वाले नुकसान से भारी आर्थिक संकट पैदा होगा और कर्जे बढ़ेंगे। पिछले साल पशुपालकों को छोटे पशुओं के लिए अपर्याप्त टीकाकरण और दवा मिलने के कारण चुनौती का सामना करना पड़ा था और इन गतिविधियों में शामिल किसान अभी भी नुकसान से निपटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आगे और नुकसान छोटे किसान परिवारों के लिए खतरनाक हो सकता है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार है जरूरी
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) संकट से निपटने के लिए पिछले साल बहुत प्रभावी रहे हैं। इससे उन लाखों लोगों को रोजगार मिला, जिन्हें अत्यधिक गरीबी का सामना करना पड़ता। इसलिए इस बार पीडीएस और मनरेगा को मजबूत करने की ज्यादा जरूरत है, ताकि कोई भूखा न रहे।
भारत सरकार ने इस साल मई और जून के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के तहत पांच किलो अतिरिक्त मुफ्त अनाज देने की घोषणा की है।
पिछले साल नवंबर में समाप्त हुई प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) को फिर से आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए मई और जून में शुरू किया गया है। यह एक रूढ़िवादी और अपर्याप्त व्यवस्था है और केंद्र सरकार की दूरदृष्टि की कमी को दर्शाता है।
सरकार को तुरंत पीडीएस और पीएमजीकेएवाई के तहत राशन वितरण का दायरा बढ़ाना चाहिए और सभी पात्र परिवारों को योजनाओं के तहत शामिल करना चाहिए। एक स्वतंत्र अध्ययन के अनुसार 2011 की जनगणना के आधार पर एक पुराने डेटाबेस के कारण लगभग एक करोड़ (100 मिलियन) लोगों को राशन वितरण प्रणाली से बाहर रखा गया है।
केंद्र को पीएमजीकेएवाई के तहत मुफ्त खाद्यान्न कार्यक्रम को मई और जून के दो महीने के बजाय एक साल के लिए बढ़ाना चाहिए। महामारी से उत्पन्न आर्थिक संकट लंबे समय तक चलने की आशंका है।
समाचार रिपोर्टों से पता चलता है कि भारत ने पिछले वित्तीय वर्ष में खरीफ और रबी सीजन के दौरान रिकॉर्ड चावल और गेहूं का उत्पादन किया है और मंडियों के माध्यम से खरीद पिछले वर्ष की तुलना में काफी अधिक है। कुल खरीद पीडीएस के लिए कुल आवश्यकता से कहीं अधिक है, भले ही हम पीएमजीकेएवाई के अतिरिक्त आवंटन को शामिल करें। इस प्रकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम का विस्तार करना और पीएमजीकेएवाई के तहत अधिक परिवारों को शामिल करना संभव है।
मनरेगा के लिए बढ़ाना चाहिए बजट
केंद्र ने मनरेगा के तहत 2021-22 के लिए 73,000 करोड़ रुपये (730 अरब रुपये) आवंटित किए थे और मजदूरी में लगभग चार प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि को अधिसूचित किया था। ये दोनों प्रावधान जमीनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त हैं।
मनरेगा के लिए हालिया केंद्रीय आवंटन पिछले साल के संशोधित अनुमान से लगभग 38,500 करोड़ रुपये (385 अरब रुपये) कम है। 2020-21 में मनरेगा में काम करने वाले 75.6 मिलियन घरों में से, भले ही 10 मिलियन परिवार इस वित्तीय वर्ष में मनरेगा से बाहर हो गए हों, लेकिन केंद्र को अभी भी 65 मिलियन परिवारों के लिए साल में 75 से 80 दिनों के रोजगार के लिए बजट देना चाहिए।
इस तर्क से 2021-22 में मनरेगा के लिए मौजूदा 268 रुपये प्रति व्यक्ति मजदूरी की दर से कम से कम 130,000 करोड़ रुपये (1,300 अरब रुपये) का बजट का प्रावधान करना होगा। सरकार को वेतन में मात्र चार प्रतिशत वृद्धि के अपने निर्णय पर भी पुनर्विचार करना चाहिए और इसे कम से कम 10 प्रतिशत बढ़ाना चाहिए। इसके लिए लगभग 10,000 करोड़ रुपये (100 अरब रुपये) और चाहिए होंगे। इसलिए इस वित्तीय वर्ष के दौरान मनरेगा के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए कम से कम 140,000 करोड़ रुपये (1400 अरब रुपये) की आवश्यकता होगी।
केंद्र सरकार को जल्द ही गंभीर होने की जरूरत है, क्योंकि महामारी की दूसरी लहर और लॉकडाउन की वापसी अधिक से अधिक लोगों को भूख और गंभीर नकदी संकट में धकेल देगी। सरकार को सभी के लिए भोजन और रोजगार को प्राथमिकता देनी चाहिए और तुरंत नीतिगत सुधार करना शुरू करना चाहिए।
नोट- लेखक देबमाल्या नंदी नरेगा संघर्ष मोर्चा से जुड़े हैं और उन्होंने 11 साल तक झारखंड और ओडिशा में आदिवासी आबादी के साथ काम किया है।