कहते हैं टर्की का रहने वाला बाबर वहां नादिरशाह और चंगेज खां का रिश्तेदार था। जो भी हो उसने अयोध्या में जिस जमीन पर मस्जिद बनवाई, वह ज़मीन न तो उसकी पुश्तैनी थी और न उसने खरीदी थी। इसलिए ढांचा जिसे गैरकानूनी तरीके से गिराया गया वह खुद ही गैर कानूनी था। यह दुखद था कि मूल निवासी कमजोर थे और बाबर बलवान, उसने जबरदस्ती ढांचा खड़ा कर दिया था। यदि ढांचे को बचाकर रखना था तो 1947 के बाद उसे पुरातत्व विभाग को सौंप देना चाहिए था, जिसमें नेहरू सरकार निष्क्रिय रही।
इतिहास में न जाएं तो भी जिस दिन 1949 में रामलला मस्जिदनुमा बिल्डिंग में विराजमान हो गए थे या बिठा दिए गए थे, और सरकार इसे गैरकानूनी मानती, तो उसी दिन गोविन्द बल्लभ पंत की प्रदेश सरकार को कार्रवाई करनी थी, यदि नहीं, तो नेहरू सरकार को एफआईआर दर्ज़ करके केस चलाना था। उत्तर प्रदेश और दिल्ली की सरकारें तमाशबीन बनी रहीं। शिया या सुन्नी समाज को इस कब्जे का विरोध करके फौजदारी की रिपोर्ट पुलिस में लिखवानी थी। मुसलमानों के लिए यह मुद्दा शायद गम्भीर नहीं था, वर्ना 1961 तक प्रतीक्षा नहीं करते। साथ ही, सरकार को पक्षकार बनकर जल्दी फैसला करवाना था।
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ऐसा लगता है कि उस समय की सरकार को पता ही नहीं था कि यह सम्पत्ति है किसकी? अन्यथा 500 साल पुरानी संपत्ति का मालिकाना हक जानने के लिए अदालत को खुदाई कराने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसमें संदेह नहीं कि बाबर के पास भारत में संक्रमणीय सम्पत्ति नहीं थी, और उसने जमीन खरीदी भी नहीं थी। जिस तरह बाबर ने अपना मालिकाना हक बनाया था, उसी तरह बेदखल करके जमीन खाली करा ली गई। असदुद्दीन ओवैसी का तर्क है कि यह ‘टाइटल सूट’ (सम्पत्ति की लड़ाई है), इसलिए मामले का फैसला आस्था या परम्परा के आधार पर होना नहीं है, तो जबरिया कब्जा ही आधार बनेगा यानी ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’।
मैं नहीं जानता अदालतें मालिकाना हक किस आधार पर निर्धारित करेंगी, लेकिन यदि 70 साल में किसी नतीजे पर नहीं पहुंचीं तो अदालतें बदलते या बेंच बदलते रहने में कितना समय लगेगा कोई नहीं कह सकता। यदि मोदी सरकार के पास सीमित विकल्प हैं, तो वहीं विकल्प नेहरू सरकार के पास भी थे। यदि उनका सहारा लिया गया होता तो आडवाणी को रथयात्रा करने की जरूरत ही नहीं पड़ती और ढांचा भी सुरक्षित रहता। मुलायम सिंह को कहना न पड़ता ‘परिन्दा पर नहीं मार सकता’ और मुम्बई के दंगे और अयोध्या में गोलियां भी न चलतीं, सैकड़ों जानें बच गई होतीं।
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अदालतें वकीलों के बिना काम नहीं करतीं और कपिल सिब्बल जैसे वकील कहते हैं जल्दी न करिए 2019 के बाद निर्णय सुनाइए। यदि मुअक्किल अपनी पैरवी स्वयं करना भी चाहे तो अनुमति नहीं है। बड़ी अदालतों में सामान्यतः अंग्रेजों की परम्परा में अंग्रेजी के अलावा कोई दूसरी भारतीय भाषा मंजूर नहीं है, इसलिए गरीब अनपढ़ भी वकीलों का मोहताज है।
सोचिए यदि अदालतों ने अयोध्या प्रकरण पर 10-20 साल में निर्णय दे दिया होता तो इतना असंतोष नहीं फैलता। अदालतों को कौन बताए ‘जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाइड’-यानी इंसाफ में देरी, इंसाफ से इनकाऱ होता है। अदालतें जिस तरह जांच एजेंसी को रिपोर्ट देने का समय निर्धारित करती हैं और फरियादी को गवाह सबूत पेश करने की समयसीमा निश्चित करती हैं, तो उचित होगा कि इसी तरह अपने लिए समय सीमा निर्धारित करें।
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हमें पता नहीं कि मुकदमा किस बात का है, बिल्डिंग का या जमीन का। यदि बिल्डिंग का है तो वह उसी तरह गैरकानूनी ढंग से गिराई जा चुकी है, जैसे गैरकानूनी ढंग से मीर बकी ने बनवाई थी, लेकिन यदि ज़मीन का है तो ज़मीन बाबर अपने साथ नहीं लाया था और न खरीदी थी। उसकी पुश्तैनी जमीन यदि टर्की में भी होती तो उसे अफगानिस्तान में क्यों दफनाया गया होता? इसलिए यदि आस्था को दरकिनार कर देते हैं, तो ज़मीन का मालिकाना हक जानने में इतना समय नहीं लगना चाहिए।
इंसाफ़ सुने बिना ही याचिकाकर्ता हाशिम अंसारी की मौत हो चुकी है, देखिए आखिर तक कितने बचेंगे। मसले पर हो रही राजनीति को नजर अन्दाज यदि न किया गया तो निर्णय कठिन है।