दीपावली बनी पटाखेदार, सनातन मूल्यों का निकला दिवाला

Dr SB MisraDr SB Misra   28 Oct 2019 6:45 PM GMT

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दीपावली बनी पटाखेदार, सनातन मूल्यों का निकला दिवालादीपावली। फोटो- विनय गुप्ता

दीपावली के साथ पांच-पांच दिनों तक त्योहार लगातार होते हैं धनतेरस, छोटी दीपावली या नर्क चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और भाई दूज। इन त्योहारों को मनाने के तरीकों में विविधता है फिर भी गांवों में आज भी इन्हें शालीनता और शान्ति से मनाया जाता है। पटाखे, आतिशबाजी औरा विस्फोटक सामग्री हिन्दू धर्म की पहचान नहीं रही। पटाखों से ध्वनि और वायु प्रदूषण, लक्ष्मी का पलायन और सनातन परंपरा में विकृति आती है।

माननीय न्यायालय ने जब पटाखे न जलाने का आदेश दिया तो बहुतों को लगा हिन्दू धर्म खतरे में पड़ गया। ध्यान रहे दीपावली शब्द का सीधा अर्थ है दीपों की कतार, इसमें पटाखे शामिल नहीं हैं । इस देश में बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध से पहले शायद तोपखाना या अन्य विस्फोटक प्रयोग नहीं हुए थे। पटाखा की सामग्री मध्यपूर्व के देशों से आई है। भारत में विस्फोटक खनिजों के भंडार पाए ही नहीं जाते थे। प्रभु राम का स्वागत ढोल, नगाड़ों, गीतों और पुष्प वर्षा से हुआ होगा।

ध्यान रहे दीपावली शब्द का सीधा अर्थ है दीपों की कतार, इसमें पटाखे शामिल नहीं हैं । इस देश में बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध से पहले शायद तोपखाना या अन्य विस्फोटक प्रयोग नहीं हुए थे। पटाखा की सामग्री मध्यपूर्व के देशों से आई है। भारत में विस्फोटक खनिजों के भंडार पाए ही नहीं जाते थे।

पटाखों के पक्ष में अजीब तर्क दिए जा रहे हैं कि कल कारखानों और वाहनों तथा शवदाह से निकलने वाले धुआं से भी प्रदूषण फैलता है और हमारे सांस लेने से भी कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है। लेकिन इन पर नियंत्रण के बजाय अचानक और वृद्धि की जाय यह तो बुद्धिमानी नहीं होगी। स्वाभाविक रूप से निकलने वाला धुआं तो पेड़ों के द्वारा अपना भोजन बनाकर मनुष्य को प्राणवायु दी जाती है। अचानक बेतहाशा धुआं को पेड़़ भी पचा नहीं पाएंगे और पटाखों की कानफोड़ू आवाज भी आनन्द नहीं देगी। आजान के लिए मस्जिदों पर लाउडस्पीकर नहीं चाहिए तो आरती के लिए मन्दिरों और देवी जागरण के लिए भी नहीं चाहिए ।

स्वदेशी पक्ष को मानने वालों को पता होगा कि जितने ही अधिक पटाखे जलाएंगे उसी अनुपात में चीनी व्यापारियों की जेब की तरफ़ लक्ष्मी का पलायश्न होगा। यह विडम्बना है कि पूजा लक्ष्मी की करें और लक्ष्मी को पटाखों के माध्यम से विदेश पलायन पर मजबूर करें। यह बौद्धिक दिवालियापन है। लक्ष्मी के स्वागत के लिए गांवों में उनके पद चिन्हें को अपने घर की तरफ बनाते हैं न कि चीन की तरफ़ । गन्नों के खण्डों, पत्र पुष्पों से स्थानीय सामग्री से लक्ष्मी का प्रतीक बनाते है। शहरों में विशेषकर लक्ष्मी गणेश की मूर्तियों की पूजा करते हैं लेकिन पटाखों की पूजा कब आरम्भ हुई यह जिज्ञासा का विषय है ।

ग्रामीण इलाकों में आज भी दियों का ज्यादा महत्व है। बाराबंकी के टांडपुर गांव दिवाली की रात।

हिन्दू धर्म की श्रेष्ठ परम्पराओें में अनेक विकृतियां आई हैं जिनमें ही आतें हैं पटाखे और द्यूत क्रीड़ा यानी जुआ जिसके कारण महाभारत का युद्ध हुआ था। ये विकृतियां धर्म का अंग नहीं मानी जा सकती।

हिन्दू धर्म की श्रेष्ठ परम्पराओें में अनेक विकृतियां आई हैं जिनमें ही आतें हैं पटाखे और द्यूत क्रीड़ा यानी जुआ जिसके कारण महाभारत का युद्ध हुआ था। ये विकृतियां धर्म का अंग नहीं मानी जा सकती। इसी तरह होली के त्योहार पर कीचड़, पत्थर, तारकोल और गोबर फेंकते हैं दूसरों पर और गणेश पूजा में चटख जहरीले रंगों से मूर्तियां सजाकर पूजा करते हैं फिर उन्हें विसर्जित करते हैं नदियों में तो ऐसी विकृतियों पर अंकुश लगाने से हिन्दू धर्म खतरे में नहीं पडेगा़ ।

यह सत्य है कि दीपावली पर्व पर बच्चों के लिए फुलझड़ी, चुटपुटिया और अनार एक मनोरंजन का माध्यम बन चुके हैं लेकिन ग्रेनेड की आवाज में बम फोड़ने से बच्चे आनन्दित नहीं भयभीत होंगे। पुराने समय में बच्चे दीपावली के दूसरे दिन दीप इकट्ठा करके खेलते थे अब तेल की महंगाई के कारण गिनकर दीप जलते हैं, मोमबत्तियां जलती और पटाखे दगते हैं। लेकिन दूसरे दिन पटाखों का कूड़ा बटोरते किसी बच्चे को नहीं देखा, उनसे चोटिल होते देखा है ।

त्योहारों का यह सीज़न नए आर्थिक वर्ष का आरम्भ करता है। किसान अपने खेत जगाता है, दुकानदार दुकान में लक्ष्मी की पूजा करता है, व्यापारी अपना बहीखाता बन्द करके नया आरम्भ करता हैं भले ही वित्तीय वर्ष 31 मार्च तक चलता है। यह अवसर नरकासुर का वध करने वाले कृष्ण और गोरक्षक बलराम की याद दिलाता है, चौदह वर्ष बाद रावण वध करके वापस लौटे राम के माध्यम से रावण और नरकासुर संहार की प्रेरणा देता है । गांवों में गोवर्धन पूजा और पशुओं को सजाकर उनके प्रति आभार व्यक्त होता है। भाई के प्रति बहन का स्नेह प्रकट करने का रक्षा बन्धन के बराबर का त्योहार भाई दूज भी गांवों में ही उत्साह से मनाया जाता है। कितना अच्छा होता हमारा गांव कनेक्शन बना रहता और हम शहर में रहने के बावजूद प्रदूषण न बढ़ाकर गांवों में जाकर अथवा परम्परा निभाकर, ये पांचों त्योंहार शान्ति संकल्प के साथ मनाते ।

   

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