आखिर क्यों आक्रोशित हैं महाराष्ट्र के किसान ?

Mithilesh DharMithilesh Dhar   12 March 2018 1:52 PM GMT

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आखिर क्यों आक्रोशित हैं महाराष्ट्र के किसान ?आंदोलन में बैठे महाराष्ट्र के किसान।

महाराष्ट्र के लगभग 35000 किसान मुंबई के ठाणे पहुंच चुके हैं। ये किसान महाराष्ट्र विधानसभा को घेराव करेंगे। हर दिन 30 से 35 किमी चलकर किसानों ने ठाणे पहुंचने के लिए 180 किमी की यात्रा पूरी की। ये पैदल यात्रा 6 मार्च को शुरू हुई थी। इस बहुत से किसान बीमार पड़े गये। सैकड़ों किसानों के पैर छिल गये, खून बहने लगा, लेकिन किसानों के पैर थमे नहीं। खास बात ये है कि इस आंदोलन में महिला किसानों की भूमिका भी बराबर की है। मार्च में तो कई महिला किसानों के पैर में चप्पल तक नहीं हैं।

खेतों में खून-पसीना बहाने वाले ये किसान आखिर सड़कों पर अपना खून क्यों बहा रहे हैं ? क्यों हजारों किसान भूखे-प्यासे लगातार चलते रहे ? अब जबकि किसानों का ये आंदोलन राष्ट्रव्यापर होता दिख रहा है तो, ये जान लेना भी जरूरी है कि महाराष्ट्र के ये किसान ऐसा कर क्यों कर रहे हैं ? किस बात को लेकर इनके अंदर इतनी नाराजगी है ?

मराठवाड़ा इलाके में काम कर चुके किसान संगठनों से जुड़े पत्रकार प्रशांत शेल्के कहते हैं "प्रदेश सरकार ने किसानों को धोखा दिया है। कर्ज माफी के आंकड़े गलत दिखाए गए हैं। ग्रामीण बैंकों की हालत पहले से ही खराब है। ऐसे में कर्जमाफी का काम पूरा हो ही नहीं पाया। इस तरह की स्थिति में बैंकों को जितने किसानों को लोन देना चाहिए उसका दस फीसद भी अभी नहीं हो पाया है। कर्ज की प्रक्रिया ऑनलाइन है, किसानों को इसकी जानकारी ही नहीं हैए डिजिटल साक्षरता किसानों को दी ही नहीं गई है। "

प्रशांत आगे कहते हैं "किसानों के साथ मजाक ही किया गया है। किसान अनपढ़ है। उसे कर्जमाफी का लाभ मिला ही नहीं। सरकार को इसके लिए बेहतर तैयारी करनी चाहिए। इस लापरवाही के लिए सरकार ही जिम्मेदार है। जब किसान इंटरनेट ही नहीं समझते, तो सरकार ऐसी कार्ययोजना बनानी ही नहीं चाहिए थी। किसानों ने पंजीकरण केंद्र के लिए लगाए गए शिविरों में जाकर ये पता लगाया कि उनका नाम लाभार्थियों की सूची में शामिल किया गया है या नहीं, और उन्हें निराशा ही हाथ लगी।"

किसानों की मांग है कि उन्हें स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशों के अनुसार C2+50% यानी कॉस्ट ऑफ कल्टिवेशन (यानी खेती में होने वाले खर्चे) के साथ-साथ उसका पचास फीसदी और दाम समर्थन मूल्य के तौर पर मिलना चाहिए। किसान नेता मानते हैं कि ऐसा करने पर किसानों की आय की स्थिति को सुधारा जा सकता है।

देश के जाने माने बिजनेस पत्रकार कमल शर्मा कहते हैं "सरकार को किसानों की समस्याओं की ओर ध्यान देना चाहिए। किसानों की समस्या का समाधान करने के लिए उन्हें उचित समर्थन मूल्य दिया जाना चाहिए। न्यूनतम समर्थन मूल्य दे देना काफी नहीं। उन्हें मदद चाहिए, उनकी स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ रही है। प्रकृति की नाराज़गी के साथ-साथ राज्य सरकार के फैसलों ने किसानों की समस्या को केवल बढ़ाया ही है। बाजारों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। ऐसे में उसका असर सीधे किसानों पर पड़ता है।"

कमल आगे बताते हैं "आपको एक उदाहरण देता हूं। सरकार ने कहा पैदावार बढ़ाओ, देश में दाल की बंपर पैदावार होने वाली है। लेकिन दाल की खपत सबसे ज्यादा भारत में है। अन्य देशों में दाल की उतनी मांग नहीं है। अब सराकार दाल का निर्यात नहीं कर पायेगी। कीमतें गिरेंगी। सोयाबीन और मुंगफली के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। सरकार इनका तेल बाहर भेजती है। लेकिन अगर पूरी उपज बेची जाये तो किसानों को इसका फायदा मिले। अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोयाबीन का दाम काफी अच्छा है। लेकिन हमारे यहां इसके किसानों को नुकसान हो रहा है।"

महाराष्ट्र में किसानों की आय भी घटती जा रही है। इस बारे में ग्रामीण आर्ट प्रोजेक्ट से जुड़ी और कृषि मामलों की जानकार श्वेता भट्टड कहती हैं "महाराष्ट्र में किसानों की आय भगवान भेरोसे ही है। प्रदेश की स्थिति कृषि के क्षेत्र में बिगड़ती जा रही है। कृषि राज्य का विषय है। लेकिन फैसले केंद्र सरकार करती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य से लेकर आयात-निर्यात के फैसले केंद्र सरकार के होते हैं। इसका असर अब दिखने लगा है। खेती से होने वाली आय 44 फीसदी तक कम हो गई है। कपास, अनाज और दलहन से होने वाली आय दिन प्रतिदिन कम हो रही है। और इस कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था से पैसा लगातार बाहर जा रहा है।"

महाराष्ट्र में कपास की खेती बहुत होती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से कपास के किसान परेशान हैं। कपास की खेती को कीड़ों ने बर्बाद कर दिया है। कपास परामर्श बोर्ड के अनुसर महाराष्ट्र के प्रमुख उत्पादन क्षेत्रों में खड़ी फसलों पर गुलाबी कीट (पिंक बॉलवर्म) के हमले की वजह से राज्य में इस साल कपास किसानों को अपनी उपज में करीब 13 प्रतिशत का नुकसान उठाना पड़ सकता है। यवतमाल और जलगांव जिलों में फसल के भारी नुकसान के साथ महाराष्ट्र में औसत कपास उत्पादन में 13 प्रतिशत की गिरावट की आशंका है। महाराष्ट्र का करीब एक-तिहाई कपास क्षेत्र गुलाबी कीटों के हमले से ग्रस्त है।

इस बारे में विदर्भ जन आंदोलन समिति (वीजेएएस) के प्रमुख किशोर तिवारी कहते हैं, "कपास की खेती पर कीड़ों ने कहर बरपाया हुआ है। इसकी खेती को कीड़े प्रभावित करते रहेंगे। इसीलिए नए और उन्नत किस्म के कपास के बीजों की जरूरत है। इस वक्त यही इस समस्या का समाधान दिखता है। हमने पहले भी सूखा और बीमारी से बचने वाली कपास की किस्मों के विकास पर अधिक ध्यान नहीं दिया है।”

किशोर आगे कहते हैं “औरंगाबाद स्थित माहिको कंपनी इस विषय पर शोध करने के लिए हर साल 150 करोड़ रुपये खर्च कर रही है। लेकिन कुछ लोग उन्नत किस्म के बीजों के लिए तैयार नहीं हैं। खाद्य उत्पाद तो नहीं, लेकिन कृषि उत्पादों की प्रोसेसिंग केमिकल्स के जरिए की जा सकती है। माहिको के पास उन्नत किस्म के बीज हैं। लेकिन केंद्रीय सरकार इसमें दिलचस्पी नहीं दिखा रही है। ऐसे बीज इस्तेमाल करने से कीड़ों की समस्या से निजात मिल सकती है।"

इस मार्च में हजारों की संख्या में आदिवासी हिस्सा ले रहे हैं। जिनके नाम जमीन है, लेकिन स्थानीय प्रशासन उसे जमीन पर मालिकाना हक नहीं दे रहा है। जिस जमीन को वे जोत रहे हैं, सरकार उसकी जगह बहुत कम जमीन का हक दे रही है। लिहाजा उनका विरोध किया जा रहा है।

स्वराज अभियान और जन किसान आंदोलन के योगेन्द्र यादव कहते हैं "किसान ऐसा कुछ नहीं मांग रहे जिसका वादा फडणवीस सरकार ने नहीं किया है। किसानों की कर्ज माफी, उनकी फसल का उचित न्यूनतम दाम और दलित समुदाय के लोगों को दी गई जमीन के पट्टे देना तो महाराष्ट्र सरकार का वादा है। ये किसानों का दुर्भाग्य है कि उन्हें अपने अधिकारों के लिये बार-बार आंदोलन करना पड़ता है। पहले तो वह अपनी समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए सड़क पर आते हैं। फिर उन्हें सरकार से फैसला करवाने के लिए आंदोलन करना पड़ता है और जैसा आप देख रहे हैं कि फिर किसानों को सरकार के लिखित फैसले को लागू करने के लिए आंदोलन करना पड़ रहा है।"

आदिवासी किसान अपने लिए कर्ज़ माफी , उचित समर्थन मूल्य और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग कर रहे हैं।

ये कुछ प्रमुख कारण रहे जिस कारण महाराष्ट्र के किसान आक्रोशित हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी सरकार ने काफी लापरवाही बरती। पशुओं की मौतों पर सरकार खामोश रही। मवेशियों के लिए कई योजनाएं बनीं लेकिन उन्हें जमीनी स्तर पर नहीं उतारा जा सका। केंद्र सरकार भले ही किसानों की आय दोगुना करने का प्रयास कर रही है, लेकिन सच तो ये है अन्नदाता की आय घटतरी जा रही है।

   

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