देखो-देखो कांग्रेस ने दिल्ली में प्रजातंत्र बचाने की हुंकार भरी

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देखकर अजीब लगता है कि सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल गांधी नेतृत्व कर रहे हैं प्रजातंत्र बचाओ आन्दोलन का। उन्होंने जन्तर-मन्तर पर धरना देकर बाद में गिरफ्तारी भी दी है। क्या सचमुच प्रजातंत्र खतरे में है और यह आन्दोलन उसे ही बचाने के लिए है। मुझे याद है वह दिन जब इन्हीं लोगों ने प्रजातांत्रिक ढंग से चुने गए कांग्रेस अध्यक्ष और वयोवृद्ध दलित नेता सीताराम केसरी को बिना किसी कार्यवाही के भरी सभा से निकाल कर बाहर कर दिया था और सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया था। कुछ कांग्रेसियों ने सोनिया गांधी के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहा लेकिन उनका हश्र क्या हुआ इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं।  

मैं भूल नहीं सकता 25 जून 1975 का वह सवेरा जब मैं अपने लिए रीवा में चाय बना रहा था और रेडियो पर उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आवाज सुनाई पड़ी ‘‘राष्ट्रपति ने देश में आपातकाल लागू कर दिया है” आतंकित होने की कोई बात नहीं है, उन्होंने आश्वस्त किया था। मेरे ध्यान में आया था कि हमारे राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद साहब तो देश में हैं ही नहीं तो उन्होंने आपातकाल कैसे लगा दिया।

रेडियो पर लम्बे भाषण में इन्दिरा गांधी ने देश को समझाने की कोशिश की थी लेकिन दिमाग नहीं मान रहा था, आखिर क्या होगा आपातकाल में। दिमाग में आ रहा था कि आपातकाल तो तब लगाया जाता है जब विदेशी आक्रमण हुआ हो, देश में सशस्त्र क्रान्ति हो गई हो या राजा मार डाला गया हो। ऐसा तो कुछ नहीं हुआ था। दिमाग काम नहीं कर रहा था, आखिर क्या यह मार्शल ला जैसा होगा या फिर कर्फ्यू जैसा होगा या सारे देश में धारा-144 लगेगी। क्या व्यवस्था पाकिस्तान जैसी होगी या कम्युनिस्ट देशों जैसी? बाहर सड़कों पर निकला तो कर्फ्यू जैसा सन्नाटा तो नहीं था लेकिन सशंकित शान्ति थी। अब तक सभी को पता चल चुका था और घटनाक्रम बड़ी तेजी से बदल रहा था।

अखबारों में अगले दिन पढ़ा कि जयप्रकाश नारायण, अटलबिहारी वाजपेयी, राममनोहर लोहिया, लालकृष्ण आडवाणी, कर्पूरी ठाकुर, चन्द्रशेखर और सभी सैकड़ों नेता जो उम्र और अनुभव में इन्दिरा गांधी से सीनियर थे जेलों में ठूंस दिए गए थे। देश हक्का-बक्का था, किसी को पता नहीं था कैसा समय आने वाला है। प्रजातंत्र की गुहार लगाने वाले नेता जेलों में बन्द थे, छुटभैयों द्वारा भी आम सभाएं नहीं हो रही थीं, सड़कों पर नारे नहीं लग रहे थे और हड़तालें नहीं हो रही थीं। एक दिन अखबारों में पढ़ा कि आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और तमाम कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया है, पता नहीं क्या संघ द्वारा जय प्रकाश नारायण का साथ देने के कारण यह सब हो रहा था।

लोग आतंकित होने लगे, बस यात्रा से घबराने लगे क्योंकि बस से उतार कर यात्रियों की नसबन्दी कर दी जाने लगी। आजकल तो ऐसा कुछ नहीं है। अब तो प्रजातंत्र मुस्तैद है इसे बचाने की जरूरत नहीं है। खुलेआम सदन और सदन के बाहर हुड़दंग मचा रहे हैं तो और कैसा प्रजातंत्र चाहिए। भेड़िया आया भेड़िया आया चिल्लाना ठीक नहीं क्योंकि यदि सचमुच मोदी ने आपातकाल लगा दिया तो गरीब जनता समझेगी ये लोग वही भेड़िया वाला खेल, खेल रहे हैं।

उस समय इस देश के कद्दावर दलित नेता बाबू जगजीवन राम को घुटन महसूस हुई और वह कांग्रेस से बाहर निकले फिर अपनी पार्टी बनाई। नाम रखा ‘‘कांग्रेस फॉर डिमॉक्रेसी।” कांग्रेस में प्रजातंत्र लेशमात्र भी बचा होता तो बाबूजी पार्टी नहीं छोड़ते। कांग्रेस का प्रजातंत्र इस देश ने पहले भी देखा है जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को पार्टी का विधिवत अध्यक्ष चुना गया था और नेहरू ने साथ नहीं दिया था, जब सारा देश पटेल को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता था लेकिन प्रजातांत्रिक इच्छाओं का गला घोंटकर नेहरू को बनाया गया था, जब राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को सभी कार्यकर्ता अध्यक्ष बना चुके थे लेकिन नेहरू ने उन्हें स्वीकार नहीं किया था। इसमें सन्देह नहीं कि सरकार की कमियों को उजागर करना विपक्ष का अधिकार और कर्तव्य है लेकिन अनावश्यक विरोध शायद गरीब जनता को रास नहीं आएगा। भले ही मुद्दे बहुत हैं लेकिन प्रजातंत्र की हत्या जैसा नारा सामयिक नहीं है।

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