क्या सिर्फ किस्से, कहानियों और यादों में ही रह जाएगा खरमोर

खरमोर या लैसर फ्लोरिकन पक्षी केवल भारत में ही पाया जाता है लेकिन खत्म होते घास के मैदानों और हमारी उदासीनता की वजह से अब इनका अस्तित्व खतरे में है।
#खरमोर

प्रेरणा सिंह बिंद्रा

मेरी आंखों के सामने घास का मैदान फैला था, सुनहरी घास हौले-हौले हवा के साथ हिल रही थी, लहरों की तरह उठती-गिरती। मैंने निर्जन से लग रहे उस घास के मैदान पर नजर दौड़ाई… मैं यहां उस पक्षी को खोजने आई थी पर सफलता हाथ लगती नहीं दिख रही थी। मैं उम्मीद छोड़ने ही वाली थी कि अचानक मुर्गे के आकार का एक पक्षी हवा में उछला, फिर नीचे आया और फिर उछला। मुझे उसके चमकदार काले शरीर की झलक दिखाई दी, हवा में तैरने के लिए उसने जैसे ही अपने चांदी जैसे सफेद पंख खोले उनके भीतर से रंगों की एक चमक सी निकली।

कुछ-कुछ पलों बाद इस पक्षी का यह प्रदर्शन चलता रहा। यह नर लैसर फ्लोरिकन पक्षी था। वह अचानक से क्षितिज में उभरता, तेजी से पर फड़फड़ाकर अपने खूबसूरत पंखों की नुमाइश सी करता और फिर नीचे बैठ जाता। नर लैसर फ्लोरिकन साथी को रिझाने के लिए दिन में 500 से 600 बार यही कवायद करता रहता है।

यह लगभग एक दशक पहले की बात है। जगह थी गुजरात का वेलवदार नेशनल पार्क। महज 34 वर्ग किलोमीटर में फैला यह नन्हा सा नेशनल पार्क अहमदाबाद से तीन घंटे की दूरी पर स्थित है। फ्लोरिकन पक्षी मॉनसून की शुरूआत में यहां प्रजनन के लिए आते हैं और मॉनसून खत्म होते ही अपने ठिकानों पर लौट जाते हैं, शायद प्रायद्वीपीय और उत्तर भारत के घास के मैदानों। लेकिन वे कहां और क्यों वापस लौट जाते हैं यह आज भी प्रकृति का अनसुलझा रहस्य ही है।

एक समय में लैसर फ्लोरिकन देश के बहुत बड़े हिस्से में पाया जाता था।

उस समय यह एक दुर्लभ नजारा था… आज, यह डर है कि कहीं यह अनोखा प्रणय निवेदन जल्द ही इतिहास न बनकर रह जाए, क्योंकि भारत में अब महज 300 से भी कम लैसर फ्लोरिकन पक्षी बचे हैं। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) की 2017-18 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में सन 2000 में लगभग 3500 लैसर फ्लोरिकन मौजूद थे। इस अध्ययन में अहम भूमिका निभाने वाले और डब्ल्यूआईआई में वैज्ञानिक सुतीर्थ दत्ता का मानना है कि पक्षी की संख्या में आई यह तीव्र गिरावट एक चेतावनी है कि अगर हम इस पक्षी को बचाना चाहते हैं तो हमें उसके संरक्षण के लिए जल्द से जल्द कदम उठाने होंगे। सुतीर्थ कहते हैं, “अगर किसी प्रजाति की संख्या में पिछली 3-4 पीढ़ियों में 75-80 प्रतिशत तक की कमी आए तो इसे उसके लिए गंभीर खतरे का संकेत माना जाता है, जैसा कि लैसर फ्लोरिकन के साथ हुआ है।”

आजादी के पहले और 1970 के दशक तक जब तक इस पक्षी को वैधानिक संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ था, लैसर फ्लोरिकन का जमकर शिकार हुआ। हालांकि, इसकी संख्या में गिरावट की बड़ी वजह है इसके रहने के ठिकानों में तेजी से आती कमी।

लैसर फ्लोरिकन का वैज्ञानिक नाम है सिफियोटाइड्स इंडिकस। यह दुनिया की सबसे छोटे आकार की बस्टर्ड चिड़िया है जिसका वजन 500 से 750 ग्राम है। यह केवल भारत तक ही सीमित है। भारत में इसकी दो और प्रजातियां पाई जाती हैं। एक है ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) और दूसरी द बंगाल फ्लोरिकन। ये दोनों भी खतरे में हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की रेड लिस्ट में इनकी गिनती गंभीर खतरे का सामना कर रही प्रजातियों में होती है। इस समय देश में 150 से भी कम जीआईबी हैं। बंगाल फ्लोरिकन के बारे में ताजा आंकड़े नहीं हैं पर अनुमान है कि देश में इनकी संख्या 350 से भी कम है। ये तराई, दुआर और ब्रह्मपुत्र नदी के बाढ़वाले इलाकों में मौजूद कुछ संरक्षित इलाकों में बिखरी हुई हैं।

लैसर फ्लोरिकन की स्थिति भी इन्हीं की तरह अनिश्चित बनी हुई है। ऐतिहासिक रूप से ये पश्चिम में गुजरात-राजस्थान से पूरब में पश्चिम बंगाल और ओड़िशा तक और उत्तर में पूर्वी उत्तर प्रदेश से दक्षिण में तिरुवनंतपुरम (केरल) तक पाए जाते थे। इन्हें नेपाल की तराई के अलावा कभी-कभी पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार तक भी देखा गया। वर्तमान में, इसकी आबादी मूलत: दो स्थानों- गुजरात में वेलवदार और राजस्थान के अजमेर स्थित शोकलिया भिनानी में ही सीमित है। वेलवदार में 96-115 नर हैं और शोकलिया भिनानी में 110-136 नर।

लैसर फ्लोरिकन की एक और प्रजाति ग्रेट इंडियन बस्टर्ड भी संकट में है।

परती जमीन नहीं हैं घास के मैदान

फ्लोरिकन एक स्वस्थ घास के मैदान में पाई जाने वाली प्रमुख प्रजाति है। इन तीनों बस्टर्ड प्रजातियों की संख्या में आई नाटकीय गिरावट घास के मैदानों के तेजी से होने वाले विनाश से जुड़ी हुई है। घास के मैदान भारत के पारिस्थितिकी तंत्र में सबसे उपेक्षित, कुप्रबंधित और लुप्तप्राय हैं।

आमतौर पर घास के मैदानों को परती भूमि कहकर दरकिनार कर दिया जाता है। फिर इन्हें इनफ्रास्ट्रक्चर, रियल एस्टेट, सड़कें, पावर प्रोजेक्ट, खनन इत्यादि के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसी के चलते फ्लोरिकन के प्राकृतिक आवास नष्ट हुए हैं। अक्सर इन घास के मैदानों में हरियाली लाने की गलत कोशिशों की वजह से यहां प्राय: एक ही तरह के पेड़ लगा दिए गए, इसका इन मैदानों में रहने वाले जीवों की प्रजातियों पर बहुत बुरा असर हुआ।

घास के मैदान हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के सबसे जीवंत घटक हैं, इसके अलावा यह हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। हमारे भोजन का 75 प्रतिशत इन घास के मैदानों से ही मिलता है। हमारे अधिकतर अनाज- गेहूं, चावल, मक्का, जौ, बाजरा और गन्ने जैसी दूसरी फसलें मूलरूप से घास ही हैं। पिछले कई हजार बरसों में हमने चयनात्मक वंश-सुधार या सलेक्टिव ब्रीडिंग के जरिए इनको इन नए रूपों में विकसित किया है।

इनके महत्व को पहचानते हुए योजना आयोग ने देश के घास के मैदानों और रेगिस्तानों के लिए एक टास्क फोर्स नियुक्त की थी। इस टास्क फोर्स ने घास के इन मैदानों को ऐसे जीन बैंक की संज्ञा दी थी जो पारिस्थितिकी और देश की खाद्य सुरक्षा के लिहाज से बहुत अहम आनुवंशिक संसाधन हैं। इन्हीं घास के मैदानों में- पिग्मी हॉग, जंगली भैंस, नीलगिरी तार, भेड़िए, जंगली बिल्ली, दलदली हिरन व हॉग डियर जैसे देश के सबसे दुर्लभ वन्यजीव रहते हैं।

इसके बावजूद एक फीसदी से भी कम घास के मैदान संरक्षित क्षेत्र में आते हैं। अफसोस यह है कि यह एक फीसदी इलाका भी खतरे में है।

इस सिलसिले में मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित सरदारपुर का उल्लेख किया जा सकता है। मैं यहां 2013 में गई थी और यह देखकर बहुत निराश हुई थी कि उस मॉनसून में वहां एक भी लैसर फ्लोरिकन नहीं आया। इससे पिछले साल वहां केवल एक पक्षी आया था। सरदारपुर अभ्यारण्य के लिए बड़े अफसोस की बात थी। इसे भारत के बर्डमैन नाम से मशहूर पक्षी विशेषज्ञ सलीम अली के आग्रह पर 1983 में स्थापित किया गया था, उस समय यह जगह फ्लोरिकन पक्षियों से आबाद थी।

बंगाल में एक तीसरी प्रजाति बंगाल फ्लोरिकन भी पाई जाती है।

यहां इसका स्थानीय नाम है खरमोर। जिस समय अभ्यारण्य की स्थापना हुई उस समय खरमोर समूचे 340 वर्ग किलोमीटर में पाए जाते थे। अब अभ्यारण्य का यह इलाका कम होकर 200 वर्ग किलोमीटर रह गया है।

इन पक्षियों के विलुप्त होने के पीछे बहुत से कारण जिम्मेदार हैं। इस अभ्यारण्य का एक फीसदी से भी कम हिस्सा वन्य भूमि के तहत आता है। बाकी की जमीन या तो सरकारी है या निजी। इससे अभ्यारण्य के अधिकतर इलाकों में इन पक्षियों के संरक्षण में बहुत बाधा आती है। अभ्यारण्य में प्रतिबंधों का अर्थ है कि गांव वाले अपनी जमीन बेच नहीं सकते या इनके बदले बैंकों से लोन नहीं ले सकते। इससे भी इन गांववालों के अंदर गुस्सा है।

फ्लोरिकन को दूसरी चोट पंहुचाई खेती के बदले तरीके ने। ये पक्षी खेतिहर इलाके में भी जाते थे और वहां मौजूद कीट-पतंगों, छोटी छिपकलियों और मेढ़कों को खाया करते थे। ये छोटी-मोटी झाड़ियों में उगने वाले फलों, उनके बीजों और हरे तनों को भी अपना आहार बनाते थे। लेकिन जब से किसानों ने पारंपरिक दालों की जगह सोयाबीन और कपास जैसी नकदी फसलें बोनी शुरू की हैं वे जमकर कीटनाशकों का इस्तेमाल करने लगे हैं। इससे उन कीटों का सफाया हो जाता है जो इन पक्षियों के आहार का मुख्य हिस्सा थे।

ये है आगे का रास्ता

इन पक्षियों को बचाने के लिए ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करना होगा जो लचीले हों, बहुस्तरीय हों और स्थान विशेष के हिसाब से सुझाए गए हों। इसके लिए एक संवेदनशील और समावेशी दृष्टिकोण की जरूरत है जो स्थानीय लोगों की कठिनाइयों को ध्यान में रखता हो क्योंकि इनका समर्थन हासिल करना बहुत महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, निजी भूमि की बिक्री की अनुमति दी जा सकती है बशर्ते वहां पारंपरिक तरीके से ही खेती की जाए।

मुख्य प्रजनन क्षेत्रों के साथ कोई छेड़छाड़ न की जाए, उन्हें जानवरों की चराई और इंसानों के दखल से सुरक्षा मिलनी चाहिए। अन्य संभावित प्रजनन स्थल क्षेत्रों को संरक्षित, बहाल करने और उनका पुनर्निर्माण करने की जरूरत है। फ्लोरिकन के रहने के स्थानों को पारिस्थितक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाए। वहां जमीन के उपयोग और विकास संबंधी गतिविधियों को नियंत्रित किया जाना चाहिए।

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शोकलिया में क्वार्ट्ज, मीका, संगमरमर, चिनाई पत्थर इत्यादि के लिए बड़े पैमाने पर खनन किया जा रहा है इससे घास का यह मैदान टुकड़ों में बंट गया है। वेलवदार का भविष्य भी दांव पर लगा है, इसके पास ही एक विशेष निवेश क्षेत्र प्रस्तावित है। यह जगह जल्द ही उद्योगों, विनिर्माण गतिविधियों का केंद्र बनेगी, यहां लग्जरी होटल, गोल्फ कोर्स, थीम पार्क बनेंगे जिन्हें एक्सप्रेसवे, हाईवे, एयरपोर्ट और समुद्री बंदरगाहों से जोड़ने की कोशिशें होंगी। इसकी परिणति इमारतों के निर्माण, औद्योगिक गतिविधियों, शोरशराबे और प्रदूषण में होगी। इसका बुरा प्रभाव इस पक्षी के आवास, खेती और स्थानीय जीवन पर पड़ेगा।

मुझे भरतपुर राजस्थान की अपनी वे यात्राएं याद हैं जब वहां साइबेरियन सारसों को न पाकर बहुत तकलीफ हुआ करती थी। साइबेरियन सारस सर्दियां बिताने इस मशहूर दलदली इलाके में आया करते थे। लेकिन उनके प्रवास का रास्ता अब इतना खतरनाक हो चुका है कि यह खूबसूरत पक्षी अब केवल हमारी यादों में ही बस कर रह गया है।

तब क्या फ्लोरिकन भी बस हमारी मीठी-कड़वी यादों का मेहमान होकर रह जाएगा? इनकी लगभग निश्चित हो चुकी विनाशकारी नियति देखकर मन में बहुत पीड़ा होती है। लैसर फ्लोरिकन सिर्फ भारत में ही पाए जाते हैं, इस दृष्टि से यह भारत के प्रतीक हैं। अपनी प्राकृतिक धरोहर के प्रति हमारी यह उदासीनता शर्मनाक है।

इसके बावजूद सरदारपुर में उम्मीद की किरणें फूटी हैं। हाल ही में एक वन्य अधिकारी ने एक वीडियो शेयर किया था जिसमें प्रजनन कर रहे फ्लोरिकन के एक जोड़े को दिखाया गया है। पिछले पांच साल से यह अभ्यारण्य ऐसे नजारे के लिए तरस गया था, यहां एक भी खरमोर नहीं देखा गया था। 500 हेक्टेयर के इस घास के मैदान की जबर्दस्त सुरक्षा और शांतिपूर्ण माहौल आखिरकार दो बरस बाद रंग लाया है। 

(प्रेरणा सिंह बिंद्रा भारत की मशहूर वन्यजीव संरक्षणवादी और लेखिका हैं। वह लंबे समय से पर्यावरण और संबंधित विषयों पर लेख लिखती रही हैं। यह लेख अंग्रेजी में द हिंदू में 26 अगस्त 2018 को प्रकाशित हो चुका है।)

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