हाल में ही दिल्ली के सिरी फोर्ट सभागार में ग्वालियर घराने की महारानी राजमाता विजयराजे सिन्धिया की आत्मकथा ‘राजपथ से लोकपथ पर’, आधारित फिल्म ‘एक थी रानी ऐसी भी’ की स्क्रीनिंग का कार्यक्रम हुआ था।
इस फिल्म में मुख्य भूमिकाएं प्रसिद्ध अभिनेत्री हेमा मालिनी और अभिनेता विनोद खन्ना ने निभाई है जबकि निर्देशक गुलबहार सिंह है। इस फिल्म का निर्देशन राजमाता विजायराजे सिंधिया स्मृति न्यास ने किया है। इस फिल्म की शूटिंग जयपुर, दिल्ली, सवाई माधोपुर, हैदराबाद और मुंबई में हुई है। इस फिल्म के निर्माण में विषय की व्यापकता को देखते हुए, उसे पूरी प्रमाणिकता से तैयार करने के लिए गहरे शोध के कारण करीब सात साल का समय लगा।
महादजी सिन्धिया उन तीन बड़े मराठा नेताओं में से एक थे जो पानीपत के युद्ध में से बच पाए थे। महादजी सिन्धिया पानीपत की लड़ाई में चोट लगने के कारण लंगड़े हो गए थे, वे अपने समय के भारत के सबसे बड़े सेनापति थे, सबसे महान जनरल थे। उनको हराना कठिन था। वे शाह आलम को इलाहाबाद से दिल्ली लाए और उसे दिल्ली की गद्दी पर बिठाया।
इस अवसर पर वर्तमान में गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा की लिखी और प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘राजपथ से लोकपथ पर’ के हिंदी और अंग्रेजी संस्करणों का भी विमोचन हुआ।
इस कार्यक्रम में शामिल होने वाले दर्शक, अधिकतर दिल्लीवासियों की तरह इस बात से अनजान होंगे कि वर्ष 1803 में पहली बार ब्रितानी फौजों ने सिंधिया के सेना को हराकर ही दिल्ली में प्रवेश किया।
उससे पहले यानि तब दिल्ली में मराठों का वर्चस्व था। अपनी राजधानी में स्वयं प्रवेश करने में असमर्थ निर्वासित मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय को वर्ष 1772 में मराठा सेनाएं, मराठा संगीनों के साये में, इलाहाबाद से दिल्ली लाईं और उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया। उसने लगभग सब अधिकार मराठों को दे दिए। मुगल दरबार का एक बड़ा पद था, वजीरे-मुतलक। वजीरे-मुतलक को वजीरे-आलम को छोड़कर दरबार के शेष सब पदों पर नियुक्तियां करने का अधिकार होता था। शाह आलम ने पेशवा को वजीरे-मुतलक बनाया और पेशवा के प्रतिनिधि के रूप में महादजी सिन्धिया वजीरे-मुतलक के अधिकारों का उपयोग करने लगे।
महादजी सिन्धिया उन तीन बड़े मराठा नेताओं में से एक थे जो पानीपत के युद्ध में से बच पाए थे। महादजी सिन्धिया पानीपत की लड़ाई में चोट लगने के कारण लंगड़े हो गए थे, वे अपने समय के भारत के सबसे बड़े सेनापति थे, सबसे महान जनरल थे। उनको हराना कठिन था। वे शाह आलम को इलाहाबाद से दिल्ली लाए और उसे दिल्ली की गद्दी पर बिठाया। पर वजीरे-मुतलक का पद उन्होंने अपने लिए नहीं लिया, पेशवा के लिए वह पद लिया और अपने को केवल पेशवा का नायब घोषित किया। इस प्रकार दिल्ली के लगभग एक सौ मील का इलाका महादजी का निजी प्रभाव क्षेत्र बन गया। इसके बाद अपनी मृत्यु के समय, अगले इक्कीस वर्ष तक, महादजी सिंधिया वास्तविक अर्थ में उत्तर भारत के एक बड़े भाग के व्यावहारिक तौर पर एक स्वतंत्र शासक थे। पैंसठ साल की आयु में महादजी का 12 फरवरी 1794 में पूना में देहांत हुआ।
तब से लेकर 1803 तक दिल्ली पर मराठों का वर्चस्व बना रहा लेकिन 1803 में घटनाचक्र कुछ इस प्रकार से पलटा कि अंग्रेजी सेनाएं दिल्ली में प्रविष्ट हो गईं और तब से दिल्ली अंग्रेजों के प्रभाव में आ गयी। इसलिए 1803 भी हमारे इतिहास का संक्रांति काल है, एक ऐतिहासिक पड़ाव है, टर्निंग प्वाइंट है, जिसको हमें अपनी दृष्टि से समझने का प्रयास करना है।
वर्ष 1803 में ब्रितानी फौजों ने सिन्धिया की मराठा सेना को हराकर दिल्ली पर अपना कब्जा किया था। जबकि इस हकीकत के विपरीत आम तौर पर माना यह जाता है कि अंग्रेजों ने मुगलों को परास्त करके भारत पर अपना अधिकार जमाया।
जाहिर तौर पर दिल्ली के यमुना पार इलाके में पटपड़गंज की असली पहचान, उसकी मशहूर हाउसिंग सोसाइटियों के जमावड़े और मदर डेयरी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। ऐसा इसलिए है कि यह स्थान कभी दिल्ली के लिए हुई निर्णायक लड़ाई का मैदान था। करीब दो सौ साल से भी पहले सितंबर महीने में हुए एक भयानक युद्ध ने न केवल दिल्ली बल्कि देश के इतिहास को हमेशा के लिए परिवर्तित कर दिया।
इसी पटपड़गंज में 11 सितंबर 1803 को जनरल गेरार्ड लेक के अंग्रेज सैनिकों और फ्रांसिसी कमांडर लुई बॉरक्विएन के नेतृत्व में सिंधिया की सेना में दिल्ली पर वर्चस्व को लेकर एक भयंकर लड़ाई हुई थी। दिल्ली की लड़ाई और इसके 12 दिन बाद महाराष्ट्र में जालना के नजदीक हुई असाई की लड़ाई, जिसने द्वितीय अंग्रेज-मराठा युद्ध के परिणाम को निश्चित कर दिया, ने उत्तर भारत में मराठा शक्ति के अवमूल्यन और उत्तर भारत में अंग्रेजों के प्रभुत्व को निर्णायक रूप से तय कर दिया।
पटपड़गंज की लड़ाई, दिल्ली पर प्रभुत्व का संघर्ष था। सिन्धिया की मराठा सेना की हार के तीन दिन बाद दिल्ली ने भी हथियार डाल दिए। आज पटपड़गंज में जहां ग्रुप हाउसिंग सोसाइटियों के घर हैं, वहां कभी युद्ध का मैदान था। भारतीय इतिहास के इस महत्वपूर्ण और निर्णायक युद्ध की एकमात्र स्मृति, नोएडा गोल्फ कोर्स की हरियाली के बीच खड़ा स्मारक-स्तंभ है। वर्ष 1916 में स्थापित इस स्तंभ पर उत्कीर्ण रिकॉर्ड के अनुसार, इस स्थान के पास 11 सितम्बर 1803 को दिल्ली की लड़ाई लड़ी गई थी, जिसमें लुई बॉरक्विएन की कमान में सिन्ध्यिा की मराठा फौजों को जनरल गेरार्ड लेक के नेतृत्व में ब्रितानी सेना ने पराजित किया था।
‘द एंग्लो-मराठा कैम्पैनस एंड द कन्टेस्ट फाॅर इंडियाः द स्ट्रगल’ पुस्तक में रैंडोल्फ जी एस कूपर लिखते हैं कि इस लड़ाई का स्थान एक छोटा सा दोआब था जो कि पूर्व में हिंडन नदी और पश्चिम में यमुना नदी से घिरा हुआ था। इसे धर्नधेरी मैदान के नाम भी पुकारा जाता था। कुछ इतिहासकारों ने इस लड़ाई को धर्नधेरी की लड़ाई का भी नाम दिया है। जबकि कुछ ने इसे पटपड़गंज की लड़ाई कहा है लेकिन लेक के प्रयासों से मिली सफलता के कारण अंतः यह स्थान दिल्ली की लड़ाई के रूप में ही जाना गया।
बिखरती सल्तनत के मुगल बादशाह ने मराठों के खिलाफ अंग्रेजों से मदद क्या मांगी कि वास्तव में सत्ता ही उनके हाथ से निकल गई। ‘शाहजहानाबादः द साविरजिन सिटी ऑफ़ मुगल इंडिया 1639-1739’ में स्टीफन पी. ब्लेक लिखते हैं कि अंग्रेजों और मुगल सम्राट के बीच संबंध तनावपूर्ण थे और इस संबंध में 1858 में बहादुर शाह द्वितीय के अपदस्थ होकर निर्वासित होने तक गांठ बनी ही रही। शाह आलम ने लाॅर्ड लेक से संरक्षण की गुहार की थी लेकिन इसको लेकर एक औपचारिक संधि कभी नहीं हुई।
वर्ष 1805 के एक आदेश से अंग्रेजों ने उनके संरक्षण के नियम तय किए। ये नियम थे शहर के पास भूमि से मिलने वाला राजस्व को मुगल सम्राट के लिए अलग से रखा जाएगा। हालांकि शाह आलम का इस भूमि पर कोई अधिकार नहीं होगा और इस भूमि से संबंधित राजस्व संग्रहण और न्यायिक प्रशासन का दायित्व अंग्रेजों का होगा। अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में दो न्यायिक अदालतें स्थापित की गई। एक शहर के लिए और दूसरी आसपास के क्षेत्र के लिए और सम्राट के पास केवल मौत की सजा की पुष्टि का अधिकार था। शाल आलम को केवल लाल किले और महल के भीतर ही आपराधिक और दीवानी कानून शासन का अधिकार था।
इस तरह, अंग्रेजों ने पहले तो मुगल बादशाह के नाम पर शासन करना शुरू किया और बाद में सत्ता पर ही काबिज हो गए। कभी लगभग पूरे भारत पर ही राज्य करने वाले मुगलों के वंशज अब अंग्रेजों से पेंशन पाने लग गए थे। कहने को तो पहले की ही तरह वे बादशाह थे लेकिन असली सत्ता अंग्रेज रेजीडेंट और उसके सहयोगी अफसरों के हाथों में चली गई थी।
अगर तुलनात्मक रूप से देंखे तो भारतीय (मराठा) और (अंग्रेजों) के संरक्षण के नियमों में कुछ खास फर्क नहीं था। इन दोनों पक्षों ने ही मुगल सम्राट को पेंशन दी और राजस्व प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने मुगल दरबार में अपने एक प्रतिनिधि या एजेंट को नियुक्त किया और सेना के इस्तेमाल को लेकर अपने एकाधिकार को कायम रखा। लेकिन मुख्य अंतर यह था कि महादजी सिन्धिया के नेतृत्व में मराठों ने सम्राट के रूप में शाह आलम की स्थिति को स्वीकार किया और उसके कागजी शासन में अपने लिए मंत्री के पद को स्वीकार किया। जबकि उसके उलट, अंग्रेजों ने उसे एक कमजोर और पेंशनभोगी और नाम के दरबार के एक अंधे बूढ़े व्यक्ति से अधिक की अहमियत नहीं दी।