राज्य सभा में बहस चल रही थी उसी बीच समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता नरेश अग्रवाल ने हिन्दू देवी देवताओं पर कुछ टिप्पणी कर दी, जिसे बाद में उन्होंने वापस लिया और खेद भी प्रकट किया। टिप्पणी कितनी प्रासंगिक थी यह तो नहीं पता लेकिन इसके बाद सत्ता पक्ष काफी उत्तेजित हो गया था।
कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद सीताराम येचुरी ने एक नया शब्द खोजा ‘हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ और हिटलर के जर्मनी पर व्याख्यान दे डाला। यह व्याख्यान किसान, मजदूर के लिए कितना प्रासंगिक था यह तो वही जानें लेकिन यदि असहिष्णुता की बात करना चाहते थे तो भारतीय परिप्रेक्ष में तथ्यात्मक बातें रख सकते थे।
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प्रायः सांसद चर्चा के विषय पर केंद्रित नहीं रहते, उनका प्रयास रहता है प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से विरोधियों पर कटाक्ष। गाय पर चर्चा आरम्भ करके ‘लिंचिंग’ से लेकर साम्प्रदायिकता और संघ पर चर्चा करने लगे। गुलाम नबी आजाद, सीताराम येचुरी, शरद यादव और डी. राजा को प्रत्येक गुनाह के पीछे संघ दिखाई पड़ता है। कांग्रेस ने तीन बार संघ पर प्रतिबंध लगाया और हर बार हटाना पड़ा। तब क्या अदालतें भी संघ का पक्ष लेती हैं। देश की सरकार और 17 प्रदेशों में सरकारें चलाने की जिम्मेदारी गरीब जनता ने संघ के स्वयंसेवकों को दी है तो क्या वह भी पक्षपात करती है। संसद के सामने गाय से अधिक गम्भीर विषय हैं जिन पर चर्चा होनी चाहिए और गाय को प्रान्तीय सरकारों पर छोड़ देना चाहिए।
भारत की सरहद पर चीन और पाकिस्तान का खतरा मंडरा रहा है जिस पर वरिष्ठ समाजवादी मुलायम सिंह यादव ने ध्यान आकृष्ट किया था। चीन के चरित्र को उजागर करते हुए सरकार को आगाह किया। वह देश के रक्षा मंत्री रह चुके हैं और उन्होंने साधिकार बात की। काफी पहले प्रख्यात समाजवादी और अटलजी की सरकार में रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज ने भी कुछ ऐसी ही बात कही थीं। लेकिन सीताराम येचुरी ने जो कुछ कहा वह अजीबो-गरीब था।
उन्होंने चीन या पाकिस्तान की बात नहीं कही बल्कि उग्र राष्ट्रवाद के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को जिम्मेदार ठहराने में लगे रहे। तब तो नक्सलवाद के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों को और आतंकवाद के लिए मुस्लिम संगठनों को जिम्मेदार मानना होगा। चीन के सम्बन्ध में सीताराम येचुरी ने यह नहीं बताया कि वह मैकमोहन लाइन को मानते हैं या नहीं, उनकी पार्टी ने 1962 में चीन को आक्रमणकारी नहीं माना था और भारत को दोषी माना था। इसी आधार पर उनकी पार्टी का विभाजन हुआ था। अब क्या स्टैंड है।
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संसदीय चर्चा का उद्देश्य यह नहीं रह गया कि मिलकर समस्या का समाधान निकाला जाए बल्कि आपसी गाली-गलौज करके हल्ला मचाया जाता है और संसद का काम काज बंद कराया जाता है। अभी तक विपक्ष ने मोदी सरकार पर भ्रष्टाचार का एक भी मामला नहीं उठाया है जो इल्ज़ाम पिछली सरकार पर लगते थे। जो इल्ज़ाम लगे थे उनका उत्तर और प्रत्यारोप सत्ता पक्ष ने दिया तो आरोपों का उत्तर सुनने वाले ही नहीं थे सदन में।
संसद की बहस में विभिन्न प्रदेशों की कानून व्यवस्था की घटनाओं के लिए केन्द्र सरकार को कार्रवाई न करने के लिए दोषी ठहराया गया। तब क्या संघीय ढांचा समाप्त करना चाहते हैं विपक्ष, जिसके अनुसार प्रदेशों के विषय विधान सभाओं में उठने चाहिए। वैसे यह राष्ट्रपति प्रणाली में सम्भव है और मैं समझता हूं कि यदि ऐसा हो जाए तो बुरा भी नहीं है।
संसद में शायद होड़ लगी है कि कौन दल सबसे अधिक दिनों तक संसद को बाधित करेगा। यूपीए के दिनों में एनडीए ने एक सत्र संसद नहीं चलने दी थी तो अब विपक्ष के लोग हिसाब बराबर करने में लगे हैं। ध्यान रहे कि सांसद वेतन लेते हैं और पेंशन भी लेते हैं। जब सरकारी कर्मचारियों के लिए सेवा नियमावली होती है जिसके अनुसार काम नहीं तो दाम नहीं तो यह नियम सांसदों पर क्यों नहीं लागू किया जाता।
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संसद में तर्क-वितर्क तो होने ही चाहिए लेकिन अब कुतर्क अधिक होते हैं। अब सांसदों को न तो अपनी गरिमा की चिन्ता है और न संसद की। मीडिया का कर्तव्य है कि प्रति वर्ष सांसदों का वार्षिक रिपोर्ट कार्ड जनता को यानी वोटर को बताता रहे। पांच साल के बाद विधायकों और सांसदों का रिपोर्ट कार्ड जारी होना चाहिए कि हाजिरी कितना प्रतिशत रही और बहस में भाग कितनी बार लिया। इस प्रकार पता चलेगा कि पास हुए या फेल। पुरानी गरिमा कैसे वापस आएगी इस पर विचार होना ही चाहिए और यह विचार स्वयं सांसदों को करना है।
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