चंपारण: सबसे पहले प्रयोग, सबसे पहले ‘महात्मा’

गाँव कनेक्शनगाँव कनेक्शन   22 April 2018 12:28 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
चंपारण: सबसे पहले प्रयोग, सबसे पहले ‘महात्मा’गांधी को ‘महात्मा’ का संबोधन या उपाधि किसने दी?

गांधी को 'महात्मा' का संबोधन या उपाधि किसने दी?

यह वह प्रश्न है जो संघ लोक सेवा आयोग अथवा राज्य लोक सेवा आयोगों द्वारा आयोजित तमाम परीक्षाओं में कभी न कभी पूछा गया है। इसका उत्तर आप जानते होंगे। जो जवाब आपका है, वही सर्वस्वीकार्य भी है। और वही तथ्य गुजरात उच्च न्यायालय भी स्वीकार करता है।

अगर आप जवाब नहीं जानते तो इस पर बाद में चर्चा करेंगे। पहले यह चर्चा कर ली जाए।

चंपारण गंगा के पार हिमालय की ठेठ तराई में नेपाल का सीमा प्रदेश है, अर्थात नई दुनिया है। वहाँ न कहीं कांग्रेस का नाम सुनाई देता है, न कांग्रेस के कोई सदस्य दिखाई पड़ते हैं। जिन लोगों ने नाम सुना था, वे इसका नाम लेने अथवा समिल्लित होने से डरते थे। आज कांग्रेस के नाम के बिना कांग्रेस ने और कांग्रेस के सेवकों ने इस प्रदेश में प्रवेश किया और कांग्रस की दुहाई फिर गायी।

साथियों से परामर्श करके मैंने निश्चय किया था कि कांग्रेस के नाम से कोई भी काम न किया जाए। हमें नाम से नहीं बल्कि काम से मतलब है। 'कथनी' नहीं, 'करनी' की आवश्यकता है।

चंपारण के इस सत्याग्रह से 31-32 साल पहले, दिसंबर 1885 को जिस कांग्रेस की स्थापना हुई, गांधी जी के ये शब्द न सिर्फ उस कांग्रेस की हक़ीक़त बता रहे हैं, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन 'कितना जनमानस' से जुड़ पाया था, यह भी बताते हैं।

ऐसे में गांधी जी ने जो कुछ भी देखा और किया, वह अपने आप में 'सबसे पहला' था और सबसे अनोखा भी!

स्वतंत्रता आंदोलन में कैसे आमजन मानस को जोड़ा जाए, इसका प्रयोग उन्होंने चंपारण की धरती पर ही किया। न सिर्फ अनपढ़ और गरीब किसानों के लिए अंग्रेज अपराजय थे बल्कि चंपारण सत्याग्रह में गांधी जी के सहयोगी रहे वकीलों के लिए भी सरकारी नियम-क़ायदे प्रतिरोध की अंतिम सीमा थे। उससे आगे कोई नहीं जाता था। मोतीहारी के मुशी सिंह कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर राजेश रंजन वर्मा इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हैं कि भारत आगमन के बाद गांधी ने गोखले की सलाह पर जिस भारत को देखा, उसी अनुभवों का यह नतीजा था जो उन्होंने चंपारण को अपने प्रयोगों की धरती बनाया और इनकी सफलता सुनिश्चित होने के बाद यही तरीके भारत में हुए अन्य आंदोलनों में अपनाए गए।

बात चाहे गांधी जी को मिले पहले समन की हो, चंपारण छोड़ने के आदेश की हो या मजिस्ट्रेट के सामने अपना जुर्म कुबूल करने की या जेल जाने की तैयारी की हो... अपने निर्णयों से गांधी जी ने सबको चकित कर दिया। क्योंकि कथित जुर्म को कुबुल करना और सरकारी आदेश को ठुकरा देना, ये दो बातें ऐसी थीं जिनकी कल्पना उस समय शायद ही किसी ने की हो।

ऐसा ही गांधी जी यहाँ सबसे पहले उस भयानक गरीबी को देखा जिसने उन्हें अपनी कठियाबाड़ी पगड़ी की उपयोगिता पर सोचने पर विवश कर दिया। फिर आगे चलकर इसी क्रम में गांधी ने अपने वस्त्र त्याग दिए और जीवनभर एक धोती में 'अधनंगे फकीर' की तरह रहे।

गांधी जी स्वयं लिखते हैं कि उन्होंने चंपारण में ही ईश्वर का, सत्य का और अहिंसा का साक्षात्कार किया।

दुनिया की नजर में गांधी जी के इन कार्यों ने भले उन्हें 'महात्मा' बनाया लेकिन हक़ीक़त में राजकुमार शुक्ल चंपारण आगमन से पहले ही गांधी में महात्मा को न सिर्फ पहचान चुके थे बल्कि उन्हें महात्मा 'बना' भी चुके थे। इसकी पुष्टि गांधी जी को लिखे पत्र से होती है, जिसमें वह उन्हें 'महात्मा' के नाम से संबोधित करते हैं। इसके अलावा राजकुमार शु्क्ल की दैनिक डायरी भी इस बात की पुष्टी करती है जिसमें वह हर घटना का जिक्र करते थे।

संभव है कि राजकुमार शुक्ल ने 'भावनाओं में बहकर' गांधी को महात्मा गांधी कह दिया हो लेकिन 'पहले' की बात करें तो निश्चित ही, राजकुमार शुक्ल गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर से पहले ही मोहन दास को 'महात्मा' कह चुके थे।

सबसे ऊपर जिस प्रश्न का उत्तर पूछा गया है उसका इतिहासकारों में सर्वस्वीकार्य जवाब रविंद्रनाथ टैगोर ही है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आख़िर क्यों राजकुमार शुक्ल को इस बात का 'क्रेडिट' न दिया जाए कि उन्होंने गांधी को महात्मा कहा? न सिर्फ राजकुमार शुक्ल ऐसा कहने वालों में हैं बल्कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने चंपारण पर जो किताब लिखी है, उसमें भी वह हर जगह गांधी जी को 'महात्मा जी' कहकर संबोधित करते हैं।

हालांकि यह किताब चंपारण के एक साल बाद लिखी गई है लेकिन इसकी शैली देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि राजेंद्र प्रसाद भी गांधी को महात्मा जी से ही संबोधित करते होंगे। चूंकि यहाँ समय स्पष्ट नहीं है तो राजेंद्र प्रसाद जी को हम 'छोड़' सकते हैं लेकिन राजकुमार शुक्ल के साथ ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि उनका तो लिखित प्रमाण मौजूद है।

'सबसे पहले' का यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित है। उम्मीद है चंपारण की शताब्दी की चर्चा में इस प्रश्न पर भी कोई गौर करेगा।

(लेखक, अमित और सह लेखक विश्वजीत मुखर्जी ऑफप्रिंट से जुड़े हैं)

ताजा अपडेट के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए यहां, ट्विटर हैंडल को फॉलो करने के लिए यहां क्लिक करें।

      

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.