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त्वरित टिप्पणी : प्रजातंत्र का चौथा खंभा गिरेगा या बचेगा 

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प्रजातंत्र के चौथे खम्भे विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता को वर्ष 1975 में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने एक झटके में ढहा दिया था, लेकिन 1977 में जय प्रकाश नारायण की अगुवाई में उन्हें फिर से खड़ा किया गया था।

उसके बाद गंगा में बहुत पानी बह चुका है और अब ये खम्भे उतने कमजोर नहीं हैं, जितने उस जमाने में हुआ करते थे। आशा है राजे रजवाड़ों के वंशजों को भी इस बात का एहसास होगा। ऐसा लगता है आपातकाल के खिलाफ़ लड़ने वाली विजय राजे सिंधिया की बेटी और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे का सोचना है कि सूचना का अधिकार समाप्त किया जा सकता है और पत्रकारों को अपना कर्तव्य करने से रोका जा सकता है।

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वसुन्धरा जी ने अध्यादेश जारी किया है कि मंत्रियों और अधिकारियों के खिलाफ बिना इजाजत कार्रवाई नहीं हो सकती। यह तो अभी भी है, लेकिन उनके खिलाफ यदि मीडिया अपने तरीके से जानकारी इकट्ठा करता है और उसे छाप भी नहीं सकता, यह घोर अन्याय है। ऐसा ही था आपातकाल में जब सम्पादकीय को सरकार से अप्रूव कराना होता था। तब इंडियन एक्सप्रेस के स्वनामधन्य सम्पादक रामनाथ गोयनका ने एक दिन सम्पादकीय कालम खाली छोड़ दिया था। जनता ने भी साहस नहीं दिखाया था और लालकृष्ण अडवाणी ने अपनी अपनी पुस्तक में लिखा है “दे वर आस्क्ड टु बेन्ड, दे क्राल्ड”। आशा है इतिहास अब अपने को नहीं दोहराएगा।

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कोई भी सरकार पत्रकारों को जानकारी इकट्ठा करने और उसे छापने से कैसे रोक सकती है और वह भी जब देश में प्रेस की यदि गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता है तो उसके खिलाफ़ अदालती कार्रवाई सम्भव है, लेकिन पत्रकारिता का गला घोंटना ठीक नहीं। अभिव्यक्ति की आजादी पर राजस्थान पत्रिका ने स्पष्ट मत व्यक्त किया है, अब बाकियों की बारी है। जो लोग अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर तमगे वापस कर रहे थे, उनसे भी कुछ अपेक्षाए हैं।

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