महात्मा गांधी, किसान और आज का भारत

किसानों और खेती के लिए गांधी का लगाव तब विकसित हुआ जब वह दक्षिण अफ्रीका में थें, जहां उनके आश्रम में वह खेती किया करते थे और बाद में उन्होंने अहमदाबाद और साबरमती के आश्रमों में भी इस गतिविधि को जारी रखा।
#Mahatma Gandhi

गांधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उन चुनिंदा नेताओं में से एक थे जिन्होंने वैचारिक रूप से स्वतंत्रता आंदोलन को एक नया आकार दिया था। महात्मा गांधी ने अहिंसा, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, निष्क्रिय प्रतिरोध के अपने अपरंपरागत माध्यमों के ज़रिए से शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के 200 साल के शासन से भारत को मुक्त करने के लिए मजबूर कर दिया था।

दो अक्टूबर, 1944 को महात्मा गांधी के 75वें जन्मदिवस पर नोबल पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने संदेश में लिखा था, “आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।”

गांधीवादी सिद्धांत ने न केवल स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया बल्कि व्यापक रूप से गांधीवाद एक जीवन शैली बन गया। आज़ादी के मुख्य लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए गांधी ने अपने जीवन में और भी कई मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित किया। गांधीजी ने अस्पृश्यता के उन्मूलन, हिंदू-मुस्लिमों के बीच एकता, स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करके अधिक समावेशी बनाने की कोशिश की और इसके पीछे मुख्य कारण उन्होंने यह बताया की प्रत्येक संप्रदाय, समुदाय, लिंग और वर्ग की भागीदारी के बिना हम आज़ादी हासिल नहीं कर सकते।

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एक और क्षेत्र जहां गांधी ने अपना ध्यान केंद्रित किया वह है कृषि क्षेत्र। किसानों और खेती के लिए गांधी का लगाव तब विकसित हुआ जब वह दक्षिण अफ्रीका में थें, जहां उनके आश्रम में वह खेती किया करते थे और बाद में उन्होंने अहमदाबाद और साबरमती के आश्रमों में भी इस गतिविधि को जारी रखा। 1917 के चम्पारण सत्याग्रह से लेकर 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन तक देखा जाए तो किसान हमेशा गांधी के सत्याग्रह का अनभिज्ञ अंग थे। गांधी ने एक बार कहा था, “अपनी मिट्टी और पृथ्वी को खोदने के तरीके को भूलना, खुद के अस्तित्व को भूलना है।”

गांधी के अनुसार आर्थिक या राजनीतिक शक्ति की एकाग्रता लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करेगी। हिन्द स्वराज में राजनीतिक और आर्थिक शक्ति के केंद्रीकरण की जांच के लिए गांधी ने समांतर राजनीति के संस्थानों और आर्थिक स्वायत्तता की इकाइयों के रूप में पंचायती राज का सुझाव दिया था। गांधी कहते हैं की गांव एक विकेन्द्रीकृत प्रणाली की सबसे छोटी और अहम इकाई है। गांधीवादी विकेन्द्रीकरण का अर्थ समानांतर राजनीति का निर्माण, ग्राम संचालित अर्थव्यवस्था और न्याय प्रणाली में लोगों का सीधा भागीदार होना है। गांधी के आदर्श पंचायत के आर्थिक विकास में किसानों की सहभागिता को सबसे अहम माना गया है। कृषि के साथ साथ पशु-पालन और लघु-कुटीर उद्द्योगों को किसानो के विकास का संचालक माना गया है। गांधीवादी अर्थव्यवस्था का लक्ष्य किसानों और गाँवों को आत्म निर्भर बनाना था।

आज़ादी के बाद का किसान और बदलता भारत

आजादी के उपरांत नीति नियंताओ द्वारा भारी उद्योगों को अर्थव्यवस्था के चालक के रूप में स्वीकृत किया गया। यह एक लम्बे समय से बहस का मुद्दा बना हुआ है कि, क्या भारत द्वारा कृषि क्षेत्र पर आधारित अर्थव्यवस्था का चुनाव किया जाना चाहिए था जिसमें कृषि विकास तथा अर्थव्यवस्था की प्रेरक शक्ति का कार्य करे? अगर हम आज़ादी के दौर का मूल्यांकन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि बिजली, यातायात, और संचार का मूलभूत ढांचा भी कमज़ोर था, साथ ही भारी उद्योगों हेतु आवश्यक तकनीकी शोध व दक्ष संसाधन की भी कमी थी। इसकी तुलना में भारत के पास उर्वर भूमि के रूप में कृषि हेतु आवश्यक संसाधन प्रचुर मात्रा में था, साथ ही मानव संसाधनों को भी किसी प्रकार के उच्च प्रशिक्षण की दरकार नहीं थी ऐसे में कृषि एक स्पष्ट चुनाव होना चाहिए था।

सही समय पर कुछ सीधे और सरल कदम जैसे कि जमीन का स्वामित्व, सिंचाई व उचित पारिश्रमिक आदि उठाने मात्र से ही विकास और भारत की बहुसंख्य आबादी की बेहतरी के रास्ते खोले जा सकते थे। विश्व उद्योगों की शक्ति का अंदाजा द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद की परिस्थितियों से लगा चुका था तथा विश्वपटल की तबकी प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप ही अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और अन्य आर्थिक संस्थाओं का झुकाव भी औद्योगीकरण की तरफ था जिसने तबकी भारत सरकार की नीतियों को प्रभावित किया।

आजादी के आरंभिक तीन दशकों में सरकारों के सामने मुख्य लक्ष्य खाद्यान्नों की खपत के अनुरूप उपज बढ़ाना था जिसकी परिणीति हरित क्रान्ति के रूप में हुई। चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान उद्योगों के क्षेत्र में भी सरकारों द्वारा रासायनिक खाद और कृषि यंत्रों से सम्बंधित उद्योगों पर ज़ोर दिया गया और उच्च उत्पादकता वाली किस्म के बीजों की सहायता से उपज बढ़ने पर ज़ोर दिया गया।

हालंकि हरित क्रांति से मिलने वाली ख़ुशी भी क्षणिक ही रही क्योंकि जल्दी ही यह सिद्ध हो गया कि बढ़ा हुआ फसल उत्पादन भी भारत की बढ़ती जनसँख्या की मांगो को पूरा करने में असफल था। स्वयं को खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर कहने का तमगा मिल जाने के पश्चात भी आम जनता तक उनकी उपलब्धता सुनिश्चित करना व किसानों की आय बढ़ाना एक चुनौती ही रहा। वर्ष 2000 तक ऐसी विरोधाभासी स्थितियां बन चुकी थी जब भारत में अतिरिक्त उपज के बावजूद भुखमरी जैसी समस्या चरम पर थी और देश भर के किसान बदहाल थे।

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2000 के दशक में उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के उपरान्त नेशनल फ़ूड फॉर वर्क प्रोग्राम का आरम्भ हुआ और खाद्य सुरक्षा कानून, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की तरफ एक बड़ा कदम रहा। वर्तमान सरकार द्वारा 2022 तक किसानो की आय को लक्ष्य रखा गया है परन्तु सम्यक दृष्टि से सरकारों की कृषि नीति और पूर्ववर्ती पंचवर्षीय योजनाओ को देखने पर हम पाएंगे कि खाद्य सुरक्षा और किसानो के लिए खेती को लाभ का क्षेत्र बनाने के द्विस्तरीय लक्ष्य को पाना अभी तक की सभी सरकारों के लिए टेढ़ी खीर रहा है। सरकार और नीतिनिर्माताओं का यह समझना ज़रूरी है कि सिर्फ बेहतर पैदावार न तो खाद्य सुरक्षा की गारंटी है न ही किसानो की बेहतर आय की। न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को फौरी सहायता और असुरक्षा से बचाने में अहम् है परन्तु स्थायी और दीर्घकालीन लाभ के लिए ढांचागत सुधारों की आवश्यकता है!

आधुनिक खेती में गांधीवादी सिद्धांतों की प्रासंगिकता

सिंचाई, उन्नत बीज की उपलब्धता आदि सुनिश्चित करते हुए खरीद के उपरान्त होने वाले फसलों के नुकसान से बचाने हेतु ग्राम पंचायतों के स्तर पर कोल्ड स्टोरेज और गोदाम बनवाये जाए। कृषि उत्पादों के मूल्य संवर्धन के लिए खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों की उपस्थिति यदि पंचायत और मंडल स्तर पर सुनिश्चित की जा सके तो किसानो की बेहतर आय की संभावनाएं बढ़ जाएंगी।

2017 के मॉडल एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग समिति एक्ट (एपीएमसी ऐक्ट) ने यह सुविधा दी है कि किसी एक बाजार क्षेत्र के अंतर्गत एक से अधिक बाजार क्षेत्र भी स्थापित किये जा सकते हैं।

ऐसे में राज्य सरकारों का यह प्रयास होना चाहिए कि बाजार या मंडी को किसानो के पास लाया जा सके, जिससे उत्पाद की सकल लागत में कमी आये और किसानो पर से उत्पाद को मंडी तक लाने का अतिरिक्त बोझ हटाया जा सके। कृषि उत्पादों के सरल विनिमय और व्यापार के लिए एक सक्षम और क्रियाशील राष्ट्रीय कृषि बाजार (NAM) जिससे उपभोक्ताओं को उत्पादकों से सीधे जोड़ा जा सके, वर्तमान किसानो की समस्या के समाधान के लिए संभावित परन्तु महत्वाकांक्षी उपाय है।

इसके सफल क्रियान्वयन में उत्पादों के गुणवत्ता आधारित श्रेणीकरण के लिए वैज्ञानिक कृषिशालाओं की उपलब्धता, इंटरनेट कनेक्टिविटी इत्यादि अन्य व्यावहारिक अड़चने हैं। किसानों, व्यापारियों आदि सभी हितधारकों को ऑनलाइन माध्यमों के लिए तैयार करना और इसके प्रति विश्वास जगाना अपने आप में एक चुनौती है।

सरकार को तीन स्तरों पर काम करने की आवश्यकता है जिसमें समर्थन मूल्य पर सरकार द्वारा ही सीधी खरीद, वास्तविक बाजार मूल्य और समर्थन मूल्य के अंतर का किसानो को भुगतान तथा निजी भण्डारण की व्यवस्था और निजी कंपनियों को किसानो से सीधी खरीद के लिए प्रोत्साहित करने की योजना शामिल हो। कृषि क्षेत्र में कॉर्पोरेट निवेश बढाने की ज़रूरत है जिसके लिए एक प्रभावी और पारदर्शी भूमि अधिग्रहण क़ानून और जटिल श्रम कानूनों में सुधार की आवश्यकता है परन्तु इन सबके मध्य इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि किसानों के हितों को सर्वोपरि रखा जाय।

गांधीवादी दर्शन के मूल में यह विचार स्थापित है कि खेती और ग्राम्य जीवन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और गाँवों का जीवन स्तर सुधारने के लिए खेती की बेहतरी ज़रूरी है। एक राजनैतिक और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर गाँव की संकल्पना बिना किसानों को आत्मनिर्भर बनाये साकार होनी संभव नहीं है। गांधी दर्शन के आत्मनिर्भरता के विचार में अपनी जड़ें ढूंढ़ते हुए आधुनिक परिवेश के लिए आवश्यक कदम उठाये जाएँ।

(लेखक शुभम कुमार और शशांक सिंह लेखक डॉ. राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ के छात्र हैं।)

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